Monday, October 30, 2017

देवउठनी एकादशी

कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादश को देवउठनी एकादशी, देवउठनी ग्यारस या प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जानी जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन भगवान श्री हरि राजा बलि के राज्य से चातुर्मास का विश्राम पूरा कर बैकुंठ लौटे थे। इसी के साथ इस दिन तुलसी विवाह का पर्व भी संपन्न होता है।



शास्त्रों में कार्तिक मास को श्रेष्ठ मास माना गया है। मासों में कार्तिक मास, देवताओं में भगवान विष्णु और तीर्थों में नारायण तीर्थ बद्रिकाश्रम श्रेष्ठ है। ये तीनों कलियुग में अत्यंत दुर्लभ हैं। अर्थात्‌ कार्तिक मास के समान कोई भी मास नहीं है।

पुराण में वर्णित है कि यह मास धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को देने वाला है। विशेष रूप से स्नान दान एवं तुलसी की पूजा इस मास में विशेष फलदायी है। कार्तिक मास में दीपदान करने से पाप नष्ट होते हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि इस मास में जो व्यक्ति देवालय, नदी के किनारे, तुलसी के समक्ष एवं शयन कक्ष में दीपक जलाता है उसे सर्व सुख प्राप्त होते हैं।

इस मास में भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी के निकट दीपक जलाने से अमिट फल प्राप्त होते हैं। इस मास में की गई भगवान विष्णु एवं मां लक्ष्मी की उपासना असीमित फलदायी होती है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी की तिथि को देव शयन करते हैं और इस कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन उठते हैं। इसीलिए इसे देवोत्थान (देवउठनी) एकादशी कहा जाता है।

कहा जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु, जो क्षीरसागर में सोए हुए थे, चार माह उपरान्त जागे थे। विष्णुजी के शयन काल के चार मासों में विवाहादि मांगलिक कार्यों का आयोजन करना निषेध है। हरि के जागने के बाद ही इस एकादशी से सभी शुभ तथा मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं। इस दिन गंगा-स्नान, दीपदान, अन्य दानों आदि का विशेष महत्व है।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अंगिरा और आदित्य ने इसे 'महापुनीत पर्व' कहा है। इसलिए इसमें गंगा स्नान, दीपदान, होम, यज्ञ तथा उपासना आदि का विशेष महत्व है। कहा गया है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है।
देवउठनी एकादशी व्रत कथा

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! तुम मेरे बड़े ही प्रिय सखा हो। हे पार्थ! अब मैं तुम्हें पापों का नाश करने वाली तथा पुण्य और मुक्ति प्रदान करने वाली प्रबोधिनी एकादशी की कथा सुनाता हूँ, श्रद्धापूर्वक श्रवण करो-

इस विषय में मैं तुम्हें नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूं। एक समय नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा- ‘हे पिता! प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विधानपूर्वक बताएं।’

ब्रह्माजी ने कहा- ‘हे पुत्र! कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की प्रबोधिनी एकादशी के व्रत का फल एक सहस्र अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ के फल के बराबर होता है।’ नारदजी ने कहा- ‘हे हिता! एक संध्या को भोजन करने से, रात्रि में भोजन करने तथा पूरे दिन उपवास करने से क्या-क्या फल मिलता है। कृपा कर सविस्तार समझाइए’

ब्रह्माजी ने कहा- ‘हे नारद! एक संध्या को भोजन करने से दो जन्म के तथा पूरे दिन उपवास करने से सात जन्म के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी प्रबोधिनी एकादशी के व्रत से सहज ही प्राप्त हो जाती है। प्रबोधिनी एकादशी के व्रत के प्रभाव से बड़े-से-बड़ा पाप भी क्षण मात्र में ही नष्ट हो जाता है। पूर्व जन्म के किए हुए अनेक बुरे कर्मों को प्रबोधिनी एकादशी का व्रत क्षण-भर मे नष्ट कर देता है। जो मनुष्य अपने स्वभावानुसार प्रबोधिनी एकादशी का विधानपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें पूर्ण फल प्राप्त होता है।

हे पुत्र! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन किंचित मात्र पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है।

जो मनुष्य अपने हृदय के अंदर ही ऐसा ध्यान करते हैं कि प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करूंगा, उनके सौ जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी को रात्रि जागरण करते हैं, उनकी बीती हुई तथा आने वाली दस पीढ़ियां विष्णु लोक में जाकर वास करती हैं और नरक में अनेक कष्टों को भोगते हुए उनके पितृ विष्णुलोक में जाकर सुख भोगते हैं।

हे नारद! ब्रह्महत्या आदि विकट पाप भी प्रबोधिनी एकादशी के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं। प्रबोधिनी एकादशी को रात्रि को जागरण करने का फल अश्वमेध आदि यज्ञों के फल से भी ज्यादा होता है ।

सभी तीर्थों में जाने तथा गौ, स्वर्ण भूमि आदि के दान का फल प्रबोधिनी के रात्रि के जागरण के फल के बराबर होता है।

हे पुत्र! इस संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है, जिसने प्रबोधिनी एकादशी के व्रत द्वारा अपने कुल को पवित्र किया है। संसार में जितने भी तीर्थ हैं तथा जितने भी तीर्थों की आशा की जा सकती है, वह प्रबोधिनी एकादशी का व्रत करने वाले के घर में रहते हैं।

प्राणी को सभी कर्मों को त्यागते हुए भगवान श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए कार्तिक माह की प्रबोधिनी एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए। जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी तपस्वी तथा इंद्रियों को जीतने वाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु की अत्यंत प्रिय है। इसके व्रत के प्रभाव से मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।

इस एकादशी व्रत के प्रभाव से कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के पापों का शमन हो जाता है। इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान विष्णु की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ आदि करते हैं, उन्हें अनंत पुण्य की प्राप्ति होती है।

प्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि का पूजन करने के बाद, यौवन और वृद्धावस्था के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस एकादशी की रात्रि को जागरण करने का फल, सूर्य ग्रहण के समय स्नान करने के फल से सहस्र गुना ज्यादा होता है। मनुष्य अपने जन्म से लेकर जो पुण्य करता है, वह पुण्य प्रबोधिनी एकादशी के व्रत के पुण्य के सामने व्यर्थ हैं। जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी का व्रत नहीं करता, उसके सभी पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं।

इसलिए हे पुत्र! तुम्हें भी विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। जो मनुष्य कार्तिक माह के धर्मपरायण होकर अन्य व्यक्तियों का अन्न नहीं खाते, उन्हें चांद्रायण व्रत के फल की प्राप्ति होती है।

कार्तिक माह में प्रभु दान आदि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितने कि शास्त्रों की कथा सुनने से प्रसन्न होते है।

कार्तिक माह में जो मनुष्य प्रभु की कथा को थोड़ा-बहुत पढ़ते हैं या सुनते हैं, उन्हें सो गायों के दान के फल की प्राप्ति होती है।

ब्रह्माजी की बात सुनकर नारदजी बोले- ‘हे पिता! अब आप एकादशी के व्रत का विधान कहिए और कैसा व्रत करने से किस पुण्य की प्राप्ति होती है? कृपा कर यह भी समझाइए।

देवउठनी एकादशी व्रत विधि 

नारद की बात सुन ब्रह्माजी बोले- ‘हे पुत्र! इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाना चाहिए और स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प करना चाहिए। उस समय भगवान विष्णु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु! आज मैं निराहार रहूंगा और दूसरे दिन भोजन करूंगा, इसलिए आप मेरी रक्षा करें।

इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान का पूजन करना चाहिए और व्रत प्रारंभ करना चाहिए। उस रात्रि को भगवान के समीप गायन, नृत्य, बाजे तथा कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए।

प्रबोधिनी एकादशी के दिन कृपणता को त्यागकर बहुत से पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए।

शंख के जल से भगवान को अर्घ्य देना चाहिए। इसका फल तीर्थ दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है।

जो मनुष्य अगस्त्य पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं, उनके सामने इंद्र भी हाथ जोड़ता है।

कार्तिक माह में जो बिल्व पत्र से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें अंत में मुक्ति मिलती है।

कार्तिक माह में जो मनुष्य तुलसीजी से भगवान का पूजन करता है, उसके दस हजार जन्मों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

जो मनुष्य इस माह में श्री तुलसीजी के दर्शन करते हैं या स्पर्श करते हैं या ध्यान करते हैं या कीर्तन करते हैं या रोपन करते हैं अथवा सेवा करते हैं, वे हजार कोटियुग तक भगवान विष्णु के लोक में वास करते हैं।

जो मनुष्य तुलसी का पौधा लगाते हैं उनके कुल में जो पैदा होते हैं, वे प्रलय के अंत तक विष्णुलोक में रहते हैं।

जो मनुष्य भगवान का कदंब पुष्प से पूजन करते हैं, वह यमराज के कष्टों को नहीं पाते। सभी कामनाओं को पूरा करने वाले भगवान विष्णु कदंब पुष्प को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं। यदि उनका कदंब पुष्प से पूजन किया जाए तो इससे उत्तम बात और कोई नहीं है। जो गुलाब के पुष्प से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य बकुल और अशोक के पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं, वे अनंत काल तक शोक से रहित रहते हैं। जो मनुष्य भगवान विष्णु का सफेद और लाल कनेर के फूलों से पूजन करते हैं, उन पर भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं। जो मनुष्य भगवान श्रीहरि का दूर्वादल ज्ञे पूजन करते हैं, वे पूजा के फल से सौ गुना ज्यादा फल पाते हैं। जो भगवान का शमीपत्र से पूजन करते हैं, वे भयानक यमराज के मार्ग को सुगमता से पार कर जाते हैं। जो मनुष्य चंपक पुष्प से भगवान विष्णु का पूजन करते हैं, वे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

जो मनुष्य स्वर्ण का बना हुआ केतकी पुष्प भगवान को अर्पित करते हैं, उनके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य पीले और रक्त वर्ण कमल के सुगंधित पुष्पों से भगवान का पूजन करते हैं, उन्हें श्वेत दीप में स्थान मिलता है।

इस प्रकार रात्रि में भगवान का पूजन करके प्रातःकाल शुद्ध जल की नदी में स्नान करना चाहिए।

स्नान करने के उपरांत भगवान की स्तुति करते हुए घर आकर भगवान का पूजन करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और दक्षिणा देकर आदर सहित उन्हें प्रसन्नतापूर्वक विदा करना चाहिए।

इसके बाद गुरु की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर नियम को छोड़ना चाहिए। जो मनुष्य रात्रि स्नान करते हैं, उन्हें दही और शहद दान करना चाहिए। जो मनुष्य फल की आशा करते हैं, उन्हे फल दान करना चाहिए। तेल की जगह घी और घी की जगह दूध, अन्नों में चावल दान करना चाहिए।

जो मनुष्य इस व्रत में भूमि पर शयन करते हैं, उन्हें सब वस्तुओं सहित शैया दान करना चाहिए। जो मौन धारण करते हैं, उन्हें स्वर्ण सहित तिल दान करना चाहिए। जो मनुष्य कार्तिक माह में खड़ाऊं धारण नहीं करते, उन्हें खड़ाऊं दान करने चाहिए। जो इस माह में नमक त्यागते हैं, उन्हें शक्कर दान करनी चाहिए। जो मनुष्य नित्य प्रति देव मंदिरों में दीपक जलाते हैं, उन्हें स्वर्ण या तांबे के दीपक को घी तथा बत्ती सहित दान करना चाहिए।

जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें उस दिन से उस वस्तु को पुनः ग्रहण करना चाहिए।

जो मनुष्य प्रबोधिनी एकादशी के दिन विधानपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनंत सुख की प्राप्ति होती है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं।

जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत को बिना किसी बाधा के पूर्ण कर लेते हैं, उन्हें दुबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। जिन मनुष्यों का व्रत खंडित हो जाता है, उन्हें दुबारा प्रारंभ कर लेना चाहिए। जो मनुष्य इस एकादशी के माहात्म्य को सुनते व पढ़ते हैं अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है।”

देवउठनी एकादशी व्रत कथा

एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था।

एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला- महाराज! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है, रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय 'हाँ' कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा- महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊँगा। मुझे अन्न दे दो।

राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह नित्य की तरह नदी पर पहुँचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा- आओ भगवान! भोजन तैयार है।

पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।

बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुँचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।

पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया। राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।

यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला- मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।

राजा की बात सुनकर वह बोला- महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा- हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूँगा।

लेकिन भगवान नहीं आए, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए।

यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।

पूजन विधि

हिंदू शास्त्रों के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी को पूजा-पाठ, व्रत-उपवास किया जाता है। इस तिथि को रात्रि जागरण भी किया जाता है। देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु को धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गंध, चंदन, फल और अध्र्य आदि अर्पित करें। भगवान की पूजा करके घंटा, शंख, मृदंग आदि वाद्य यंत्रों के साथ निम्न मंत्रों का जाप करें-

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविंद त्यज निद्रां जगत्पते।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्।।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।
हिरण्याक्षप्राणघातिन् त्रैलोक्ये मंगलं कुरु।।

इसके बाद भगवान की आरती करें और पुष्पांजलि अर्पण करके निम्न मंत्रों से प्रार्थना करें-

इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता।
त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थं शेषशायिना।।
इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो।
न्यूनं संपूर्णतां यातु त्वत्वप्रसादाज्जनार्दन।।

इसके बाद प्रहलाद, नारदजी, परशुराम, पुण्डरीक, व्यास, अंबरीष, शुक, शौनक और भीष्म आदि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत और प्रसाद का वितरण करना चाहिए।

तुलसी विवाह, देवउठनी ग्यारस, देव प्रबोधनी एकादशी तिथि

मान्यतानुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी जी और विष्णु जी का विवाह कराने की प्रथा है। तुलसी विवाह में तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति या शालिग्राम पाषाण का पूर्ण वैदिक रूप से विवाह कराया जाता है। हिन्दुओं धर्म में तुलसी को बड़ा पवित्र स्थान दिया गया है। यह लक्ष्मी व नारायण दोनों को समान रूप से प्रिय है। इसे 'हरिप्रिया' भी कहा गया है।इसी के चलते बिना तुलसी के यज्ञ, हवन, पूजन, कर्मकांड, साधना व उपासना पूरे नहीं होते। यहां तक कि श्राद्ध, तर्पण, दान, संकल्प के साथ ही चरणामृत, प्रसाद व भगवान के भोग में भी तुलसी का होना अनिवार्य माना गया है।भगवान के आगमन को देवउठनी एकादशी के रूप में भी मनाया जाता है। भारतीय समाज में तुलसी के पौधे को देवतुल्य मान ऊंचा स्थान दिया गया है। यह औषधि के साथ ही मोक्ष प्रदायिनी भी है। तुलसी के संबंध में जन्म-जन्मांतर के बारे में अनेक पौराणिक गाथाएं विद्यमान हैं। तुलसी के अन्य नामों में 'वृन्दा' और 'विष्णुप्रिया' खास माने जाते हैं।



तुलसी विवाह कथा

शास्त्रों के अनुसार प्राचीन समय में जालंधर नामक राक्षस था जो बहुत ही अत्याचारी था। जालंधर बहुत वीर था और उसकी वीरता का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा का पत्नीधर्म का पालन करना था। जालंधर से सभी देवता बहुत ही परेशान हो गए थे। जालंधर के आतंक से परेशान होकर सभी देवता विष्णु भगवान के पास गए और उन्होंने जालंधर के उत्पात से छुटकारा पाने के लिए उनसे प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवान ने जालंधर की पत्नी वृंदा के सतीत्व धर्म को भंग करने का प्रयास किया। जिसके बाद जालंधर की मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु से दुखी होकर वृंदा ने विष्णु भगवान को एक श्राप दिया।

जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया। देवताओं की प्रार्थना पर वृंदा ने अपना शाप वापस ले लिया। लेकिन भगवान विष्णु ने वृंदा के शाप को जिवित रखने के लिए अपना एक रूप पत्थर रूप में प्रकट किया जो शालिग्राम कहलाया।

भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि तुम अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट होगी और लक्ष्मी से भी अधिक मेरी प्रिय रहोगी। तुम्हारा स्थान मेरे शीश पर होगा। यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखा जाता है।

तुलसी की प्रतिदिन पूजन करने से घर में धन-संपदा, वैभव, सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती हैं। प्रतिदिन मां तुलसी से मनोकामना कहीं जाए तो वह भी निश्चित रूप से पूरी होती है। तुलसी स्तुति मंत्र -

देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरै:।
नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।।

तुलसी पूजन मंत्र

तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।
धर्म्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।
लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत्।
तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।

तुलसी विवाह की विधि

तुलसी विवाह संपन्न कराने के लिए एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए और तुलसी जी के साथ विष्णु जी की मूर्ति घर में स्थापित करनी चाहिए. तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति को पीले वस्त्रों से सजाना चाहिए. पीला विष्णु जी की प्रिय रंग है.

तुलसी विवाह के लिए तुलसी के पौधे को सजाकर उसके चारों तरफ गन्ने का मंडप बनाना चाहिए. तुलसी जी के पौधे पर चुनरी या ओढ़नी चढ़ानी चाहिए. इसके बाद जिस प्रकार एक विवाह के रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह की भी रस्में निभानी चाहिए.

अगर चाहें तो पंडित या ब्राह्मण की सहायता से भी विधिवत रूप से तुलसी विवाह संपन्न कराया जा सकता है अन्यथा मंत्रोच्चारण (ऊं तुलस्यै नम:) के साथ स्वयं भी तुलसी विवाह किया जा सकता है.

द्वादशी के दिन पुन: तुलसी जी और विष्णु जी की पूजा कर और व्रत का पारण करना चाहिए. भोजन के पश्चात तुलसी के स्वत: गलकर या टूटकर गिरे हुए पत्तों को खाना शुभ होता है. इस दिन गन्ना, आंवला और बेर का फल खाने से जातक के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं.


घर में ऐसे करें तुलसी विवाह-


  1. शाम के समय सारा परिवार इसी तरह तैयार हो जैसे विवाह समारोह के लिए होते हैं। 
  2. तुलसी का पौधा एक पटिये पर आंगन, छत या पूजा घर में बिलकुल बीच में रखें।
  3. तुलसी के गमले के ऊपर गन्ने का मंडप सजाएं। 
  4. तुलसी देवी पर समस्त सुहाग सामग्री के साथ लाल चुनरी चढ़ाएं।
  5. गमले में सालिग्राम जी रखें। 
  6. याद रखें सालिग्राम जी पर चावल नहीं चढ़ते हैं। उन पर तिल चढ़ाई जा सकती है। 
  7. तुलसी और सालिग्राम जी पर दूध में भीगी हल्दी लगाएं। 
  8. गन्ने के मंडप पर भी हल्दी का लेप करें और उसकी पूजन करें।
  9. हिंदू धर्म में विवाह के समय बोला जाने वाला मंगलाष्टक अगर आता है तो वह अवश्य करें। 
  10. देव प्रबोधिनी एकादशी से कुछ वस्तुएं खाना आरंभ किया जाता है। अत: भाजी, मूली़ बेर और आंवला जैसी सामग्री बाजार में पूजन में चढ़ाने के लिए मिलती है वह लेकर आएं।  
  11. कपूर से आरती करें। 
  12. प्रसाद चढ़ाएं। 
  13. 11 बार तुलसी जी की परिक्रमा करें। 
  14. प्रसाद को मुख्य आहार के साथ ग्रहण करें। 
  15. प्रसाद वितरण अवश्य करें। 
  16. पूजा समाप्ति पर घर के सभी सदस्य चारों तरफ से पटिए को उठा कर भगवान विष्णु से जागने का आह्वान इस मंत्र का उच्चारण करते हुए करें- 'उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्॥''उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिश:॥' 'शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।' 
  17. तुलसी नामाष्टक: वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी। पुष्पसारा नन्दनीच तुलसी कृष्ण जीवनी।।एतभामांष्टक चैव स्रोतं नामर्थं संयुक्तम। य: पठेत तां च सम्पूज् सौऽश्रमेघ फललंमेता।। 
  18. मां तुलसी से उनकी तरह पवित्रता का वरदान मांगें।



Dev Uthani Ekadashi

Dev Uthani Ekadashi is famous by various names among the devotees. Some of the famous names are – Prabodhini Ekadashi, Dev Uthani Ekadashi, Dev Utthana Ekadashi, Vishnu Prabodhini, or Deothan.




Also, this Ekadasi occurs in the Hindu month of Kartik, hence, it is also known as Kartiki Ekadashi. However, Prabodhini Ekadashi is the well known name, by which the Dev Uthani Ekadashi is famous.

The occasion of Dev Uthani Ekadashi marks the end of the period of four months of inauspicious time. This time period is called the Chaturmas. The period of four months, before the Dev Uthani Ekadashi, is considered to be the sleeping period of Lord Vishnu. It is said that Lord Vishnu goes to sleep called the Yoga Nidra, on Devshayani Ekadashi and wakes up after the four month duration, i.e. on Dev Uthani Ekadashi. Also, on the day of Devuthani Ekadasi, the famous Pandarpur Yatra is carried at the Lord Vitthal temple.

All the devotees follow different rituals at the awakening of Lord Vishnu. On this Dev Uthani Ekadashi, all the rituals of the day would be followed to celebrate the awakening of Lord Vishnu.

Dev Uthani Ekadashi is famous by various names among the devotees. Some of the famous names are – Prabodhini Ekadashi, Dev Uthani Ekadashi, Dev Utthana Ekadashi, Vishnu Prabodhini or Deothan. Also, this Ekadasi occurs in the Hindu month of Kartik, hence, it is also known as Kartiki Ekadashi. However, Prabodhini Ekadashi is the well known name, by which the Dev Uthani Ekadashi is famous.

Dev Uthani Ekadashi : Significance Of The Day

Dev Uthani Ekadasi holds a lot of significance amongst the Hindus. It is said to be the start of an auspicious timing, as it ends the time of Lord Vishnu’s sleep and he wakes up on this very day. People observe fast on Prabodhini Ekadashi. It is believed that if someone observes fast on the day of Dev-Prabodhini Ekadashi, his/her sins get abolished, even though, the sins were committed in past life.

It is said that those who do not consume food at all on the day of Dev Uthani Ekadashi, get rid of the sins of past seven births. It is firmly believed that observing the Dev Uthani Ekadashi fast, helps in attaining liberation and gives immense benefits. It is considered highly meritorious and purifying to take bath on the day of Prabodhini Ekadashi, which is not even received by taking bath at a pilgrimage.

The day of Dev Uthani Ekadashi also holds great significance as it initiates the season of marriages, which is stopped during the four months of Lord Vishnu’s sleep. It is not considered auspicious to do marriages during the period of Chaturmas. Hence, on this Dev Uthani Ekadashi get ready to celebrate this pious day by getting Lord Vishnu’s blessings. Also, go ahead and conduct all the auspicious occasions like marriage ceremonies, from the day of Dev Uthani Ekadashi.

Now, let’s take a glance at the legend of the Dev Uthani Ekadashi, that would unfold the reason behind Lord Vishnu’s Yoga Nidra and other facts.

Legend Of Dev Uthani Ekadashi

As per the legend of the Dev Uthani Ekadashi, Goddess Lakshmi was quite unhappy with the unusual sleeping of Lord Vishnu. Sometimes, Lord Vishnu used to sleep for numerous days and sometimes, he remained awake for so many days. Goddess Lakshmi told Lord Vishnu that she is not happy with this and needs Lord Vishnu to find a solution. She also told him that even the Devas, Lord Shiva and Lord Brahma, had to wait for long to meet him. Lord Vishnu assured Goddess Lakshmi at that time that he would find a solution to this problem.



After few days, the Devas (demigods) and the saints reached Lord Vishnu and complained that a demon named Sankhyayan, has stolen the Vedas. He had done so as he wished that human beings should get deprived of the knowledge of the religious literature. He also wanted that the epitome of evil should spread all around. Lord Vishnu promised all of them that he would bring back the Vedas. Lord Vishnu had a fight with Sankhyayan and defeated him. He took over all the Vedas from the demon and returned them back to the Devas. He also said to Goddess Lakshmi that now he will go for a continuous sleep of four months. Hence, this durations is called the Chaturmas.

Rituals Of The Day

Following are the rituals that are to be carried out on Dev Uthani Ekadashi:

  1. On the day of Prabodhini Ekadashi, devotees take a holy bath early morning.
  2. Devotees perform the ritual of marriage of Lord Vishnu with Tulsi plant on this day. This ritual is known as Tulsi Vivah (marriage with Tulsi plant).
  3. A fast is performed that begins on the day of Dashami day (preceding day). Vrat is continued till Dwadashi (succeeding day).
  4. The fast is terminated within Dwadashi Tithi according to the Parana Muhurat.



Dev Uthani Ekadashi is an ultimate way to reach the doorway of heaven. It is strongly believed that if one follows the day of Dev Uthani Ekadashi with severe devotion, he/she will definitely be gifted with Moksha and will be able to reach the heavenly abode of Devas, Vishnu Loka. The day of Dev Uthani Ekadashi is also believed to carry the boon to free the souls of a person's ancestors.

Friday, October 27, 2017

Akshya Navami (Amla Navami)

Akshyay means inexhaustible or something that does not decay, does not perish, or in more simple words you do not suffer any loss on account of it. We have a festival in the name of Akshyay Tritiya celebrated on vaishakh shukla tritiya and another festival in a similar name of Akshyay Navami almost after six months of the earlier that is celebrated on Kartik Shukla Navami ie on ninth day of second (bright) fortnight of the month Kartik.



Akshaya Navami is an auspicious lunar day. This is the day Krishna left Vrindavana with Akrura. Parikrama is done of both Mathura and Vrindavana of 54km (32 miles). The popular belief is that the Treta Yuga started on this day. Some people refer the day as the beginning of the Satyuga. An important event on Akshay Navmi is the distribution of alms and receiving of presents.The day is observed as Akshay Navami Parikarama Divas in North India. Goddess Jagadhatri is worshipped on the day in West Bengal.

Also on this day Sun God worshipped Durga and was in return awarded with unlimited gifts possibly in the form of solar properties which are now so beneficial to mankind. The main characteristics which lends the epithet `Akshyay' or Indestructible to this day is that gifts bestowed on this particular day continue to bear blessings for ever. The day is spent by devout Hindus in meditation and prayer to acquire the inexhaustible knowledge of God and thereby attain eternal bliss and peace.

This is the day on which devotees undertake parikrama (circumambulate) of the twin city of Mathura and Vrindavan. They come out of their homes early in the morning before sunrise, barefoot, walk down to Yamuna, take a holy dip, worship Yamuna, smear a little of Braj Raj on their foreheads and then start the Parikrama. Wearing the braj raj on the forehead is said to be assuring salvation to salvation itself. As some enlightened saint of yesteryears mentions:


Vrindavan ki gail mein mukti pade bilkhaye,

Mukti kahe Gopal son, meri mukti bataein |

Padie raho ya gail mein panthi awat jayein,

Brij-raj ud mastak lage, mukti mukt hai jai ||


Meaning goes as: The goddess Salvation (Mukti), lying in the lanes of Vrindavan, is crying. The Goddess is urging Gopal( a lovely name of Lord Krishna, meaning the protector of cows, the cowherd boy) to tell her  the way that she herself can be salvaged. The Lord tells her to patiently keep on lying in these lanes of Vrindavan. As the people will walk up and down the lane the dust of Vrindavan (Braj-raj) will raise off the ground by their footfalls and as it touches your forehead you will attain salvation. Such is the divine power of Braj-raj.


So, the devotees wearing braj-raj on their foreheads go around the holy cities of Mathura and Vrindavan. As they start from Vrindavan, walking along the holy river Yamuna,   on their way they offer their respects at various temples- Shri Banke Bihari Mandir, Kaliya Dah, Cheer Ghat, Nidhivan, Keshi Ghat, Gopeshwar Mahadev, Jagannath Ghat and finally Godess Durga in Vrindavan. Then they walk towards Mathura, along Yamuna taking the same rout as taken by Lord Krishna when He left Vrindavan on invitation of His maternal uncle Kamsa, and offer pooja at Akroor Ghat temple on their way. On entering Mathura they worship Yamuna again at Vishram Ghat, offer pooja at Dwarkadhesh Temple, Rangeshwar Mahadev, Bhuteshwar Mahadev and Shri Krishna Janmasthan Temple. Then they walk back to Vrindavan through the forests and grasslands where Lord Krishna used to graze cows in his childhood ages ago. The land is considered pious as it bears imprints of Lotus feet of Lord and his friends. By the time they reach back to Vrindavan from head to toe they are laden with pious Braj-raj. Though the ritual is tiring and highly demanding on physical strength of the devotee, it is seen that even seemingly fragile and weak devotees are also able to successfully undertake the parikrama. As we know this is the divine intervention in our lives in the form of enhanced energy and strength that is granted to us for fulfilling such pious ambitions.


On this occasion if you are not able to physically undertake the parikrama we advise you to undertake at least mansik parikrama of the holy land. You can meditate on the image of Brij mandal and mentally walk around Vrindavan and Mathura. Believe in the power of deep meditation and be assured that mansik parikrama will do you as good spiritually as the actual physical parikrama.

Akshaya Navami is also known as the Amla Navami. As per traditions, the Amla tree is also worshipped on Akshaya Navami. Amla has much religious significance attached to it as it is a fruit known to be very dear to lord Vishnu.

The legend behind Amla Navami

One day a Chandala went hunting in the forest. While he hunted for birds and deers, he fell hungry. Seeing an Amla tree, he climbed onto it and ate the sweet Amla fruits. Unfortunately, as he began to climb down, he fell and died. When Yam raj’s attendants to take away his soul, they could not do so. This baffled the Yam raj to a great extent and he seeked help from sages. They enlightened him by saying that they couldn’t approach the Chandala’s body as he had consumed Amla just before he died.

Amla Navami celebration

The festival of Aanvla Navmi or Amla Navami is celebrated with joy by women. Women pray for the success and welfare of their family on the day of Amla Navmi.

Preparation for the Puja

Amla navmi Puja is of special significance for women. This day ladies perform special puja and pray before Indian Goose Berry Tree or Aanvla (Amla) tree. If the aanvla tree is not present in close vicinity of the house, a small branch of the tree can be brought to the house for performing puja.

Requirements:


  • Indian Goose Berry Tree or Aanvla (Amla) tree or branch of the tree.
  • Water in a kalash
  • Milk
  • Roll, moli, chawal, jaggery, batasha
  • Raw white thread, moli
  • Doop, deepak, matchstick
  • Money for offering
  • Saree, blouse—piece and dakshina for Brahminis (optional)
  • Blouse piece (either red, yellow or pink in color)


Method

Puja of Amla Navmi is performed by women for the well being and prosperity of their family. On the day of Amla Navmi, women rise up early in the morning and then take bath and wear new or washed clothes.

All women of near by places gather and move to the place where aanvla tree is present and if the tree is not present then branch of the tree is brought and set in mud or kalash filled with water.

Puja is always performed in a particular direction. This puja for Amla Navmi is performed while facing towards east. First, water is offered to the tree followed by milk, moli, roli, chawal, jaggery, batasha, aanvla, blouse piece and some money.

Deepak and Dhup (Lamp) are lit before the tree then all ladies put tilak (Auspicious red color Mark by roli) on their forehead.

The special trend of Parikrama is practiced in which women revolve around the tree for 8 or 108 times and while moving they wrap the raw white thread or red moli (Red sacred thread) around the Amla tree.

After performing Parikrama, all women sit together and read or listens Katha associated with Amla Navmi. Katha of Bindaayakji is read after the katha of Amla Navmi. There is also the practice of keeping few grains in the hand during katha and later placed in kalash filled with water placed near aanvla tree.

There is also tradition of inviting the Brahmini for food and presenting clothes and dakshina (money).

Women should include goose berry or Amla in their food on the day of Amla navmi.

गोपाष्टमी

गोपाष्टमी के शुभ अवसर पर गौशाला में गोसंवर्धन हेतु गौ पूजन का आयोजन किया जाता है। गौमाता पूजन कार्यक्रम में सभी लोग परिवार सहित उपस्थित होकर पूजा अर्चना करते हैं। गोपाष्टमी की पूजा विधि पूर्वक विध्दान पंडितो द्वारा संपन्न की जाती है। बाद में सभी प्रसाद वितरण किया जाता है। सभी लोग गौ माता का पूजन कर उसके वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक महत्व को समझ गौ रक्षा व गौ संवर्धन का संकल्प करते हैं।


भारत में गाय माता के समान है. यहाँ माना जाता है कि सभी देवी, देवता गौ माता के अंदर समाहित रहते है. तो उनकी पूजा करने से सभी का फल मिलता है. गोपाअष्टमी पर्व एवम उपवास इस दिन भगवान कृष्ण एवम गौ माता की पूजा की जाती हैं. हिन्दू धर्म में गाय का स्थान माता के तुल्य माना जाता है, पुराणों ने भी इस बात की पुष्टि की हैं. भगवान श्री कृष्ण एवम भाई बलराम दोनों का ही बचपन गौकुल में बिता था, जो कि ग्वालो की नगरी थी. ग्वाल जो गाय पालक कहलाते हैं. कृष्ण एवम बलराम को भी गाय की सेवा, रक्षा आदि का प्रशिक्षण दिया गया था. गोपाष्टमी के एक दिन पूर्व इन दोनों ने गाय पालन का पूरा ज्ञान हासिल कर लिया था. यह पूजा एवम उपवास कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन होता हैं, इस दिन गौ माता की पूजा की जाती हैं. कहते हैं इस दिन तक श्री कृष्ण एवं बलराम ने गाय पालन की सभी शिक्षा ले कर, एक अच्छे ग्वाला बन गए थे.



हिन्दू संस्कृति में गाय का विशेष स्थान हैं. माँ का दर्जा दिया जाता हैं क्यूंकि जैसे एक माँ का ह्रदय कोमल होता हैं, वैसा ही गाय माता का होता हैं. जैसे एक माँ अपने बच्चो को हर स्थिती में सुख देती हैं, वैसे ही गाय भी मनुष्य जाति को लाभ प्रदान करती हैं. गाय का दूध, गाय का घी, दही, छांछ यहाँ तक की मूत्र भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं. इसे कर्तव्य माना जाता हैं कि गाय की सुरक्षा एवम पालन किया जाये. गोपाष्टमी हमें इसी बात का संकेत देती हैं कि पुरातन युग में जब स्वयं श्री कृष्ण ने गौ माता की सेवा की थी, तो हम तो कलयुगी मनुष्य हैं. यह त्यौहार हमें बताता हैं कि हम सभी अपने पालन के लिये गाय पर निर्भर करते हैं इसलिए वो हमारे लिए पूज्यनीय हैं. सभी जीव जंतु वातावरण को संतुलित रखने के लिए उत्तरदायी हैं, इस प्रकार सभी एक दुसरे के ऋणी हैं और यह उत्सव हमें इसी बात का संदेश देता हैं.

गोपाष्टमी कैसे शुरू हुई उसके पीछे एक पौराणिक कथा हैं. किस प्रकार भगवान कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं में गौ माता की सेवा की उसका वर्णन भी इस कथा में हैं.

गोपाष्टमी पर्व की कथा

गोपाष्टमी से जुडी कई कथाये प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है:

जब कृष्ण भगवान ने अपने जीवन के छठे वर्ष में कदम रखा. तब वे अपनी मैया यशोदा से जिद्द करने लगे कि वे अब बड़े हो गये हैं और बछड़े को चराने के बजाय वे गैया चराना चाहते हैं. उनके हठ के आगे मैया को हार माननी पड़ी और मैया ने उन्हें अपने पिता नन्द बाबा के पास इसकी आज्ञा लेने भेज दिया. भगवान कृष्ण ने नन्द बाबा के सामने जिद्द रख दी कि अब वे गैया ही चरायेंगे. नन्द बाबा ने गैया चराने के लिए पंडित महाराज को मुहूर्त निकालने कह दिया. पंडित बाबू ने पूरा पंचाग देख लिया और बड़े अचरज में आकर कहा कि अभी इसी समय के आलावा कोई शेष मुहूर्त नही हैं अगले बरस तक. शायद भगवान की इच्छा के आगे कोई मुहूर्त क्या था. वह दिन गोपाष्टमी का था. जब श्री कृष्ण ने गैया पालन शुरू किया. उस दिन माता ने अपने कान्हा को बहुत सुन्दर तैयार किया. मौर मुकुट लगाया, पैरों में घुंघरू पहनाये और सुंदर सी पादुका पहनने दी लेकिन कान्हा ने वे पादुकायें नहीं पहनी. उन्होंने मैया से कहा अगर तुम इन सभी गैया को चरण पादुका पैरों में बांधोगी तब ही मैं यह पहनूंगा. मैया ये देख भावुक हो जाती हैं और कृष्ण बिना पैरों में कुछ पहने अपनी गैया को चारण के लिए ले जाते.

इस प्रकार कार्तिक शुक्ल पक्ष के दिन से गोपाष्टमी मनाई जाती हैं. भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था. गौ सेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा था. इन्होने गाय के महत्व को सभी के सामने रखा. स्वयं भगवान ने गौ माता की सेवा की.



कहा जाता है कृष्ण जी ने अपनी सबसे छोटी ऊँगली से गोबर्धन पर्वत को उठा लिया था, जिसके बाद से उस दिन गोबर्धन पूजा की जाती है. ब्रज में इंद्र का प्रकोप इस तरह बरसा की लगातार बारिश होती रही, जिससे बचाने के लिए कृष्ण ने जी 7 दिनन तक पर्वत को अपनी एक ऊँगली में उठाये रखा था. गोपाष्टमी के दिन ही भगवान् इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की थी, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने गोबर्धन पर्वत नीचे रखा था.



गोपाष्टमी ने जुड़ी एक बात और ये है कि राधा भी गाय को चराने के लिए वन में जाना चाहती थी, लेकिन लड़की होने की वजह से उन्हें इस बात के लिए कोई हाँ नहीं करता था. जिसके बाद राधा को एक तरकीब सूझी, उन्होंने ग्वाला जैसे कपड़े पहने और वन में श्रीकृष्ण के साथ गाय चराने चली गई. कृष्ण जी के हर मंदिर में इस दिन विशेष आयोजन होते है. वृन्दावन, मथुरा, नाथद्वारा में कई दिनों पहले से इसकी तैयारी होती है. नाथद्वारा में 100 से भी अधिक गाय और उनके ग्वाले मंदिर में जाकर पूजा करते है. गायों को बहुत सुंदर ढंग से सजाया जाता है.



इस दिन गाय की पूजा की जाती हैं. सुबह जल्दी उठकर स्नान करके गाय के चरण स्पर्श किये जाते हैं. गोपाष्टमी की पूजा पुरे रीती रिवाज से पंडित के द्वारा कराई जाती है. सुबह ही गाय और उसके बछड़े को नहलाकर तैयार किया जाता है. उसका श्रृंगार किया जाता हैं, पैरों में घुंघरू बांधे जाते हैं,अन्य आभूषण पहनायें जाते हैं. गाय माता की परिक्रमा भी की जाती हैं. सुबह गायों की परिक्रमा कर उन्हें चराने बाहर ले जाते है. इस दिन ग्वालों को भी दान दिया जाता हैं. कई लोग इन्हें नये कपड़े दे कर तिलक लगाते हैं. शाम को जब गाय घर लौटती है, तब फिर उनकी पूजा की जाती है, उन्हें अच्छा भोजन दिया जाता है. खासतौर पर इस दिन गाय को हरा चारा खिलाया जाता हैं. जिनके घरों में गाय नहीं होती है वे लोग गौ शाला जाकर गाय की पूजा करते है, उन्हें गंगा जल, फूल चढाते है, दिया जलाकर गुड़ खिलाते है. औरतें कृष जी की भी पूजा करती है, गाय को तिलक लगाती है. इस दिन भजन किये जाते हैं. कृष्ण पूजा भी की जाती हैं. गाय को हरा मटर एवं गुड़ खिलाया जाता है. कुछ लोग गौशाला में खाना और अन्य समान का दान भी करते है. इस दिन स्कॉन टेम्पल को खूब सजाया जाता हैं. उसमे नाच गाना और भव्य जश्न होता हैं. हमने इस आर्टिकल के जरिये आपको इस त्यौहार के बारे में सारी जानकारी दी हैं. इससे आपको स्पष्ट होगा कि गौ माता का हिन्दू संस्कृति में कितना अधिक महत्व हैं. पुराणों में गाय के पूजन, उसकी रक्षा, पालन,पोषण को मनुष्य का कर्तव्य माना गया हैं. हम सभी को गौ माता की सेवा करना चाहिये, क्यूंकि वह भी हमें एक माँ की तरह ही पालन करती हैं.



गोपाष्टमी पर गऊओं की पूजा भगवान श्री कृष्ण को बेहद प्रिय है तथा इनमें सभी देवताओं का वास माना जाता है। कईं स्थानों पर गोपाष्टमी के अवसर पर गायों की उपस्थिति में प्रभातफेरी सत्संग संपन्न होते हैं।  गोपाष्टमी पर्व के उपलक्ष्य में जगह-जगह अन्नकूट भंडारे का आयोजन किया जाता है। भंडारे में श्रद्धालुओं ने अन्नकूट का प्रसाद ग्रहण करते हैं। वहीं गोपाष्टमी पर्व की पूर्व संध्या पर शहर के कई मंदिरों में सत्संग-भजन का आयोजन भी किया जाता है। मंदिर में गोपाष्टमी के उपलक्ष्य में रात्रि कीर्तन में श्रद्धालुओं ने भक्ति रचनाओं का रसपान करते हैं। इस मौके पर प्रवचन एवं भजन संध्या में उपस्थित श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।गो सेवा से जीवन धन्य हो जाता है तथा मनुष्य सदैव सुखी रहता है।

शास्त्रों में गोपाष्टमी पर्व पर गायों की विशेष पूजा करने का विधान निर्मित किया गया है। इसलिए कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को प्रात:काल गौओं को स्नान कराकर, उन्हें सुसज्जित करके गन्ध पुष्पादि से उनका पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात यदि संभव हो तो गायों के साथ कुछ दूर तक चलना चाहिए कहते हैं ऎसा करने से प्रगत्ति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। गायों को भोजन कराना चाहिए तथा उनकी चरण को मस्तक पर लगाना चाहिए। ऐसा करने से सौभाग्य की वृध्दि होती है।

Gopashtami

Gopashtami is dedicated to worship of Cow and lord Krishna. Gopa means cow or a cowherd boy and Astami means 8th day. Gopastami is celebrated on eighth day Kartik Shukla Paksha. It is believed that Lord Krishna Himself worshiped cows on Gopashtami. On this day devotees bathe and clean the cows early in the morning. There is a tradition of decorating and worshipping cows along with their calf on this day. Cows are worshipped in the morning with incense, flowers, roli, jaggery, fragrance, clothes, rice and water followed by performing the aarti. Many people give gifts to the herders a well.



On the auspicious day of Gopashtami, the cows are worshipped in the cattle farms. All the members of the family take part in the puja and offer their prayers to the cows. The puja for Gopashtami is performed by the priest with proper rituals.

There is a tradition of worshipping cows on Gopastami festival according to the ancient scriptures. The cows are worshipped on the Kartik shukla paksha and decorated with flowers. The devotee should walk a mile after doing the parikrama. In the evening the cow returns home and is worshipped with panchopchar and returns home and worshipped. After that the soil beneath the cow’s feet is applied on the forehead and food items are offered to her. By doing all this devotee gets a prosperous and a happy life.

Why do we celebrate Gopashtami?

1. Krishna became ‘Gopala’

On Gopashtami lord Krishna became a gopa and got qualified as cowherd. Initially Krishna’s name was ’Batsapal’, which means caretaker of the calves. When Krishna was ready to take care of mother cows, he became a qualified cowherd i.e. ‘Gopala’. Krishna grazed cows on his bare feet. He had great love towards cows.

As per the legend, Lord Krishna communicated his desire of herding the cows to his mother. As per his wish, Krishna’s mother went to saint Shandilya and asked him about the auspicious time to begin the work. The auspicious day as told by the saint, was Gopashtami. The innocent child worships and offers his prayers to the cows before commencing his new task.

On the auspicious festival of Gopashtami, people visit the cattle farms or the herders and offer their prayers to cows with diya, jaggery, flowers, gangajal, etc, Females worship Lord Krishna before cows and apply tilak on the forehead of the cows. Cows are fed green peas, jaggery etc. by the devotees.  Many religious people donate food and other items in the cattle farm.



2. Lord Krishna & Govardhan Parvat

On day day of Govardhan Puja Lord Krishna lifted Govardhan hill on his small finger in order to protect cows and citizens of vrindavan. He kept holding Mt. Govardhan on his little finger for seven days i.e. from Kartik shukla paksha pratipada to saptami. On the eight day, Indra dumped his ego and apologised Lord Krishna. The eight day is celebrated as Gopashtami. At the same time, the queen of the divine cows, Surabhi, rained milk on Krishna and consecrated him Govinda, meaning “lord of the cows.”



3. Birth of Cow

Some people consider Gopastami as the appearance day of divine mother in the form of cow. So, it is celebrated as birthday or as a special day of cows.  As a mark of respect, we worship cow and offer them fresh grass and food on this day.

Cows are considered to be the soul of Hindu culture. They are pure and revered and are worshipped in India just  like any other Hindu god and scriptures. It is believed that all the gods and goddess reside inside a cow, and thus, hold a special place in Hindu culture. According to the Hindu scriptures, cows are the mother of all species and every Hindu possess a respect for her. Cow is considered to be the owner of the divine qualities and is similar to goddess earth. Special pujas and saatsangs are organized in the evening inI temples around the country.

On Gopashtami, when the cows come back from grazing in the evening (go-dhuli samaya), they are to be greeted and once again given puja with the five principal articles. This will increase one’s good fortune and lead to the realization of all desires.

Gopashtami is celebrated joyfully in almost all parts of India to a greater or lesser extent. But it is a particularly special event in goshalas, as giving in charity to them is also recommended. The whole day should thus be devoted to contemplating the sacred nature of the bovine species!



Puja Rituals for Gopashtami


  1. Bathe, clean and decorate cows in the morning.
  2. Worship them along with their calf.
  3. Offer flowers, tilak, Jaggery (gudd), rice and water.
  4. Perform aarti and offer fresh grass.
  5. Take parikrama around cows.
  6. Apply ‘guadhuli’ (soil beneath the cow’s feet) on your forehead. It is said that by doing so one gets prosperous and a happy life.
  7. If you are unable to worship Cow. You can also donate food and other items in the cattle farms

      

Chant this mantra while worshiping Cow.
     
      लक्ष्मीर्या लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता। 
      घृतं वहति यज्ञार्थ मम पापं व्यपोहतु।। 

Tuesday, October 24, 2017

Nagula Chavithi or Naga Chaturthi

Nagula Chavithi or Naga Chaturthi is an auspicious day to observe Naga Puja. Nagula Chavithi is observed on the fourth day (Chaturthi) after Deepavali Amavasya during Karthika masam. Nag Panchami and Nagasashti are observed after Naga Chaturthi. In some parts of Andhra Pradesh it is also celebrated in the month of Sravana masam. This day is dedicated to worshipping snakes praying for the welfare of the family and to ward off the malefic effects due to the afflicted position of Rahu and Ketu.



Nagula Chavithi, a festival to worship Nag Devatas (Serpent Gods), is mainly a women festival. Nagula Chavithi is observed by married women for their well being of their children. During the Chavithi festival, women keep fast and observe Naga Puja. Devotees offer milk and dry fruits to Sarpa Devata at the Valmeekam or Putta (snake pits). On Nag Chaturthi day, Ashtanag (eight hooded cobra) is worshipped.

Nagula Chavithi in Kartika masam is a major festival in Andhra Pradesh and some parts of Karnataka. The rituals and puja procedures are different from place to place. Some people place Naga devatha idol at home and perform puja. But in some places, devotees go to 'Putta' (Snake pit) and offer naivedyam and perform other pujas there

The popular legend associated with Nagula Chavithi in Telugu Hindu culture suggests that on the day Lord Shiva drank the poison Halahala or Kalkuta to save the universe during the famous incident of Samudra Manthan.

Pujas and prayers are held in Naga temples across the state.

Nowadays, Nagula Chavithi day is noted for the practice of offering milk and eggs to the snakes, especially cobras near snake pits. Snake charmers also bring cobras to villages and towns which are fed with milk by devotees.

Worship of Nagas is a constant reminder to humans to live in harmony with Nature. And the ideal way to worship Nagas is by protecting the forests and grooves that are home of snakes and other animals.

Snakes are considered holy in the Hindu tradition. They are worshipped as a symbol of spiritual energy in humans. All gods in Hinduism are depicted to have snakes with them. For instance, we find Vishnu reclining in snake bed, Shiva wearing snakes as ornaments, Ganesha wearing snake as sacred thread, and Kartikeya having a snake with him. In Devi temples, snakes are considered as the very form of Mother Durga. It is an age old belief that snakes help in agriculture by devouring the rats and pests that destroy crops. On Nagula Chaviti, the central highlight is to do puja to the snakes.

The women of every household make a few special dishes that are simple and do not involve using the oven. The first one is Nuvvula Vanda (Telugu) or sesame seeds sweet. This is made by mixing equal portions of sesame seeds and jaggery and making balls. The second one is vada pappu (Telugu) make by soaking the yellow moong dal in water for an hour and draining the water. The third one is Chalimidi. To make this, rice is soaked in water for some time and drained. Then it is ground into fine powder and jaggery is mixed with it along with a little water. Then the mixture is made into balls.

NAGULA CHAVITI PUJA VIDHI

In the morning, prior to the beginning of Nagula Chavithi puja, recite this mantra as
many times as possible:

Anantham Vasukim Sesham Padmanabham Cha Kambalam
Shankhaphalam Dhartharashtram Thakshakam Kaliyam Thatha
Ethani Nava Namani Naganaam Cha Mahatmanam
Sayamkale Pathennityam Pratah Kale Viseshatha Thasmai Vishabhayam Naasthi
Sarvatra Vijayee Bhaveth

After chanting this mantra, perform Sankalpam for Vratha, Upavas and Puja. Offer bath to the Serpent God (Nagadevta idol) and offer milk to the God as Naivedya. It is performed either in Naga devta temple or at home. After Ksheerabhisheka perform Jalabhisheka (bath with water). Offer
Shodashopachar puja with gandha (chandan), flowers, dhupa, deepa, naivedya, etc.


Now, chant the below mantra..

Sarva Naagam Preeyatham May Ye Kechith Pruthwithale
Ye Cha Helimarichistha Yenarthe Divi Samsthitha
Ye Nadeeshu Mahanaaga Ye Saraswati Gaamina
Ye Cha Vaapee Thadaageshu Theshu Sarveshu Vai Namah


Now, chant Naga Gayatri Mantram for as many times as possible 

Om Nagakulaya Vidmahe Vishadantaya Dheemahi Thanno Sarpa
Prachodayath


Now chant Sarpa Suktam.Then, read Nagula Chavithi Vrat katha or the story associated with Nagula Chavithi vrat.

1. Usually the Nagula Chaviti puja is done in temples where snake god idols are installed and ant hills are present. Usually this is a community puja jointly done by many women in the region.
2. In the morning the women folk take bath, prepare the dishes mentioned and move to the temple carrying the puja materials.
3. In the temples, a holy bath is given to the snake god idols and decorated with turmeric paste, sandal paste and vermilion. Flowers and garlands are offered to the deities and then the ladies move to the ant hills where snakes are believed to live.
4. The puja is repeated to the ant hills and a little portion of the dishes made in the morning are offered in the snake hill. Women also tie threads around the snake hill and decorate it with turmeric paste, vermilion and flowers. Arati is performed and prayers are done.
5. A little soil from the ant hill is collected and brought home to be placed near the entrance door as a mark of inviting the blessings of the snake gods.
6. Many women fast for the whole day and conclude the fast only in the evening after sunset and lighting lamps in the house front and in the altar.

It is believed that any Puja offered to snakes would reach to the serpent Gods. Hence people worship live snakes on the day as representative of serpents Gods who are revered and worshipped in Hinduism. Although there are several serpent Gods, following twelve are worshipped during Nagula Chavithi Puja -

Ananta
Vasuki
Shesha
Padma
Kambala
Karkotaka
Ashvatara
Dhritarashtra
Shankhapala
Kaliya
Takshaka
Pingala

These mantras are chanted for Nagula Chavithi as many times as possible throughout the day.
“Om Naga Kulaya Vidmahe Visha Dhantaya Dhimahi Tanno Sarpa Prachodayaat”
“Sarpapasarpa bhadranthe dooram gachcha mahavisha
Janamejaya yaganthe asthika vachanam smara
Ananthaya namasthubhyam sahasra shirasthe namaha
Namosthu padmanabhaya nagaanaam pathaye namaha
Anantho vasukim sheshah takshakah kaliyasthadah”

Nagula Chavithi is observed to show gratitude towards serpents. According to astrology, the planet Rahu represents a snake. The effects of Rahu result from the curse of a snake which can be rectified by worshiping snakes. Childless couples or those who already have children should perform Nagula Chavithi.

Thursday, October 12, 2017

Radha Kund and Shyama Kund

Radha Kund and Shyama Kund


Radha & Shyama Kund, Govardhan;
       Radha Kund and Shyama Kund, the two most spiritually surcharged Kunds (ponds), are located in a village called Arita about 3 miles north-east of Govardhan and fourteen miles from Mathura and Vrindavan.
       Radha Kund is the holiest place in all of Brahma’s creation. Radha Kund and Shyama Kund represent the eyes of Govardhan, which is in the shape of a peacock. This is the place where Radha and Krishna performed their most intimate and most sweet pastimes.
Krishna is killing a demon Arishtasura;
       One of the demons by the name Arishta, sent by the evil Kamsa to kill Krishna and Balarama, assumed the form of a bull and attacked Krishna. But he was easily overpowered and was instead killed by the Lord. This pastime took place in the afternoon when Krishna and His cowherd friends were herding the cattle.

       That night when Krishna went to meet His beloved Srimati Radharani, She jokingly forbade Him to touch Her and said, “Today, You have killed a bull, which belongs to the cow family. You have therefore committed the sin of killing a cow. Please do not touch My pure body.”
       Krishna smilingly replied that the bull was in fact a very dangerous demon and so by killing it He incurred no sin. But Radharani refused to accept this explanation and Her sakhis also supported Her.

       Krishna then asked how He could atone for the sin. In reply, Radharani said that the only way to atone the sin is to take bath in every holy place in the world. To fulfill Her desire Krishna created a large kunda by striking the ground with His heel. He then summoned all the holy places from all over the planet. When they appeared Krishna asked their personified forms to enter in to the Kunda in the form of water, which they promptly did. Within moments the kunda was filled with the most pure and sacred water. Krishna then bathed in it and approached Radharani, having atoned for the sin of killing a bull. He bragged about how His kunda was the most beautiful and how great He was in creating such a kunda. Hearing Her beloved boast in such a manner, Radharani along with Her sakhis decided to create an even more exquisite kunda adjacent to the one created by Krishna, by digging the place with their bracelets. When not a drop of water manifested in the kunda, Krishna said that they could take water from His kunda. Radharani refused and She along with Her sakhis decided to fill Her kunda by carrying water from Manasi-ganga in clay water pots. Sri Krishna signalled to the holy places that they should insist that Radharani and Her sakhis fill up their kunda with water from His. The holy places personified prayed to Radharani and Her sakhis and pleased them by glorifying them in many ways. She then mercifully gave them the permission to enter Her kunda, and immediately a current of water flowed from Krishna-kunda to Radha-kunda.
Shyama Kund, Govardhan;

       After Radha-kunda was filled with holy waters of the entire planet, Lord Krishna told Srimati Radharani that Her kund would be the most famous place in the world and that He would daily bathe in Her kunda. Lord Krishna declared that Radha-kunda is as dear to Him as Srimati Radharani Herself and anyone who bathes in it will get Her love. Radha kunda is the personified love of Srimati Radharani.
Radha Kund, Govardhan;
        These two kundas manifested at midnight on krishnashtami (the eighth day of the dark moon) in the month of Kartika; therefore, thousands of people bathe here at midnight on this day, which is known as Bahulashtami.

       Since these are the places where Radha and Krishna performed their most intimate and sweet pastimes, Srila Prabhupada, told that we should not approach Radha Kund in a familiar or light manner. Otherwise it would not help us to advance in our spiritual life. We should approach these pastimes with great reverence and should not treat them as something ordinary or talk about it lightly. We should consider these pastimes to be way above our heads and should aspire to be the servants of the servants of those who have realized the glories of Sri Radha Kunda.


The Mentality of Arishtasura


       Arishtasura represents one of the very serious obstacles on the path of devotional service: the propensity to consider oneself very religious, and to follow the principles of religion invented by other conditioned souls—while criticizing the path of devotional service. This is a very serious obstacle, and it’s everywhere. In the name of religion, in this age of Kali, there is so much concoction: what is religion is taken to be irreligion and what is irreligion is taken to be religion. There are people presenting so many different ideas about God, about who is God and how to attain God.
       Some people say that there is one path and it doesn’t matter what God you worship, it doesn’t matter what deity you worship, because ultimately, I am God, you are God, and everything is God; you just somehow purify yourself by concentrating yourself, your attention on some kind of divinity, and you will become Bhagavan. Hundreds and millions of people in this world believe in this. And then when we tell them Krishna is God, that Bhakti is the real process, they criticize—what is this sectarianism? What is this close mindedness? What is all this austerities and renunciation you are talking about? You just worship any God, any demigod, it doesn’t matter. Bhakti Siddhanta Saraswati Thakur declared war against these misconceptions.
      But we sometimes tend to become affected by all this propaganda. Then it becomes very, very great obstacle in devotional service.

       We should therefore understand what Krishna says in the Bhagavad Gita:
       Men of small intelligence worship the demigods, and their fruits are limited and temporary. Those who worship the demigods go to the planets of the demigods, but My devotees ultimately reach My supreme planet. (BG 7.23)
        So we should not be mislaid by false propaganda.
       And even, often times, people who declare Krishna to be God, have so many different conceptions without knowing what actually the truth is.

       Therefore Krishna says:

 Evam parampara praptam imam rajarsayo viduh
Sa kaleneha mahata yogo nastah parantapa (B.G. – 4.2)
       If we take the truth from a proper disciplic succession of great acharyas, we then understand what is what. 

       So many people are dragged away from the process of devotional service, due to this type of association—represented by Arishtasura.

      Kamsa worshipped Shiva, considered himself a very, very religious man, and he sent Arishtasura to promote hisreligiosity. What was the purpose? To kill Krishna. Similarly, all these Arishtasuras who are preaching principles that are contrary to pure devotional service, they are coming to attack Krishna in our hearts. Therefore, we must defend ourselves by maintaining proper association, by understanding philosophically what our siddhanta is, and ultimately by crying out to Krishna for help by chanting his holy names, “Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare.

Jihva Mandir


Jihva Mandir, Govardhan;
       Raghunath Das Goswami wanted to dig a well so that the Vrajvasis would not wash their clothes in Radha-Kunda. While digging the well the workers hit upon a rock and blood began to come out of that rock. Raghunath Das Goswami immediately stopped the digging. Later on, Lord Krishna appeared in his dream and told him that He was non-different from Govardhan and the rock that was hit upon was the tongue of Giriraj. Krishna then asked Radhunath Das Goswami to take out that sila and worship it on the altar.

       Even to this day the Govardhan sila representing the tongue of Giriraj is worshipped with Tulasi leaves and water from the Radha-kunda as instructed by Lord Krishna to Das Goswami.

Excavation of Radha Kunda and Shyam Kunda


Lord Krishna in the mood of Srimati Radharani in Govardhan;

       Generally it is noted that after the great spiritual personalities wind up their pastimes in this material world, the places associated with them are lost to the world in due course of time. The Lord then arranges these places to re-manifest to the world through His pure loving devotees, in order to reveal to the world the glories of these devotees.

       After Krishna disappeared from this world, Radha Kunda and Shyama Kunda were also lost to the world.

       The pastime of how Radha-kunda and Shyama-kunda were revealed to the world through one of the most intimate and pure devotees of Lord Chaitanya, Srila Raghunath Das Goswami.

       Radha Kunda and Shyama Kunda were lost to the world for a long time. Then in 1550 Lord Chaitanya came to Vrindavan on the day of Kartika Poornima and stayed in Vrindavan for two months.


Place where Lord Chaitania found Radha and Shyama Kunds;
       Lord Caitanya was searching for Aritagram, because according to the scriptures this is the place where the famous Radha-Kunda and Shyama Kund were present. So one day Lord Caitanya sat under a Tamala tree and while meditating upon Radha-Kunda and Shyama- Kunda, He saw two bodies of water in a nearby paddy field. Lord Caitanya who is none other then Radha and Krishna, could immediately identify them as Radha Kunda & Shyama Kunda. He very happily took the waters of the kundas and applied tilaka on His body using the clay from Radha-kunda.
 Lord very happily took the waters of the kundas
and applied tilaka on His body using the clay from Radha-kunda;
        Raghunath Das Goswami witnessed Lord Chaitanya’s pastimes at Puri, and after the departure of Lord Caitanya and His associates he came to Vrindavan. Sanatana Goswami instructed him to stay near Radha-Kunda where he daily spoke for 3 hours on Gaur Lila. He performed his bhajan at Radha-Kunda. One time Raghunath Das Goswami, understanding the mood of Lord Chaitanya, was thinking that Lord Caitanya wanted the holy places of Vrindavan to be excavated for the benefit of all people. But at that time Radha-Kunda & Shyama-Kunda were just two small ponds. Raghunath Das Goswami thought of excavating them but he didn’t want to entangle himself in money etc. Radha & Krishna understood his heart. At the same time a wealthy merchant was on his way to Badrikasrama with the intention of building a beautiful temple for Lord Badrinath. Badrinath appeared in the dream of that merchant and instructed him to excavate Radha-Kunda under the guidance of Raghunath Das Goswami instead. In this way Radha-Kunda & Shyama-Kunda were excavated.
       While excavating Shyama-Kunda, Yudhisthira Maharaj appeared in a dream to Raghunath Das Goswami and told him that he, with his four brothers, were standing there in the form of trees and meditating on the pastimes of Radha & Krishna. So in order to show respect to the Pandavas the trees were left as it is and therefore Shyama-Kunda is not square shaped.

The Highest Position of Sri Radha Kunda


Radha Kund;

       Shri Chaitanya Mahaprabhu, who is none other than the Supreme Lord Sri Krishna in the compassionate mood of Srimati Radharani, invested within the heart of Rupa Goswami his own divine love and commissioned him to come to Vrindavan and reveal Vrindavan to the world. In Shri Updeshamruta(text 9) Srila Rupa Goswami has written about all holy places in this creation. It is said that Mathura Puri is most sacred because here the Supreme Lord Krishna appeared. Of all the places in Mathura Puri Vrindavan is more sacred because here Krishna performs the Rasa Lila or dances of Vraja. Of all places in forests of Vrindavan, Govardhan is most sacred because such very, very confidential pleasing pastimes are eternally being enacted here. Of all places of Govardhan, the supreme-most of all places in all the spiritual and material worlds is Sri Radha kunda, because it is at Radha-kunda that the highest divine loving relations of Sri Radha and Sri Krishna are enacted. For devotees what is highest is whatever gives Radha and Krishna most pleasure. Because They enjoy each other’s company with highest degree of ecstatic love at Radha kunda, it is considered holiest of all holy places in all of creation. 

Couple seeking the blessings of Radha Rani to conceive soon stand in the water tank and perform puja. They offer, to the holy waters, white raw pumpkin (petha/Kushmanda) after decorating it with a red cloth. Also couples who get benefitted by Radha Kund snan, visit to take a holy dip again as a token of thank you for fulfilling their wish.