बुद्ध पूर्णिमा वैशाख मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है. इसे वैशाख पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन को भगवान गौतम बुद्ध की जयंती और उनके निर्वाण दिवस दोनों के ही तौर पर मनाया जाता है. इसी दिन भगवान बुद्ध को बौध यानी ज्ञान प्राप्त हुआ था. यह बुद्ध अनुयायियों का बड़ा त्योहार है. बौध धर्म को मानने वाले भगवान बुद्ध के उपदेशों का पालन करते हैं. भगवान बुद्ध का पहला उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है. यह पहला उपदेश भगवान बुद्ध ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पांच भिक्षुओं को दिया था.
मान्यताएं-
मान्यताएं-
- माना जाता है कि वैशाख की पूर्णिमा को ही भगवान विष्णु का ने अपने नौवें अवतार के रूप में जन्म लिया. यह नौवां अवतार था भगवान बुद्ध का. इसी दिन उनका निर्वाण हुआ.
- इसी दिन को सत्य विनायक पूर्णिमा के तौर पर भी मनाया जाता है. मान्यता है कि भगवान कृष्ण के बचपन के दोस्त सुदामा गरीबी के दिनों में उनसे मिलने पहुंचे. इसी दौरान जब दोनों दोस्त साथ बैठे थे, तो कृष्ण ने सुदामा को सत्यविनायक व्रत का विधान बताया था. सुदामा ने इस व्रत को विधिवत किया और उनकी गरीबी नष्ट हो गई.
- इस दिन धर्मराज की पूजा करने की भी मान्यता है. कहते हैं कि सत्यविनायक व्रत से धर्मराज खुश होते हैं. माना जाता है कि धर्मराज मृत्यु के देवता हैं इसलिए उनके प्रसन्न होने से अकाल मौत का ड़र कम हो जाता है.
हिंदुओं में हर महीने की पूर्णिमा विष्णु भगवान को समर्पित होती है. इस दिन तीर्थ स्थलों में गंगा स्नान का लाभदायक और पाप नाशक माना जाता है. लेकिन वैशाख पूर्णिमा का अपना-अलग ही महत्व है. इसका कारण यह बताया जाता है कि इस माह होने वाली पूर्णिमा को सूर्य अपनी उच्च राशि मेष में होता है. इतना ही नहीं चांद भी अपनी उच्च राशि तुला में होता है. कहते हैं कि बुद्ध पूर्णिमा के दिन लिया स्नान कई जन्मों के पापों का नाश करता है.
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर कुशीनगर के महापरिनिर्वाण मंदिर में एक महीने तक चलने वाले विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश विदेश के लाखों बौद्ध अनुयायी पहुंचते हैं। आज के दिन बोधगया में जिस पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी इस वृक्ष की जड़ों में दूध और सुगंधित पानी का सिंचन किया जाता है। बुद्ध पूर्णिमा न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों में भी पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। श्रीलंका, कंबोडिया, वियतनाम, चीन, नेपाल थाईलैंड, मलयेशिया, म्यांमार, इंडोनेशिया जैसे देश शामिल हैं। श्रीलंका में इस दिन को 'वेसाक' के नाम से जाना जाता है जो निश्चित रूप से वैशाख का ही अपभ्रंश है।
बुद्ध पूर्णिमा पर बौद्ध मतावलंबी बौद्ध विहारों और मठों में इकट्ठा होकर एक साथ उपासना करते हैं। दीप जलाते हैं। रंगीन पताकाओं से सजावट की जाती है और बुद्ध की शिक्षाओं का अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं। बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं के माध्यम से क्रांति का सूत्रपात किया था। उन्होंने तत्कालीन समाज में मौजूद घोर आडंबर, पशु और नरबलि, वैदिक कर्मकाण्डों का विरोध किया। बुद्ध ने मानव कल्याण का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों के बीच से स्वर्ग-नर्क के भय को दूर करने की कोशिश की। वह महान पथ प्रदर्शक थे। बुद्ध ने चार आर्यसत्य बताए जिनके जरिए मनुष्य अपने जीवन को सफलतापूर्वक जी सकता है।
1- दुख है
2- दुख का कारण है
3- दुख का निवारण है
4- दुख निवारण का उपाय है
दुख निवारण के उपाय के तौर बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग का सूत्र दिया:
1- यम 2- नियम 3- आसन 4- प्राणायाम 5- प्रत्याहार 6- ध्यान 7- धारणा 8- समाधि
बौद्ध धर्मावलंबियों के अतिरिक्त हिंदू धर्म में भी यह तिथि काफी मायने रखती है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक पूर्णिमा विष्णु को समर्पित तिथि मानी जाती है और भगवद्पुराण के अनुसार बुद्ध भगवान विष्णु के नौवें अवतार थे। हिंदू धर्म में वैशाख पूर्णिमा को 'सत्य विनायक पूर्णिमा' के तौर पर भी मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि श्रीकृष्ण ने उनसे मिलने पहुंचे उनके मित्र सुदामा को सत्य विनायक व्रत करने की सलाह दी थी, जिसके प्रभाव से उनकी दरिद्रता समाप्त हो सकी। इसके अलावा इस दिन 'धर्मराज' की पूजा का भी विधान है। धर्मराज की इस दिन पूजा-उपासना से साधक को अकाल मृत्यु का भय नहीं सताता है।
महात्मा बुद्ध का प्रथम धर्म-उपदेश:
भगवान बुद्ध का प्रथम उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से प्रसिद्ध है जो उन्होंने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पांच भिक्षुओं को दिया था। भेदभाव रहित होकर हर वर्ग के लोगों ने महात्मा बुद्ध की शरण ली व उनके उपदेशों का अनुसरण किया। कुछ ही दिनों में पूरे भारत में ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणम् गच्छामि’ का जयघोष गूंजने लगा। मगध और उसके पड़ोसी राजा भी बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए। महात्मा बुद्ध ने पहली बार सारनाथ में प्रवचन दिया था। उन्होंने कहा कि केवल मांस खाने वाला ही अपवित्र नहीं होता, क्रोध, व्यभिचार, छल, कपट, ईर्ष्या और दूसरों की निंदा भी इंसान को अपवित्र बनाती है। मन की शुद्धता के लिए पवित्र जीवन बिताना जरूरी है।
निर्वाण और धर्म प्रचार : बौद्ध धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक है। बौद्ध धर्म की सभी शिक्षाएं आत्मा की शुद्धता से संबंधित हैं। महात्मा बुद्ध की शिक्षा के चार मौलिक सिद्धांत है : संसार दुखों का घर है, दुख का कारण वासनाएं हैं, वासनाओं को मारने से दुख दूर होते हैं, वासनाओं को मारने के लिए मानव को अष्टमार्ग अपनाना चाहिए।
अष्टमार्ग यानी, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध संकल्प, शुद्ध वार्तालाप, शुद्ध कर्म, शुद्ध आचरण, शुद्ध प्रयत्न, शुद्ध स्मृति और शुद्ध समाधि।
भगवान बुद्ध का धर्म प्रचार 40 वर्षों तक चलता रहा। अंत में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में पावापुरी नामक स्थान पर 80 वर्ष की अवस्था में ई.पू. 483 में वैशाख की पूर्णिमा के दिन ही महानिर्वाण प्राप्त हुआ।
विशेष पूजा :
बुद्ध जयंती के दिन पूरे संसार के बौद्ध मठों में भगवान बुद्ध के उपदेशों और प्रार्थनाओं की गूंज सुनाई देती है। भगवान बुद्ध से संबंधित सभी बौद्ध स्थलों पर बौद्ध भिक्षु इकट्ठे होकर उनकी शिक्षाओं को याद करते हैं। इस दिन श्रद्धालु भगवान बुद्ध की प्रतिमा की फूलों, फलों व अगरबत्ती द्वारा पूजा-अर्चना करते हैं व प्रसाद चढ़ाकर वितरित भी किया जाता है।
बुद्ध के ही बिहार स्थित बोधगया नामक स्थान हिन्दू व बौद्ध धर्मावलंबियों के पवित्र तीर्थ स्थान हैं। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ सत्य की खोज के लिए सात वर्षों तक वन में भटकते रहे। यहाँ उन्होंने कठोर तप किया और अंततः वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे उन्हें बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई। तभी से यह दिन बुद्ध पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है। बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध की महापरिनिर्वाणस्थली कुशीनगर में स्थित महापरिनिर्वाण विहार पर एक माह का मेला लगता है। यद्यपि यह तीर्थ गौतम बुद्ध से संबंधित है, लेकिन आस-पास के क्षेत्र में हिंदू धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा है और यहां के विहारों में पूजा-अर्चना करने वे बड़ी श्रद्धा के साथ आते हैं। इस विहार का महत्व बुद्ध के महापरिनिर्वाण से है। इस मंदिर का स्थापत्य अजंता की गुफाओं से प्रेरित है। इस विहार में भगवान बुद्ध की लेटी हुई (भू-स्पर्श मुद्रा) ६.१ मीटर लंबी मूर्ति है। जो लाल बलुई मिट्टी की बनी है। यह विहार उसी स्थान पर बनाया गया है, जहां से यह मूर्ति निकाली गयी थी। विहार के पूर्व हिस्से में एक स्तूप है। यहां पर भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था। यह मूर्ति भी अजंता में बनी भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण मूर्ति की प्रतिकृति है।
श्रीलंका व अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को 'वेसाक' उत्सव के रूप में मनाते हैं जो 'वैशाख' शब्द का अपभ्रंश है। इस दिन बौद्ध अनुयायी घरों में दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाते हैं। विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया जाता है। विहारों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाते हैं और दीपक जलाकर पूजा करते हैं। बोधिवृक्ष की भी पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं को हार व रंगीन पताकाओं से सजाते हैं। वृक्ष के आसपास दीपक जलाकर इसकी जड़ों में दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है।। इस पूर्णिमा के दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है। पिंजरों से पक्षियॊं को मुक्त करते हैं व गरीबों को भोजन व वस्त्र दान किए जाते हैं। दिल्ली स्थित बुद्ध संग्रहालय में इस दिन बुद्ध की अस्थियों को बाहर प्रदर्शित किया जाता है, जिससे कि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ आकर प्रार्थना कर सकें।
राजकुमार सिद्धार्थ कैसे बनें महात्मा गौतम बुद्ध
बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के यहां लुम्बिनी वन में हुआ था। महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार कहा जाता है। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था और इनके जन्म पर जब एक तपस्वी ने यह भविष्यवाणी कि यह बालक छोटी आयु में ही संन्यासी हो जाएगा तो उसके चिंतित पिता शुद्धोधन ने सिद्धार्थ की महल से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी। 16 वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया जिनसे इनका एक पुत्र राहुल पैदा हुआ।
बचपन से ही सिद्धार्थ गंभीर स्वभाव के होने के कारण अपना अधिकतर समय अकेले में चिंतन करके व्यतीत करते थे। एक दिन जब वह भ्रमण पर निकले तो उन्होंने एक वृद्ध को देखा जिसकी कमर झुकी हुई थी और वह लगातार खांसता हुआ लाठी के सहारे चला जा रहा था। थोड़ी आगे एक मरीज को कष्ट से कराहते देख उनका मन बेचैन हो उठा। उसके बाद उन्होंने एक मृतक की अर्थी देखी, जिसके पीछे उसके परिजन विलाप करते जा रहे थे।
ये सभी दृश्य देख उनका मन क्षोभ और वितृष्णा से भर उठा, तभी उन्होंने एक संन्यासी को देखा जो संसार के सभी बंधनों से मुक्त भ्रमण कर रहा था। इन सभी दृश्यों ने सिद्धार्थ को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने संन्यासी बनने का निश्चय कर लिया। तब 19 वर्ष की आयु में एक रात सिद्धार्थ गृह त्याग कर इस क्षणिक संसार से विदा लेकर सत्य की खोज में निकल पड़े।
ज्ञान की प्राप्ति : गृहत्याग के बाद उन्होंने सात दिन ‘अनुपीय’ नामक ग्राम में बिताए। फिर गुरु की खोज में वह मगध की राजधानी पहुंचे जहां कुछ दिनों तक वह ‘आलार कालाम’ नामक तपस्वी के पास रहे। इसके बाद वह एक आचार्य के साथ भी रहे लेकिन उन्हें कहीं संतोष नहीं मिला। अंत में ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयं ही तपस्या शुरू कर दी। कठोर तप के कारण उनकी काया जर्जर हो गई थी लेकिन उन्हें अभी तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई थी। घूमते-घूमते वह एक दिन गया में उरुवेला के निकट निरंजना (फल्गु) नदी के तट पर पहुंचे और वहां एक पीपल के वृक्ष के नीचे स्थिर भाव में बैठ कर समाधिस्थ हो गए।
इसे बौद्ध साहित्य में ‘संबोधि काल’ कहा गया है। छ: वर्षों तक समाधिस्थ रहने के बाद जब उनकी आंखें खुलीं और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, वह वैशाख पूर्णिमा का दिन था और वह महात्मा गौतम बुद्ध कहलाए। उस स्थान को ‘बोध गया’ व पीपल का पेड़ बोधि वृक्ष कहा जाता है।
भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति (बुद्धत्व या संबोधी) और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। ऐसा किसी अन्य महापुरुष के साथ आज तक नही हुआ है। अपने मानवतावादी एवं विज्ञानवादी बौद्ध धम्म दर्शन से भगवान बुद्ध दुनिया के सबसे महान महापुरुष है। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में १८० करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है।