फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का ये गाना धर्म के असली मर्म को समझाता है। भगवान राम हमारी सभ्यता में मर्यादा के प्रतीक हैं। उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाता है। समाज में मर्यादा का क्या महत्व है भगवान राम का जीवन इसकी नज़ीर पेश करता है। राजा राम का जीवन आदर्श माना जाता है जिन्होंने नीति और धर्म को शासन की धुरी बनाया जहां प्रजा का कल्याण सबसे ऊपर था।
आज हम ऐसे समय में हैं जहां धर्म की आड़ में लोग अपने व्यवसाय, कुकृत्यों को भी जायज़ ठहराने की कोशिश करते हैं। राम का नाम लेकर किए जाने वाले हर उस काम की घोर निंदा की जानी चाहिए जो जुर्म के दायरे में आता है। लोग धर्म का नाम लेकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं और भगवान के बंदों की जान लेने से भी नहीं कतराते। जो इंसान को इंसान भी नहीं समझते वे धर्म को क्या जानेंगे? धर्म और इंसानियत का जज़्बा त्याग में है न कि ज़ोर-ज़बरदस्ती में।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि अगर राम का मन्दिर भारत में नहीं बनेगा तो फिर कहां बनेगा? मगर इस तर्क का तोड़ स्वयं प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ही अपनी संयुक्त अरब अमीरात की डेढ़ साल पहले की गई यात्रा में दे दिया था, जब उन्होंने वहां के सुल्तान से अबूधाबी में मन्दिर बनाने के लिए जमीन आवंटित करने का वादा लिया था। अतः मन्दिर किसी मुस्लिम देश में भी बन सकता है परन्तु अयोध्या के राम मन्दिर का सन्दर्भ पूरी तरह अलग है क्योंकि भारत के हिन्दुओं की आस्था है कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था और उसी स्थान पर हुआ था जहां पहले बाबरी मस्जिद थी जिसे मुगलकाल में बाबर बादशाह के शासन के दौरान मन्दिर से मस्जिद में परिवर्तित करके बनाया गया था।
अतः भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व में 1988 से आन्दोलन शुरू हुआ कि ‘मन्दिर वहीं बनाएंगे, जहां राम का जन्म हुआ था।’ श्री अडवानी ने अपनी बहुचर्चित ‘सोमनाथ से अयोध्या’ तक की रथ यात्रा निकालने से पहले देश की सांस्कृतिक विरासत को आगे चलाने वाली ‘राम लीलाओं’ के मंचों का प्रयोग करके राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के लिए जन-समर्थन जुटाने का व्यापक अभियान चलाया जिससे सांस्कृतिक पहचान धार्मिक पहचान में बदल गई। धर्म और संस्कृति में बहुत महीन अन्तर होता है जिसे श्री अडवानी ने मिटा दिया और इसके बाद उनकी रथ यात्रा निकली और अन्त में 6 दिसम्बर 1992 को पूरे सरकारी तन्त्र के पूरी तरह सावधान रहने के बावजूद बाबरी मस्जिद या कथित ढांचा गिरा दिया गया। पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों का कोहराम मच गया। इसकी वजह यही थी कि सांस्कृतिक पहचान को धार्मिक बना दिया गया था जिससे दो सम्प्रदाय एक-दूसरे के आमने–सामने आकर खड़े हो गए। यह संभवतः वैसा ही मामला था जिस तरह मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनवाया था। जिन्ना ने भी मुसलमानों के सांस्कृतिक पक्ष को समेटते हुए उनके लिए अलग मुल्क की मांग सिर्फ इसलिए की थी कि उनका धर्म अलग था जबकि मुसलमानों की संस्कृति भारत की मूल संस्कृति में पूरी तरह साझेदार थी और इस तरह साझेदार थी कि सबसे कट्टर समझे जाने वाले मुगल बादशाह औरंगजेब को भी अपने लालकिले के ठीक सामने चांदनी चौक में अपने मराठा सिपाही आपा गंगाधर की मांग पर भगवान ‘गौरी शंकर’ का मन्दिर बनाने की इजाजत देनी पड़ी थी।
यह भी हकीकत है कि अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर ने ही दिल्ली में रामलीला की शुरूआत कराई थी। जाहिर है कि मुगल साम्राज्य का पतन होने की वजह से विभिन्न रियासतों में हिन्दू राजाओं और मुस्लिम नवाबों की पुर-अख्तियार रियासतें काबिज थीं, बेशक 1857 के बाद ये सभी अंग्रेजों की हुक्मबरदार जैसी हो गई थीं। अयोध्या अवध के नवाब वाजिद अली शाह की रियासत का हिस्सा थी जिसकी राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी और उसका शाही निशान ‘धनुष-बाण व मछली’ था। यह धनुष-बाण भगवान राम का ही प्रतीक चिन्ह था। अवध की अन्तिम बेगम हजरत महल के साथ 1857 के अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में महाराजा बाल किशन, राजा जय लाल, राणा माधोबख्श, राजा दृग बिजय सिंह, राजा जय लाल सिंह जैसे हिन्दू रियासतों के कर्ताधर्ता भी थे। खुद बेगम के नेपाल के महाराजा से सम्बन्ध बहुत मधुर थे जिसकी वजह से उन्होंने अपनी सल्तनत छिन जाने के बाद नेपाल जाना चाहा था। काठमांडौ में ही बेगम की कब्र भी है। इसके बावजूद उस दौरान किसी हिन्दू राजा या रियाया ने अयोध्या में राम मन्दिर की मांग नहीं की? जाहिर है कि तब 19वीं सदी में लोगों ने सांस्कृतिक मुद्दे को धार्मिक मुद्दा बनाना उचित नहीं समझा मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अयोध्या में श्रीराम मन्दिर नहीं बनना चाहिए। यह बनना चाहिए मगर केवल सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद किन्तु उत्तर प्रदेश के होमगार्ड के महानिदेशक किसी शुक्ला साहेब ने जिस तरह एक गोष्ठी में जाकर अपने पद पर रहते हुए राम मन्दिर बनाने की शपथ ली है उससे यह देश अचानक 1947 से भी पीछे चला जाएगा क्योंकि देश के पहले गृहमन्त्री सरदार पटेल ने भारत के आजाद होने के बाद हमारी पुलिस व प्रशासनिक सेवाओं का जो ढांचा खड़ा किया था उसमें किसी भी पुलिस अधिकारी का धर्म केवल संविधान का पालन करना है।
वह हिन्दू या मुसलमान में से कुछ भी हो सकता है मगर उसका ईमान किसी नागरिक को केवल इंसान मानने का है। उसका काम न तो मन्दिर बनाना है और न मस्जिद बनाना, उसका काम केवल भारत बनाना है। सरदार पटेल ने भी जब सोमनाथ मन्दिर का पुनरुद्धार कराया था तो एक ट्रस्ट स्थापित करके ही उसे सरकार से पूरी तरह अलग रखते हुए कराया था जबकि उस पर किसी प्रकार का विवाद नहीं था। भारत कोई पाकिस्तान नहीं है कि यहां के पुलिस अफसर अपने निजी मजहब का सरेआम मुजाहिरा करते फिरें। से पुलिस अफसर ने राम के नाम पर धब्बा लगाने का काम ही किया है और पूरे पुलिस तन्त्र का सिर शर्म से नीचा किया है मगर क्या किया जाए उत्तर प्रदेश में पिछले तीस साल से चल रही सियासत ने पूरे कुएं में इस तरह भांग डाली है कि यहां की पुलिस के अफसर राजनीतिक दल के प्रति अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपनी वर्दी को सरेआम शर्मसार करते हैं और संविधान को ताक पर रखकर अपनी नौकरियां करने के लिए मजबूर किए जाते हैं। क्या सूबा है उत्तर प्रदेश कि यहां पुलिस अफसर कभी ‘राधा रानी’ का वेष भर लेता है तो कभी राम मन्दिर बनाने की कसम खाने लगता है। हम राम मन्दिर बनायें मगर राम के आदर्शों का पालन करते हुए, राम तो गुरुनानक देव जी महाराज और सन्त कबीरदास के लिए भी ईश्वर रूप थे मगर से निराकार रूप में जिसका किसी मूर्ति से कोई सरोकार नहीं था। राम के सर्वत्र व्यापी स्वरूप का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है जिसे कबीरदास को सन्त रामानंद ने समझाया था-
हुए बिरखत बनारस रैन्दा रामानन्द गुसांई
अमृत वेल्ले उठके जान्दा गंगा न्हावन ताँईं
अग्गे ते ही जाइके लम्बा पया कबीर खथाँईं
पैरी टुंग उटा लेया बोलो ‘राम’ सिख समझाई
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