Tuesday, May 30, 2017

मिथुन राशि में सूर्य का गोचर

आगामी 15 जून 2017 को सूर्य, वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करने जा रहा है, निश्कित तौर पर यह मिथुन के साथ-साथ अन्य राशियों के जातकों पर भी अपना प्रभाव डालेगा। प्रभाव क्या और कैसा होगा..... चलिए ये जानते हैं।



मेष राशि 

सूर्य मेष राशि के तीसरे भाव में जाएगा, जिसकी वजह से आपके निर्णय मजबूत होंगे और दृढ़ निश्चयी साबित होंगे। यह गोचर आपके स्वभाव में उग्रता ला सकता है और जहां आप कार्य करते हैं वहां आपकी छवि को नकारात्मक भी कर सकता है। प्रेम संबंध अच्छे रहेंगे। आपको श्रद्धा के साथ अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिए। 

वृषभ राशि 

सूर्य आपकी राशि के दूसरे ग्रह में रहेंगे। आपकी आमदनी बढ़ेगी और प्रॉपर्टी में भी मुनाफ होगा। अगर आप किसी से बहस करेंगे तो नुकसान आपका ही होगा, आपको अपनी सेहत का ध्यान रखना चाहिए। आप अपनी कोई प्रॉपर्टी किराए पर दे सकते हैं, आपको लाभ होगा। आपको कन्याओं की सेवा करनी चाहिए। 

मिथुन राशि
 
सूर्य आपकी राशि में ही गोचर करने जा रहा है और पहले भाव में रहेगा। इस दौरान आपका स्वभाव आक्रामक रहेंगे और ये आपके प्रेम संबंधों में रुकावट लाएगा। विवाहित हैं तो पति-पत्नी के साथ झगड़ा हो सकता है। जीवनसाथी के ऊपर हावी होने की कोशिश में आपके संबंध बिगड़ सकते हैं। आपको प्रत्येक रविवार गुड़ खाना चाहिए। 

कर्क राशि 

सूर्य आपकी राशि के बारहवें भाव में जाएगा, आपके विदेश जाने के भी योग बन रहे हैं। आप अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करेंगे, अदालती मामलों में सफलता मिलेगी। शत्रुओं पर आप विजय प्राप्त करेंगे। पैसों के अधिक व्यय से परेशान रहेंगे, आपको अपनी सेहत का ध्यान रखना होगा। अपने जीवन साथी की सेहत का ध्यान रखें। आपको भगवान शिव की अराधना करनी चाहिए। 

सिंह राशि 

आपकी राशि के बारहवें भाव में सूर्य प्रवेश करने जा रहा है। आपको इस गोचर से बड़ा लाभ प्राप्त होगा। दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच आपकी छवि बहुत अच्छी हो जाएगी। प्रभावी लोगों के साथ आपके संबंध अच्छे होंगे और किसी सरकारी योजना का भी लाभ मिल सकता है। आपको माथे पर केसर का तिलक लगाना चाहिए। 

कन्या राशि 

सूर्य आपकी राशि के दसवें भाव में प्रवेश कर रहा है, इस गोचर से ऑफिस में प्रमोशन हो सकता है। विदेश यात्रा से मुनाफा मिलेगा और प्रोफेशनल लाइफ भी अच्छी रहेगी। लेकिन घर का माहौल अशांत रह सकता है। माता-पिता की सेहत का ध्यान रखें, आपको कठिन परिश्रम की जरूरत पड़ सकती है। आपको सुबह 8 बजे से पहले सूर्य मंत्र का जाप करना चाहिए।

 तुला राशि  

सूर्य का गोचर आपकी राशि के चौथे भाव में है। आपकी आय बढ़ेगी और समाज में पिता का रुतबा समाज में ऊंचा होगा। गोचर के दौरान किसी लंबी दूरी की यात्रा कर सकते हैं। भाई-बहन के साथ विवाद हो सकता है। उच्च पदाधिकारियों से लाभ होगा और कॅरियर में उछाल देखने को मिल सकता है। आपको सूर्य देव को नियमित तौर पर जल चढ़ाना चाहिए। 

वृश्चिक राशि 

इस गोचर में सूर्य आपकी कुंडली के आठवें भाव में जाएगा। आपको अपनी सेहत का ध्यान रखना होगा। आपको मसालेदार भोजन नहीं करना चाहिए। शायद आपको कोई अनचाही यात्रा करनी पड़ सकती है, आर्थिक हानि भी संभव है। कॅरियर में उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकता है। आपको शिव जी की अराधना अवश्य करनी चाहिए।

धनु राशि 

सूर्य का गोचर आपकी राशि के सातवें भाव में होने जा रहा है। आपको अपने जीवनसाथी से कोई लाभ मिल सकता है। कड़वाहट भरे शब्दों का प्रयोग ना करें, इससे विवाहित जीवन में खलल पैदा होगा। प्रेम विवाह करना चाहते हैं तो ये समय उत्तम है। आपको तांबे के लोटे में जल और कुमकुम मिलाकर सूर्यदेव को अर्पित करना चाहिए।  

मकर राशि
 
सूर्य का गोचर आपकी राशि के छठे भाव में होगा। इस दौरान आप अपने विरोधियों पर हावी रहने वाले हैं। अगर आप उधार चुकाना चाहते हैं तो इस दौरान यह संभव है। आपको स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो सकती है। कोट-कचहरी के मामले आपके पक्ष में आएंगे। रविवार के दिन बैल को गेहूं और गुड़ खिलाएं। 

कुम्भ राशि 

सूर्य का गोचर आपकी राशि के पांचवें भाव में है, इस कारण आपके बच्चों की तबियत बिगड़ सकती है। आपके प्रेम संबंधों में दूरियां और तकरार दोनों आ सकते हैं। स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं आपको इस दौरान काफी परेशान कर सकती हैं। आपको रविवार के दिन तांबे की धातु से बने किसी बर्तन का दान करना चाहिए। 

मीन राशि

सूर्य आपकी राशि से चौथे भाव में गोचर करेगा। इस दौरान घर में लड़ाई-झगड़ा होने के संकेत हैं। यदि जीवन साथी कामकाजी है तो उनको गोचर का लाभ मिलेगा। आप अपने कॅरियर में अच्छे परिणाम प्राप्त करेंगे। आपको रविवार के दिन गेहूं का दान करना चाहिए। 

Wednesday, May 24, 2017

शनि जयंती पर क्या उपाय करें

शनि देव मनुष्य के किए गए कर्मों के आधार पर उसे दंड देते हैं, यही वजह है कि जब भी किसी जातक पर शनि की साढ़े साती आती है तब उसे शनि देव के कोप का भागी बनना पड़ता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि शनि देव सिर्फ दंड ही देते हैं, अगर किसी पर शनि की कृपा हो जाए तो वह व्यक्ति दुनिया की सारी खुशियां पा लेता है। विशेषकर तुला और वृष लग्न की कुंडलियों में अगर शनि लग्न में शुभ स्थिति में विराजमान हैं तो ऐसे व्यक्ति के लिए शनि की साढ़े साती राजयोग लेकर आती है। लेकिन ऐसा सौभाग्यशाली हजारों में से कोई एक ही होता है। शनि देव को प्रसन्न कर, उनके कोप को शांत करने के लिए बहुत से शास्त्रीय उपाय मौजूद हैं, हनुमत अराधना उनमें से एक है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या पर शनि जयंती मनाई जाती है। इस दिन शनि देव की अराधना करने और उन पर तेल चढ़ाने से मनुष्य के पाप कृत्यों में कमी आती है।



इस बार शनि अमावस्या 25 मई को है, इस दिन सूर्य, चंद्र और मंगल एक साथ वृशभ राशि में बैठेंगे। धनु राशि में शनि वैसे ही वक्री है। शनि के इस योग का आपकी राशि पर क्या असर है और आपको शनि जयंती पर क्या उपाय करने चाहिए, चलिए जानते हैं।

मेष राशि


इस राशि पर पहले से ही शनि की ढैय्या का प्रभाव है। 21 जून के बाद आपको शनि देव लाभ पहुंचाएंगे। किसी पर भरोसा ना करें और कोई भी जोखिम भरा निर्णय ना लें। आने वाला समय आपके लिए अच्छ रहेगा। शनि जयंती पर किसी गरीब व्यक्ति को तेल और नमक का दान करें।

वृषभ राशि

इस राशि के जातक 21 जून तक शनि की ढैय्या के चपेट में रहने वाले हैं। तब तक परेशानियां न्यूनतम रहने वाली हैं और काम आसानी से पूरे होते चले जाएंगे। जितने भी जरूरी कार्य हैं, उन्हें इस दौरान पूरा करने की कोशिश करें। शनि जयंती पर किसी गरीब को गुड़ और चने का दान दें।

मिथुन राशि

आपकी राशि पर शनि की दृष्टि है, लेकिन वक्री होने से आपको ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। शनि जयंती पर निर्धनों को पुराने कपड़े और अन्न का दान करें।

कर्क राशि

आपकी राशि के लिए शनि शुभ हैं, व्यवसाय में तरक्की होगी। नई योजनाएं सफल होने की संभावनाएं हैं। अगर विवादों में फंसे हैं, तो उनमें विजय मिलेगी। शनि जयंती पर गाय को हरी घास और कुत्ते को रोटी खिलाएं।

सिंह राशि

सिंह राशि पर राहु का गोचर पहले से ही चल रहा है, इस बीच शनि का प्रभाव होने से तनाव और बढ़ेगा। आपके कार्यों में देरी होगी और व्यापार में भी परेशानियां आंएगी। आय के साधन बाधित होंगे। आपको शनि जयंती के दिन पक्षियों को दाना डालना चाहिए और बुजुर्गों की सहायता करनी चाहिए।

कन्या राशि

 जोखिम उठाने की सोचें भी नहीं। शनि जयंती पर निर्धनों के बीच चावल का दान करें।

तुला राशि

शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव अक्टूबर के बाद समाप्त होगा। 21 जून के बाद शनि वापस अपना प्रभाव दिखाएंगे। तब तक शांति बनाए रखें और जोखिम भरे निर्णय ना लें। शनि जयंती पर खाने की चीजों दान करें। 

वृश्चिक राशि

21 जून के बाद शनि देव फिर से आपकी राशि पर प्रभाव दिखाने लगेंगे। हर काम सावधानी के साथ करें, ऐसा कोई निर्णय ना लें जो परेशानियां बढ़ा दे। निर्धन लोगों में अन्न का वितरण करें और पक्षियों के लिए पानी की व्यवस्था करें।

धनु राशि

21 जून के बाद शनि आपकी राशि से निकल जाएंगे लेकिन साढ़े साती का प्रभाव बना रहेगा। परिवार और दोस्तों का साथ और सहयोग निरंतर मिलता रहेगा। 26 अक्टूबर के बाद शनि फिर से इसी राशि में आ जाएंगे। शनि जयंती पर असहय बुजुर्गों की सेवा करें और अन्न का दान करें।

मकर राशि

अभी तो आपकी राशि की साढ़े साती चल रही है लेकिन 21 जून से लेकर 26 अक्टूबर तक आप साढ़े साती से मुक्त रहेंगे। शनि देव आपकी राशि के स्वामी हैं, इसलिए ज्यादा समस्याएं नहीं आएंगी। मुश्किलों का हल समय पर निकलेगा। शनि जयंती पर पशु-पक्षियों के लिए जल की व्यवस्था कीजिए।

कुंभ राशि

इस राशि के जातकों के लिए समय हर तरीके से शुभ है। नौकरी में तरक्की होगी और व्यवसाय में मुनाफा होगा। यात्राओं के परिणाम सुखद रहेंगे। गरीबों के बीच मिठाइयों का दान करें।

मीन राशि

ये राशि इस समय प्रबल रूप से मौजूद है। आप जो भी कार्य करेंगे उनमें सफलता प्राप्त होगी। समय उत्तम है, विवाह के लिए अच्छे प्रस्ताव प्राप्त होंगे। आय के अवसर मिलेंगे, जो मुनाफा लाएंगे। शनि जयंती पर निर्धन लोगों को फल और रस का दान करें। 

Tuesday, May 23, 2017

गणेश उपासना

हिंदू संस्कृति में भगवान गणेश का स्थान सर्वोपरी है। हर शुभ काम से पहले भगवान गणेश का आह्वान जरूरी है। प्रत्येक वर्ष गणेश चतुर्थी के दिन गणेश पूजा की जाती है। लेकिन इससे अलग भी प्रत्येक बुधवार को गणेश आराधना करना आपके लिए खुशियों के द्वार खोल देगा। गणेश स्तुति के लिए बुधवार का दिन विशेष माना गया है। इस दिन बुध ग्रह के लिए भी आप पूजा-अर्चना कर सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में बुध ग्रह अशुभ स्थिति में है तो बुधवार को पूजा करने से इस दोष का निवारण हो सकता है।

देवता भी अपने कार्यों को बिना किसी रुकावट के पूरा करने के लिए पहले गणेश उपासना करते हैं। शास्त्रों में भी भगवान गणेश की महत्ता का वर्णन किया गया है। बताया गया है कि एक बार भगवान शंकर त्रिपुरासुर का वध करने में असफल हो गए। असफलता पर महादेव ने विचार किया तो शिवजी को ज्ञात हुआ कि वे गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसके बाद शिवजी ने गणेश पूजन करके दोबारा त्रिपुरासुर पर प्रहार किया, तब उनका मनोरथ पूर्ण हुआ। सनातन एवं हिंदू शास्त्रों में गणेश जी को सभी दुखों और परेशानियों को हरने वाला देवता बताया गया है। गणेश भक्ति से शनि समेत सभी ग्रह दोष दूर हो जाते हैं। प्रत्येक बुधवार को गणेश उपासना करने से व्यक्ति का सुख-सौभाग्य बढ़ता है। साथ ही उसकी सभी रुकावट दूर होती हैं।



प्रात: काल स्नानआदि से निवृत्त होकर सबसे पहले गणेश प्रतिमा (यदि किसी धातु की हो तो) को मिट्टी और नींबू से अच्छे से साफ करके पूजा स्थल पर पूर्व या उत्तर दिशा की और मुख करके लाल रंग के आसान पर विराजमान करें। आप शुद्ध आसन पर भगवान के सामने अपना मुख करके बैठे, इसके बाद भगवान का ध्यान करते हुए पूजन सामग्री जैसे पुष्प, धूप, दीप, कपूर, रोली, मौली, लाल चंदन और मोदक आदि गणेश भगवान को समर्पित करें। शास्त्रों में बताया गया है कि भगवान गणेश के पूजन में तुलसी दल और तुलसी पत्र नहीं चढ़ाना चाहिए। उन्हें किसी शुद्ध स्थान से चुनी हुई दुर्वा (दूब घास) को धोकर ही चढ़ाना चाहिए। भगवान गणेश को मोदक (लड्डू) प्रिय हैं इसलिए उन्हें देशी घी से बने मोदक का प्रसाद चढ़ाना चाहिए। पूजा करते समय किसी प्रकार का क्रोध न करें। यह आपके और परिवार दोनों के लिए सही नहीं रहेगा।



सभी चीजों को अर्पित करने के बाद भगवान गणेश का स्मरण कर ‘ऊं गं गणपतये नम:’ मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए। इस मंत्र का अर्थ है कि मैं ऐसे प्रभु का स्मरण करता हूं जो मेरे सभी दु़खों को दूर करते हैं। बुधवार के दिन घर में सफेद रंग के गणपति की स्थापना करने से समस्त प्रकार की तंत्र शक्ति का नाश होता है। घर के किसी व्यक्ति पर ऊपरी हवा का असर भी नहीं होता। धन की समस्या दूर करने या रोजगार में सफलता के लिए बुधवार को श्री गणेश को घी और गुड़ का भोग लगाएं। थोड़ी देर बाद भोग लगाए हुए घी और गुड़ गाय को खिला दें। ये उपाय करने से धन संबंधी परेशानी दूर होती है। परिवार में कलह हो तो बुधवार के दिन दूब घास के गणेश जी की प्रतीकात्मक मूर्ति बनाएं। इसे घर में पूजा के स्थान में स्थापित करें और प्रतिदिन इसकी विधि-विधान से पूजा करें। घर का क्लेश धीरे-धीरे कम हो जाएगा। घर के मुख्य दरवाजे पर गणेशजी की प्रतिमा लगाएं। बिल्कुल ऐसी ही प्रतिमा घर के अंदर भी लगाएं। ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है। कोई भी नकारात्मक शक्ति घर में प्रवेश नहीं कर पाती।

Monday, May 22, 2017

मंगल ग्रह का मिथुन राशि प्रवेश

27 मई दोपहर 1 बजकर 53 मिनट पर मंगल ग्रह का राशि परिवर्तन होगा। इस बार यह ग्रह वृषभ राशि से निकलर मिथुन राशि प्रवेश करेगा और यहां एक महीने से भी अधिक के लिए बना रहेगा। इसके बाद 11 जुलाई 2017 को मंगल ग्रह का कर्क राशि में स्थानांतरण होगा। किंतु इस दौरान मिथुन राशि के साथ-साथ अन्य ग्यारह राशियों पर क्या प्रभाव होगा, हम आपको यहां राशि अनुसार बताने जा रहे हैं। नोट: यह ज्योतिष परिणाम आपकी चंद्र राशि यानि कि कुंडली की राशि पर आधारित हैं।


मेष राशि

मंगल ग्रह आपकी राशि के तीसरे भाव में गोचर करेगा, जो कि आपके लिए लाभकारी सिद्ध होगा। यह भाव आपके कॅरियर और आत्म विश्वास से जुड़ा है, परिणाम स्वरूप इस दौरान आपको दोनों पक्षों में सफलता हाथ लगेगी। इसके अलावा भाग्य भी आपका साथ देगा। किंतु माता-पिता की सेहत को लेकर थोड़ा सतर्क रहें।

वृषभ राशि

मंगल ग्रह का आपकी राशि के दूसरे भाव में गोचर होगा, जिसका सीधा अटैक आपके धन पर होगा। आपकी आमदनी में अधिक बदलाव नहीं आएगा किंतु आप जरूरत से अधिक धन खर्च करेंगे। इसके अलावा जीवनसाथी की सेहत को नजरअंदाज ना करें। मंगल के इस गोचर के दौरान यदि इस ग्रह को शांत करने के उपाय करेंगे तो नुकसान से बच सकते हैं आप।

मिथुन राशि


आप ही की राशि में मंगल ग्रह के आने से आपकी कुंडली के प्रथम भाव पर इसका असर देखने को मिलेगा। किंतु घबराने जैस कुछ भी नहीं है, यह गोचर आपके भाग्य को जगाएगा और नए अवसर दिलाएगा। लेकिन इस दौरान आपका क्रोध भी बढ़ेगा, जो कि मंगल ग्रह के मजबूत होने का सबसे बड़ा संकेत होता है।

कर्क राशि

मंगल ग्रह आपकी राशि के बारहवें भाव में गोचर करेगा, जिसके कारण आपकी सेहत को नुकसान हो सकता है। या तो अचानक बीमार बड़ सकते हैं या लंबे समय से चली आ रही बीमारी पहले से भी खतरनाक साबित हो सकती है। इसलिए गोचर के समीप आने से पहले ही आपको मंगल ग्रह को शांत करने के उपाय कर लेने चाहिए।

सिंह राशि

मंगल का आपकी राशि के ग्यारहवें भाव में गोचर होगा और यह ग्रहीय परिवर्तन आपके लिए शुभ होने वाला है। नए अवसर मिलेंगे, संभव है कि आपको ऑफिस से कोई अच्छी खबर सुनने को मिल जाए। इसके अलावा आपका आत्मविश्वास भी इस दौरान बढ़ता हुआ दिखाई देगा। किंतु मंगल की मजबूती आपको गुस्सा भी प्रदान करेगा, इसको काबू में रखना जरूरी होगा।

कन्या राशि

मंगल ग्रह का दसवें भाव में आना आपको लिए बहुत ज्यादा शुभ होने वाला है। आपके कॅरियर में अचानक उछाल आएगा, हो सकता है कि आपको प्रमोशन भी मिल जाए। लेकिन अगर आपका खुद का बिजनेस है तो इस दौरान नए क्लाइंट मिल सकते हैं जो आपको बड़े फायदे का सौदा दे जाएं। किंतु इस दौरान मंगल की मजबूती आपको गुस्सा भी प्रदान करेगा, इसको काबू में रखना जरूरी होगा।

तुला राशि

मंगल ग्रह आपकी राशि से नौवें भाव में जाएगा। इस दौरान आपकी आय में वृद्धि हो सकती है और आप किसी लंबी दूरी की यात्रा कर सकते हैं। अगर शादीशुदा हैं तो जीवनसाथी का खूब प्यार और सपोर्ट मिलेगा। आपको भाई-बहन और माता की सेहत का ख्याल रखना होगा।

वृश्चिक राशि

आपकी राशि में इस बार मंगल आठवें भाव में आ रहा है, जिसके प्रभाव से आपको कोई शारीरिक पीड़ा हो सकती है। यह गोचर आपको अप्रत्याशित लाभ भी दे सकता है, लेकिन वहीं कुछ कानूनी मसलों में भी फंस सकते हैं आप। यह गोचर आपके लिए मिलाजुला रहने वाला है। इसलिए हर फैसला सोच-समझकर ही लें।

धनु राशि

मंगल ग्रह का आपकी राशि के सप्तम भाव में गोचर होगा, जिसके सीधा असर आपके स्वभाव पर होगा। आपका रवैया हर समय आक्रामकता से पूर्ण होगा और साथ ही छोटी-छोटी बातों पर चिड़चिड़ापन एवं क्रोध भी देखने को मिल सकता है। इस गुस्से पर बहुत ज्यादा कंट्रोल करने की जरूरत होगी।

मकर राशि

मंगल आपकी राशि से छठे भाव में जाएगा। क़ानूनी मसलों में आपको सफलता मिलने की संभावना है। मंगल इस दौरान आपको पूरा सपोर्ट देगा, जिसके चलते आपका स्वभाव भी बदलेगा। मंगल का क्रोध और आक्रामकता वाला तत्व आपमें देखने को मिलेगा। वहीं दूसरी ओर बच्चों को गोचर का लाभ मिलेगा, परंतु वे स्वभाव से ज़िद्दी हो सकते हैं।

कुम्भ राशि

मंगल आपकी राशि से पांचवें भाव में जाएगा। यह गोचर आपके लिए मिलाजुला होगा। एक ओर नौकरी में प्रमोशन या परिवर्तन जैसी परिस्थिति बनेगी लेकिन दूसरी ओर आपके खर्चे बहुत ज्यादा बढ़ने वाले हैं।

मीन राशि

मंगल ग्रह का इस दौरान आपकी राशि के तीसरे भाव में गोचर होगा। इसका असर आपकी माता जी की सेहत पर होगा। उनकी सेहत में थोड़ी गिरावट देखने को मिल सकती है। उनके साथ आपका वैचारिक मतभेद भी संभव है। घरेलू जीवन से आप थोड़े असंतुष्ट दिख सकते हैं। बितना ही नहीं, आपके शादीशुदा जीवन में भी शांति कम हो सकती है। 

Wednesday, May 17, 2017

रुद्राक्ष

पौराणिक मान्यताएं हैं कि कि शिव के नेत्रों से रुद्राक्ष का उद्भव हुआ और यह हमारी हर तरह की समस्या को हरने की क्षमता रखता है। कहते हैं रुद्राक्ष जितना छोटा हो, यह उतना ही ज्यादा प्रभावशाली होता है। सफलता, धन-संपत्ति, मान-सम्मान दिलाने में सहायक होता है रुद्राक्ष, लेकिन हर चाहत के लिए अलग-अलग रुद्राक्ष को धारण किया जाता है। वैसे, रुद्राक्ष संबंधी कुछ नियम भी हैं, जैसे- रुद्राक्ष की जिस माला से आप जाप करते हैं उसे धारण नहीं किया जाना चाहिए। रुद्राक्ष को किसी शुभ मुहूर्त में ही धारण करना चाहिए। इसे अंगूठी में नहीं जड़ाना चाहिए। कहते हैं, जो पूरे नियमों का ध्यान रख श्रद्धापूर्वक रुद्राक्ष को धारण करता है, उनकी सभी कष्ट दूर होते हैं और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कहा जाता है कि जिन घरों में रुद्राक्ष की पूजा होती है, वहां मां लक्ष्मी का वास होता है। यह भगवान शंकर की प्रिय चीज मानी जाती है। आइए जानें, कौन से फायदे के लिए कितने मुख वाले रुद्राक्ष को धारण करना चाहिए ।

एक मुखी रुद्राक्ष
इस रुद्राक्ष को धारण करने से शिव तत्व की प्राप्ति होती है। रुद्राक्षों में एक मुखी रुद्राक्ष का विशेष महत्व है। असली एक मुखी रुद्राक्ष बहुत दुर्लभ है। इसका मूल्य विशेषतः अत्यधिक होता है। यह अभय लक्ष्मी दिलाता है। इसके धारण करने पर सूर्य जनित दोषों का निवारण होता है। नेत्र संबंधी रोग, सिर दर्द, हृदय का दौरा, पेट तथा हड्डी संबंधित रोगों के निवारण हेतु इसको धारण करना चाहिए। यह यश और शक्ति प्रदान करता है। इसे धारण करने से आध्यात्मिक उन्नति, एकाग्रता, सांसारिक, शारीरिक, मानसिक तथा दैविक कष्टों से छुटकारा, मनोबल में वृद्धि होती है। कर्क, सिंह और मेष राशि वाले इसे माला रूप में धारण अवश्य करें।
एक मुखी रुद्राक्ष को धारण करने का मंत्र: ऊँ एं हे औं ऐं ऊँ। इस मंत्र का जाप 108 बार (एक माला) करना चाहिए तथा इसको सोमवार के दिन धारण करें।
दो मुखी रुद्राक्ष
दो मुखी रुद्राक्ष को शिव शक्ति का स्वरूप माना जाता है। यह चंद्रमा के कारण उत्पन्न प्रतिकूलता के लिए धारण किया जाता है। हृदय, फेफड़ों, मस्तिष्क, गुर्दों तथा नेत्र रोगों में इसे धारण करने पर लाभ पहुंचता है। यह ध्यान लगाने में सहायक है। इसे धारण करने से सौहार्द्र लक्ष्मी का वास रहता है। इससे भगवान अर्द्धनारीश्वर प्रसन्न होते हैं। उसकी ऊर्जा से सांसारिक बाधाएं तथा दाम्पत्य जीवन सुखी रहता है दूर होती हैं। इसे स्त्रियांे के लिए उपयोगी माना गया है। संतान जन्म, गर्भ रक्षा तथा मिर्गी रोग के लिए उपयोगी माना गया है।
धनु व कन्या राशि वाले तथा कर्क, वृश्चिक और मीन लग्न वालों के लिए इसे धारण करना लाभप्रद होता है। दो मुखी रुद्राक्ष धारण का मंत्र: ऊँ ह्रीं क्षौं श्रीं ऊँ।
तीन मुखी रुद्राक्ष
तीन मुखी रुद्राक्ष को अग्नि का रूप कहा गया है। मंगल इसका अधिपति ग्रह है। मंगल ग्रह निवारण हेतु इसे धारण किया जाता है की प्रतिकूलता के। यह मूंगे से भी अधिक प्रभावशाली है। मंगल को लाल रक्त कण, गुर्दा, ग्रीवा, जननेन्द्रियों का कारक ग्रह माना गया है। अतः तीन मुखी रुद्राक्ष को ब्लडप्रेशर, चेचक, बवासीर, रक्ताल्पता, हैजा, मासिक धर्म संबंधित रोगों के निवारण हेतु धारण करना चाहिए। इसके धारण करने से श्री, तेज एवं आत्मबल मिलता है। यह सेहत व उच्च शिक्षा के लिए शुभ फल देने वाला है। इसे धारण करने से दरिद्रता दूर होती है तथा पढ़ाई व व्यापार संबंधित प्रतिस्पर्धा में सफलता मिलती है। अग्नि स्वरूप होने के कारण इसे धारण करने से अग्नि देव प्रसन्न होते हैं, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा शरीर स्वस्थ रहता है। मेष, सिंह, धनु राशि वाले तथा मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु तथा मीन लग्न के जातकों को इसे अवश्य धारण करना चाहिए। इसे धारण करने से सर्वपाप नाश होते हैं।
तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र – ऊँ रं हैं ह्रीं औं। इस मंत्र को प्रतिदिन 108 बार यथावत पढ़ें।
चार मुखी रुद्राक्ष
चार मुखी रुद्राक्ष को ब्रह्म स्वरूप माना जाता है। बुध ग्रह की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए इसे धारण करना चाहिए। मानसिक रोग, पक्षाघात, पीत ज्वर, दमा तथा नासिका संबंधित रोगों के निदान हेतु इसे धारण करना चाहिए। चार मुखी रुद्राक्ष धारण करने से वाणी में मधुरता, आरोग्य तथा तेजस्विता की प्राप्ति होती है। इसमें पन्ना रत्न के समान गुण हैं। सेहत, ज्ञान, बुद्धि तथा खुशियों की प्राप्ति में सहायक है। इसे चारों वेदों का रूप माना गया है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्वर्ग फल देने वाला है। इसे धारण करने से सांसारिक दुःखों, शारीरिक, मानसिक, दैविक कष्टों तथा ग्रहों के कारण उत्पन्न बाधाओं से छुटकारा मिलता है। वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर व कुंभ लग्न के जातकों को इसे धारण करना चाहिए।
चार मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र – ऊँ बां क्रां तां हां ईं। सोमवार को यह मंत्र 108 बार जपकर धारण करें।
पांच मुखी रुद्राक्ष
इस रुद्राक्ष को रुद्र का स्वरूप कहा गया है। बृहस्पति ग्रह की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए इसको धारण करना चाहिए। इसे धारण करने से निर्धनता, दाम्पत्य सुख में कमी, जांघ व कान के रोग, मधुमेह जैसे रोगों का निवारण होता है। पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करने वालों को सुख, शांति व प्रसिद्धि प्राप्त होते हैं। इसमें पुखराज के समान गुण होते हैं। यह हृदय रोगियों के लिए उ Ÿ ाम है। इससे आत्मिक विश्वास, मनोबल तथा ईश्वर के प्रति आसक्ति बढ़ती है। मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु, मीन वाले जातक इसे धारण कर सकते हैं।
पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ऊँ ह्रां क्रां वां हां। सोमवार की सुबह मंत्र एक माला जप कर, इसे काले धागे में विधि पूर्वक धारण करना चाहिए।
छः मुखी रुद्राक्ष
छः मुखी रुद्राक्ष भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय का स्वरूप है। शुक्र ग्रह की प्रतिकूलता होने पर इसे अवश्य धारण करना चाहिए। नेत्र रोग, गुप्तेन्द्रियों, पुरुषार्थ, काम-वासना संबंधित व्याधियों में यह अनुकूल फल प्रदान करता है। इसके गुणों की तुलना हीरे से होती है। यह दाईं भुजा में धारण किया जाता है। इसे प्राण प्रतिष्ठित कर धारण करना चाहिए तथा धारण के समय ‘ऊँ नमः शिवाय’ मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए। इसे हर राशि के बच्चे, वृद्ध, स्त्री, पुरुष कोई भी धारण कर सकते हैं। गले में इसकी माला पहनना अति उ Ÿ ाम है। कार्तिकेय तथा गणेश का स्वरूप होने के कारण इसे धारण करने से ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसे धारण करने वाले पर माँ पार्वती की कृपा होती है।
आरोग्यता तथा दीर्घायु प्राप्ति के लिए वृष व तुला राशि तथा मिथुन, कन्या, मकर व कुंभ लग्न वाले जातक इसे धारण कर लाभ उठा सकते हैं। छः मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ ह्रीं क्लीं सौं ऐं’। इसे धारण करने के पश्चात् प्रतिदिन ‘ऊँ ह्रीं हु्रं नमः’ मंत्र का एक माला जप करें।
सात मुखी रुद्राक्ष
इस रुद्राक्ष के देवता सात माताएं व हनुमानजी हैं। यह शनि ग्रह द्वारा संचालित है। इसे धारण करने पर शनि जैसे ग्रह की प्रतिकूलता दूर होती है तथा नपुंसकता, वायु, स्नायु दुर्बलता, विकलांगता, हड्डी व मांस पेशियों का दर्द, पक्षाघात, सामाजिक चिंता, क्षय व मिर्गी आदि रोगों में यह लाभकारी है। इसे धारण करने से कालसर्प योग की शांति में सहायता मिलती है। यह नीलम से अधिक लाभकारी है तथा किसी भी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं देता है। इसे गले व दाईं भुजा में धारण करना चाहिए। इसे धारण करने वाले की दरिद्रता दूर होती है तथा यह आंतरिक ज्ञान व सम्मान में वृद्धि करता है। इसे धारण करने वाला उ Ÿ ारो Ÿ ार उ Ÿ ाम प्रगति पथ पर चलता है तथा कीर्तिवान होता है। मकर व कुंभ राशि वाले, इसे धारण कर लाभ ले सकते हैं।
सात मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ ह्रं क्रीं ह्रीं सौं’। इसे सोमवार के दिन काले धागे में धारण करें।
आठ मुखी रुद्राक्ष 
आठ मुखी रुद्राक्ष में कार्तिकेय, गणेश और गंगा का अधिवास माना जाता है। राहु ग्रह की प्रतिकूलता होने पर इसे धारण करना चाहिए। मोतियाविंद, फेफड़े के रोग, पैरों में कष्ट, चर्म रोग आदि रोगों तथा राहु की पीड़ा से यह छुटकारा दिलाने में सहायक है। इसकी तुलना गोमेद से की जाती है। आठ मुखी रुद्राक्ष अष्ट भुजा देवी का स्वरूप है। यह हर प्रकार के विघ्नों को दूर करता है। इसे धारण करने वाले को अरिष्ट से मुक्ति मिलती है। इसे सिद्ध कर धारण करने से पितृदोष दूर होता है। मकर और कुंभ राशि वालों के लिए यह अनुकूल है। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुंभ व मीन लग्न वाले इससे जीवन में सुख समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
आठ मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ ह्रां ग्रीं लं आं श्रीं’। सोमवार के दिन इसे खरीदकर काले धागे में धारण करें।
नौ मुखी रुद्राक्ष 
नौ मुखी रुद्राक्ष को नव-दुर्गा स्वरूप माना गया है। केतु ग्रह की प्रतिकूलता होने पर इसे धारण करना चाहिए। ज्वर, नेत्र, उदर, फोड़े, फुंसी आदि रोगों में इसे धारण करने से अनुकूल लाभ मिलता है। इसे धारण करने स केतु जनित दोष कम होते हैं। यह लहसुनिया से अधिक प्रभावकारी है। ऐश्वर्य, धन-धान्य, खुशहाली को प्रदान करता है। धर्म-कर्म, अध्यात्म में रुचि बढ़ाता है। मकर एवं कुंभ राशि वालों को इसे धारण करना चाहिए।
नौमुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ ह्रीं बं यं रं लं’। सोमवार को इसका पूजन कर काले धागे में धारण करना चाहिए।
दस मुखी रुद्राक्ष
दस मुखी रुद्राक्ष में भगवान विष्णु तथा दसमहाविद्या का निवास माना गया है। इसे धारण करने पर प्रत्येक ग्रह की प्रतिकूलता दूर होती है। यह एक शक्तिशाली रुद्राक्ष है तथा इसमें नवरत्न मुद्रिका के समान गुण पाये जाते हैं। यह सभी कामनाओं को पूर्ण करने में सक्षम है। जादू-टोने के प्रभाव से यह बचाव करता है। ‘ऊँ नमः शिवाय’ मंत्र का जप करने से पूर्व इसे प्राण-प्रतिष्ठित अवश्य कर लेना चाहिए। मानसिक शांति, भाग्योदय तथा स्वास्थ्य का यह अनमोल खजाना है। सर्वग्रह इसके प्रभाव से शांत रहते हैं। मकर तथा कुंभ राशि वाले जातकों को इसे प्राण-प्रतिषिठत कर धारण करना चाहिए।
दस मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं ऊँ’। काले धागे में सोमवार के दिन धारण करें।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष 
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष भगवान इंद्र का प्रतीक है। यह ग्यारह रुद्रों का प्रतीक है। इसे शिखा में बांधकर धारण करने से हजार अश्वमेध यज्ञ तथा ग्रहण में दान करने के बराबर फल प्राप्त होता है। इसे धारण करने से समस्त सुखों में वृद्धि होती है। यह विजय दिलाने वाला तथा आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करने वाला है। दीर्घायु व वैवाहिक जीवन में सुख-शांति प्रदान करता है। विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगों तथा विकारों में यह लाभकारी है तथा जिस स्त्री को संतान प्राप्ति नहीं होती है इसे विश्वास पूर्वक धारण करने से बंध्या स्त्री को भी सकती है संतान प्राप्त हो। इसे धारण करने से बल व तेज में वृद्धि होती है। मकर व कुंभ राशि के व्यक्ति इसे धारण कर जीवन-पर्यंत लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ रूं मूं औं’। विधि विधान से पूजन अर्चना कर काले धागे में सोमवार के दिन इसे धारण करना चाहिए।
बारह मुखी रुद्राक्ष
बारह मुखी रुद्राक्ष को विष्णु स्वरूप माना गया है। इसे धारण करने से सर्वपाप नाश होते हैं। इसे धारण करने से दोनों लोकों का सुख प्राप्त होता है तथा व्यक्ति भाग्यवान होता है। यह नेत्र ज्योति में वृद्धि करता है। यह बुद्धि तथा स्वास्थ्य प्रदान करता है। यह समृद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान दिलाता है। दरिद्रता का नाश होता है। बढ़ता है मनोबल। सांसारिक बाधाएं दूर होती हैं तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैेे तथा असीम तेज एवं बल की प्राप्ति होती है।
बारह मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ ह्रीं क्षौंत्र घुणंः श्रीं’। मंत्रोच्चारण के साथ प्रातः काले धागे में सोमवार को पूजन अर्चन कर इसे धारण करें।
तेरह मुखी रुद्राक्ष
यह रुद्राक्ष साक्षात् इंद्र का स्वरूप है। यह समस्त कामनाओं एवं सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। निः संतान को संतान तथा सभी कार्यों में सफलता मिलती है अतुल संपत्ति की प्राप्ति होती है तथा भाग्योदय होता है। यह समस्त शक्ति तथा ऋद्धि-सिद्धि का दाता है। यह कार्य सिद्धि प्रदायक तथा मंगलदायी है। सिंह राशि वालों के लिए यह उत्तम है।
तेरह मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ इं यां आप औं‘ं प्रातः काल स्नान कर आसन पर भगवान के समक्ष बैठकर विधि-विधान से पूजन कर काले धागे में सोमवार को इसे धारण करना चाहिए। ‘ऊँ ह्रीं नमः’। मंत्र का भी उच्चारण किया जा सकता है।
चैदह मुखी रुद्राक्ष
यह भगवान शंकर का सबसे प्रिय रुद्राक्ष है। यह हनुमान जी का स्वरूप है। धारण करने वाले को परमपद प्राप्त होता है। इसे धारण करने से शनि व मंगल दोष की शांति होती है। दैविक औषधि के रूप में यह शक्ति बनकर शरीर को स्वस्थ रखता है। सिंह राशि वाले इसको धारण करें, तो उत्तम रहेगा।
चैदह मुखी रुद्राक्ष धारण करने का मंत्र: ‘ऊँ औं हस्फ्रे खत्फैं हस्त्रौं हसत्फ्रैं’। सोमवार के दिन स्नानादि कर पूजन-अर्चन कर काले धागे में इसे धारण करें।
रुद्राक्ष की पहचान कैसे करें
रुद्राक्ष हमेशा उन्हीं लोगों से संबंधित रहा है, जिन्होंने इसे अपने पावन कर्तव्य के तौर पर अपनाया। परंपरागत तौर पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे सिर्फ रुद्राक्ष का ही काम करते रहे थे। हालांकि यह उनके रोजी रोटी का साधन भी रहा, लेकिन मूल रूप से यह उनके लिए परमार्थ का काम ही था। जैसे-जैसे रुद्राक्ष की मांग बढ़ने लगी, इसने व्यवसाय का रूप ले लिया। आज, भारत में एक और बीज मिलता है, जिसे भद्राक्ष कहते हैं और जो जहरीला होता है। भद्राक्ष का पेड़ उत्तर प्रदेश, बिहार और आसपास के क्षत्रों में बहुतायत में होता है। पहली नजर में यह बिलकुल रुद्राक्ष की तरह दिखता है।
देखकर आप दोनों में अंतर बता नहीं सकते। अगर आप संवेदनशील हैं, तो अपनी हथेलियों में लेने पर आपको दोनों में अंतर खुद पता चल जाएगा। चूंकि यह बीज जहरीला होता है, इसलिए इसे शरीर पर धारण नहीं करना चाहिए। इसके बावजूद बहुत सी जगहों पर इसे रुद्राक्ष बताकर बेचा जा रहा है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि जब भी आपको रुद्राक्ष लेना हो, आप इसे किसी भरोसेमंद जगह से ही लें।
जब आप रुद्राक्ष धारण करते हैं, तो यह आपके प्रभामंडल (औरा) की शुद्धि करता है। इस प्रभामंडल का रंग बिलकुल सफेद से लेकर बिलकुल काले और इन दोनों के बीच पाए जाने वाले अनगिनत रंगों में से कुछ भी हो सकता है। इसका यह मतलब कतई नहीं हुआ कि आज आपने रुद्राक्ष की माला पहनी और कल ही आपका प्रभामंडल सफेद दिखने लगे!
अगर आप अपने जीवन को शुद्ध करना चाहते हैं तो रुद्राक्ष उसमें मददगार हो सकता है। जब कोई इंसान अध्यात्म के मार्ग पर चलता है, तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए वह हर संभव उपाय अपनाने को आतुर रहता है। ऐसे में रुद्राक्ष निश्चित तौर पर एक बेहद मददगार जरिया साबित हो सकता है।
रुद्राक्ष माला एक कवच की तरह है
रुद्राक्ष नकारात्मक ऊर्जा के बचने के एक असरदार कवच की तरह काम करता है। कुछ लोग नकारात्मक शक्ति का इस्तेमाल करके दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं। यह अपने आप में एक अलग विज्ञान है। अथर्व वेद में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है कि कैसे ऊर्जा को अपने फायदे और दूसरों के अहित के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। अगर कोई इंसान इस विद्या में महारत हासिल कर ले, तो वह अपनी शक्ति के प्रयोग से दूसरों को किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा सकता है, यहां तक कि दूसरे की मृत्यु भी हो सकती है। इन सभी स्थितियों में रुद्राक्ष कवच की तरह कारगर हो सकता है।
आपको शायद ऐसा लगता हो कि कोई मुझे क्यों नुकसान पहुंचाएगा! लेकिन यह जरूरी नहीं कि जान बूझकर आपको ही लक्ष्य बनाया गया हो। मान लीजिए आपके पास बैठे व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जा रही हो, लेकिन वह आदमी उस ऊर्जा के प्रति ग्रहणशील नहीं है। ऐसे में, उसके बगल में बैठे होने की वहज से, उस शक्ति का नकारात्मक असर आप पर भी हो सकता है। यह ठीक वैसे ही है कि जैसे किसी सडक़ पर दो लोग एक-दूसरे पर गोली चला रहे हैं, लेकिन गोली गलती से आपको लग जाती है। भले ही गोली आप पर नहीं चलाई गई, फिर भी आप जख्मी हो सकते हैं, क्योंकि आप गलत वक्त पर गलत जगह पर मौजूद थे। हालांकि इस सबसे डरने की जरूरत नहीं है, लेकिन रुद्राक्ष ऐसी किसी भी परिस्थिति से आपकी रक्षा करता है।
गुरु एक ही रुद्राक्ष को अलग-अलग लोगों के लिए अलग-तरह से जागृत करता है। परिवार में रहने वाले लोगों के लिए रुद्राक्ष अलग तरह से प्रतिष्ठित किए जाते हैं। अगर आप ब्रह्मचारी या संन्यासी हैं, तो आपके रुद्राक्ष को दूसरे तरीके से ऊर्जित किया जाएगा। ऐसा रुद्राक्ष सांसारिक जीवन जी रहे लोगों को नहीं पहनना चाहिए।
रुद्राक्ष एक मुखी से लेकर 21-मुखी तक होते हैं, जिन्हें अलग-अलग प्रयोजन के लिए पहना जाता है। इसलिए बस किसी भी दुकान से कोई भी रुद्राक्ष खरीदकर पहन लेना उचित नहीं होता। हालांकि पंचमुखी रुद्राक्ष सबसे सुरक्षित विकल्प है जो हर किसी – स्त्री, पुरुष, बच्चे, हर किसी के लिए अच्छा माना जाता है। यह सेहत और सुख की दृष्टि से भी फायदेमंद हैं, जिससे रक्तचाप नीचे आता है और स्नायु तंत्र तनाव मुक्त और शांत होता है।
रुद्राक्ष के फायदे
रुद्राक्ष के संबंध में एक और बात महत्वपूर्ण है। खुले में या जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासी अनजाने सोत्र का पानी नहीं पीते, क्योंकि अक्सर किसी जहरीली गैस या और किसी वजह से वह पानी जहरीला भी हो सकता है। रुद्राक्ष की मदद से यह जाना जा सकता है कि वह पानी पीने लायक है या नहीं। रुद्राक्ष को पानी के ऊपर पकड़ कर रखने से अगर वह खुद-ब-खुद घड़ी की दिशा में घूमने लगे, तो इसका मतलब है कि वह पानी पीने लायक है। अगर पानी जहरीला या हानि पहुंचाने वाला होगा तो रुद्राक्ष घड़ी की दिशा से उलटा घूमेगा। इतिहास के एक खास दौर में, देश के उत्तरी क्षेत्र में, एक बेहद बचकानी होड़ चली। वैदिककाल में सिर्फ एक ही भगवान को पूजा जाता था – रुद्र यानी शिव को। समय के साथ-साथ वैष्णव भी आए। अब इन दोनों में द्वेष भाव इतना बढ़ा कि वैष्णव लोग शिव को पूजने वालों, खासकर संन्यासियों को अपने घर बुलाते और उन्हें जहरीला भोजन परोस देते थे। ऐसे में संन्यासियों ने खुद को बचाने का एक अनोखा तरीका अपनाया। काफी शिव भक्त आज भी इसी परंपरा का पालन करते हैं। अगर आप उन्हें भोजन देंगे, तो वे उस भोजन को आपके घर पर नहीं खाएंगे, बल्कि वे उसे किसी और जगह ले जाकर, पहले उसके ऊपर रुद्राक्ष रखकर यह जांचेंगे कि भोजन खाने लायक है या नहीं।

Tuesday, May 16, 2017

क्या सत्य में शिव ही बुद्ध थे?

गौतम बुद्ध विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे।शाक्य नरेश शुद्धोधन के घर जन्मे सिद्धार्थ विवाहोपरांत नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण और दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश में रात में राजपाट छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। क्या सत्य में शिव ही बुद्ध थे?



वस्तुतः भगवान शंकर को हिंदू प्रथम, मध्य और अंतिम, सब कुछ मानते हैं। शिव ही हैं हिंदू धर्म का मूल और वही हैं धर्म का अंतिम सत्य।शिव से ही हिंदू और जैन की नाथ और विदेहियों की परंपरा की शुरुआत मानी गई है। शिव से ही ध्यान परंपरा का प्रारंभ होता है। या हम ऐसा कहें कि 27 बुद्ध पुरुषों में पहले बुद्ध तो भगवान शिव थे और अंतिम सिद्धार्थ? या कि पहले भी शिव ही थे और अंतिम भी वही?

शिव और बौद्ध परम्परा में क्या समानताएं हैं? इस पर प्रोफेसर सीएस उपासक ने विस्तृत रिसर्च किया है । प्रोफेसर उपासक नवनालंदा महाविहार के निदेशक रह चुके हैं। 1957-1959 तक लंदन में रहकर उन्होंने ए.एल. बॉशम के निर्देशन में स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड स्टडीज से पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। प्रोफेसर उपासक के लगभग 12 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है। उनकी 'हिस्ट्री ऑफ बुद्धिज्म इन अफगानिस्तान' की खास चर्चा रही। उन्होंने खरोष्ठी लिपि पर भी ग्रंथ लिखा है। विश्व के लगभग सभी देशों का भ्रमण कर हजारों शोध पत्र लिख चुके हैं। प्रोफेसर उपासक सन्‌ 1947-1949 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता रह चुके हैं। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान 78 वर्षीय प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ही बुद्ध थे। उन्होंने इस संबंध में कुछ तर्क भी प्रस्तुत किए हैं -

पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इनमें बुद्ध के तीन नाम अति प्राचीन हैं।तीन बुद्ध तो तणंकर, शणंकर और मेघंकर थे। अन्य 24 बुद्धों के संबंध में अनेक विस्तृत चर्चा का उल्लेख मिलता है।24वें बुद्ध सिद्धार्थ गौतम का वर्णन सबसे ज्यादा मिलता है। मनुष्य दस गुणों से संपन्न होता है, जो अन्य जीवों में विद्यमान नहीं हैं। दान, शील, वीर्य, नैष्क्रम्य, अधिष्ठान, ध्यान, सत्य, मैत्री, समता भाव और प्रज्ञा। जो इन गुणों की पराकाष्ठा को पार कर लेता है, ऐसे व्यक्तित्व को शास्त्रीय शैली में 'बुद्ध' कहा जाता है। प्रत्येक मनुष्य में 'बुद्ध बीज' है, लेकिन जिन्होंने दस पारमिताओं को प्राप्त किया हो, वही 'बुद्धत्व' को प्राप्त कर सकता है।

प्रोफेसर उपासक के अनुसार शणंकर अर्थात शंकर भी बौद्ध परंपरा में एक 'बुद्ध' थे, जिन्होंने दसों पारमिताएं प्राप्त की थीं और शंकर सिद्धार्थ गौतम के अतिरिक्त ऐसे बुद्ध हैं, जिनका ज्ञान और प्रभाव आधुनिक भारत के लोगों में देखने को मिलता है। शंकर के जो अन्य नाम हैं, वे भी उनके 'बुद्ध' होने की ओर संकेत करते हैं। शंकर को मृत्युंजय महादेव कहा जाता है।अर्थात जिसने मृत्यु को 'जीतकर' 'अर्हत्व' प्राप्त कर लिया हो, इसलिए उन्हें जो हर-हर महादेव कहा जाता है, वह मूलतः अर्हत्व का ही द्योतक है। बौद्ध शास्त्रों में ऐसी परंपरा है कि 'मार विजय' होने पर ही संबोधि प्राप्त होती है।

सिद्धार्थ गौतम ने बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा को 'मार विजय' प्राप्त की थी और 'बुद्ध' कहलाए।इसी प्रकार शंकर को मारकण्डेय महादेव कहा जाता है। अर्थात जिसके जीवन में 'मारकाण्ड' संबद्ध है। शंकर को स्वयंभू नाथ (शम्भुनाथ) भी कहा जाता है।ऐसी शास्त्रीय मान्यता है कि बुद्ध किसी का शिष्यत्व ग्रहण न कर स्वयं बुद्ध होता है, इसी कारण उसे भी 'स्वयंभू' अर्थात स्वयं बुद्ध होने के शब्द से अलंकृत किया जाता है।जब कभी शंकर की बात की जाती है, तब लोग परंपरा से 'बम-बम बोल' का उच्चारण करते हैं। अर्थात 'बम-बम बोल' का तात्पर्य 'धम-धम बोल' से है। शंकर को परम ध्यानी कहा गया है। हिमालय में उन्होंने तपस्या की थी, उनकी शक्ति को 'पार्वती' कहा गया है। शंकर को तीन नेत्रधारी कहा गया है। तीसरा नेत्र उनका 'बोधिनेत्र' है, जिसके माध्यम से उन्होंने संसार की अनित्यता का साक्षात अनुभव किया। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म किया था। स्पष्टतः परम योगी में कामतृष्णा का नितान्त अभाव हो जाता है, यही उपरोक्त कथा को दर्शाता है। शंकर को 'त्रिशूलधारी' कहा जाता है। यह 'त्रिरत्न' अर्थात बुद्ध, धर्म-संघ का प्रतीक है, जिसे शंकर सदैव अपने साथ रखते हैं।

ऐसी मान्यता है कि शंकर की सवारी बैल है। स्पष्टतः यह इस बात की ओर इंगित करता है कि शंकर जैसे व्यक्तित्व में जो पाशविक प्रवृत्तियां थीं, उन पर उन्होंने पूर्णरूप से अधिकार प्राप्त कर लिया था।बैल पर सवारी का तात्पर्य यही है कि वह पूर्ण रूप से मनुष्य थे, जिसने दसों पारमिताओं को प्राप्त कर लिया था।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शंकर ने संसार के विष का पान कर लिया था, लेकिन वह कंठ तक ही रह गया। इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भी सांसारिक दुष्प्रवृत्तियां हैं, उन्हें शंकर ने कभी ग्रहण नहीं किया। वह परम शुद्ध थे। सबके लिए कल्याणकारी थे। शंकर के गले में सर्प लिपटा रहता है, किन्तु वह उनका अनिष्ट नहीं कर पाता। यहां सर्प भी संसार की दुष्प्रवृत्तियों का प्रतीक है, जिससे शंकर विचलित नहीं हुए। यह भी कहा जाता है कि शंकर नरमुण्ड की माला पहनते हैं। वास्तव में यह बुद्ध के अनित्यवाद का प्रतीक है। शंकर के विषय में ऐसी भी परिकल्पना है कि उनके सिर पर चंद्रमा विराजमान है तथा सिर से ही गंगा निकली होती है। यह शंकर के शांत और शीतल हृदय का प्रतीक है। यह भी उनके 'बुद्ध' होने का प्रमाण है।

काशी को 'शिव धाम' कहा गया है। संभवतः जिस प्रकार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने काशी आकर सारनाथ से अपने धर्म का प्रवर्तन किया, उसी प्रकार शंकर का भी 'धर्म चक्र प्रवर्तन' काशी से ही प्रारंभ हुआ हो, इसीलिए काशी को शंकर की नगरी कहा जाता है।शिव का प्रतीक लिंग के रूप में माना जाता है, जो संभवतः उनकी 'वीर्य' पारमिता का द्योतक है। इस पारमिता को शायद सबसे पहले उन्होंने प्राप्त किया हो। शंकर के साथ भूत-प्रेत भी रहते हैं। यह बताता है कि उनका धर्म प्रचार इतना व्यापक था कि अमानवीय तत्व भी उनसे प्रभावित हुए हों।प्रोफेसर उपासक का कहना है कि शंकर और बुद्ध पर नए सिरे से अध्ययन की जरूरत है। शताब्दियों से अनेक अवधारणाओं, विवेचनाओं तथा शैव मतान्तरों के अनेक दृष्टिकोण मिलते हैं। हमें पुनः इन तथ्यों को ध्यान में रखकर पुनरावलोकन करना होगा।    

Wednesday, May 10, 2017

Narada Jayanti

Narada Jayanti is the birth celebration of Devrishi Narada. Devrishi Narada is considered to be the divine messenger and informant among Gods. Narada Muni is considered to be founder and pioneer of communication. Narada Jayanti is observed on the pratipada tithi of the Krishna paksha of the Jyestha month according to the traditional Hindu calendar.



Significance and Legend:

Narad is the Manas Putra of Lord Brahma. As per Vishnu-Puran, he was the son of Sage Kashyapa. He is said to have incarnated in the Kali Yuga as poet saints Thyagaraja and Purandaradasa. Narada is featured in all the epics and Puranas leading souls to salvation. With a stringed instrument in one hand, he has appeared in all the three Yugas. Narada implies ‘Nara’ meaning mankind and ‘Da’ meaning given. On a lighter note, he is also said to be the ‘Initiator of quarrels’ between the Gods and demons though his action has deep spiritual significance with evil being punished.

It is said that Narada influenced Daksha’s sons to practice renunciation and avoid marriage. Angry Daksha cursed him to wander aimlessly as a vagabond. According to legends, Sage Vedavyasa divided the Vedas as Rig, Yajur, Sama and Atharvana. He also wrote the Puranas and the epic Mahabharata. But he was clueless whether his works were sufficient to benefit humanity. Narada approached him and divided his predicament. Narada explained that none of the writings described the glories of the Lord and in Kaliyuga, the path of devotion was the easiest and fastest way to liberation. He inspired Vyasa to compose the Bhagavad Purana. Another legend narrates that once Valmiki asked Narada about a human who is perfect in thought, word and deed, free of sin and the embodiment of all virtues. Narada told him about Lord Ram and his glories. Valmiki was overjoyed, and he composed the Ramayana. Sage Narada was an authority in astronomy, music and other arts. He has authored ‘Naradasmriti’ and ‘Naradashiksha’ which lays down the principles of phonetics and grammar. He is the author of the Narada Purana which contains beautiful stories. His famous work ‘Narada Bhakti Sutras’ contains eighty-four aphorisms on devotion and its aspects. He was an adviser and messenger to the Gods. He taught Yudhishthira the virtues of humility and the ideal way to lead a Dharmic life. He set up the background for the birth of the Dattatreya. He was a master of the Sankhya and Yoga systems of philosophy. He is also referred to as ‘Saktyavesa Avatara’ of the Lord who is empowered to perform miracles on behalf of the Lord.



Who is Narada?

Narada literally means one, who spreads the name of the God, as in Sanskrit,naraa is equivalent to Narayana which means wisdom and daa stands for daan or giver. Narada is a sage who could easily transverse through the 3 lokas, of Akash that is Heaven, Prithwi that is Earth and Patal that is Hell. He is also a musician who carries a khartal and a veena in his hands and always sings praises in the name of Narayana that is Lord Vishnu.  Narada has been described as a most wise but at the same time mischievous sage from the tales that have been told. In numerous Hindu scriptures, Narada has been described as a saktyavesa-avatara or a semi-manifestation or partial avatar of God. He is often believed to have been able to perform various miracles on behalf of Lord Vishnu. Narada is said to have appeared from the forehead of Lord Brahma, while in some other scriptures it is mentioned that he was the son of Sage Kashyapa.

Attributes that are associated with Narada

Narada was an extremely qualified musician. He was completely conversant with the Vedas, knew all about the 6 angas, which is Grammar, prosody, astrology, description of religious rites, pronunciation and astronomy. He is an expert in time cycles, nyaya or logic and possessed the knowledge of the entire universe. He was a master of judicial laws, the six sciences of treaty, war, maintenance of posts against enemies, strategies of ambush, reserves, military campaigns etc and also was a master of all branches of learning possible.

He was a precursor of the modern day journalists, and was an ever-wandering communications person. It is believed that it was Narada who invented the Veena, he carried one along with him which is known as the Mahathi; and was the chief of the Gandhara musicians.



In Mahabharata, it was the formula or the solution that Narada gave which sorted out the dilemma of Draupadi having 5 husbands.

Some of the hymns of the Rig Veda are accredited to Narada Muni, or sage. Narada Bhakti Sutra, Narada Purana, Narada Pancharatra and Naradiya Dharmashastra are some of the holy texts associated with Sage Narada

As mentioned earlier, Narada is an ardent devotee of Lord Vishnu, and as such Narayana is an embodiment of truth; thus when most of Narada’s untimely information causes panic, strife and dissent amongst all the three lokas, then it is believed that it is for the betterment and benefit of the universe.

Celebration of Narada Jayanti

The temples of Sage Narada are located in Chigateri and Korva in Karnataka. Narada Jayant is celebrated in the Hindu month of Visakha as the birth anniversary of Sage Narada. The devotees observe fasts on this day. Rituals and special prayers are conducted with recitation from the holy texts. Devotees visit temples to offer prayers. A feast is organised in temples. Feeding of Brahmans is conducted. Devotees should take a bath in holy water. An Idol or picture of Lord Vishnu is worshipped on this day, as Sage Narada was a great devotee of Lord Vishnu. The puja should be done with pure heart and mind. Offer Tulsi, flowers, incense stick, and lamp followed by aarti of Lord Vishnu.



Birth of Devarishi Narada

Narada himself once told the story of his birth. As per legend-

The great sage Vedavyasa divided the Vedas into four branches - Rig, Yajur, Sama and Atharvana. Vedavyasa felt that common people could not comprehend the Vedas, and therefore wrote the Puranas which explained the meaning of the Vedas. He also wrote theMahabharata; he brought out the essence of the Upanishads in a chapter called 'Bhagavad Gita' using very simple language.

The great sage was not satisfied even with such wonderful writings meant for the good of humanity. He was somehow convinced that there was yet one more work to be carried out by him for thebenefit of humanity. A worried Vedavyasa was once sitting on the banks of the river Saraswati. Narada came there.

Narada knew what was worrying the sage Vyasa. He said: "Great sage, you have done so much for the welfare of humanity. And yet you are not satisfied. It is because none of your writings thoroughly describes the glory of Lord Narayana. You have not adequately brought out the greatness of
devotion. In the coming Kaliyuga people will not live for as long a period as in the present era. For them it will be a tough task to acquire spiritual knowledge. The best way for them will be the Path of Bhakti or Devotion. You must write a book, which will describe the glory of the Lord and the
greatness of Bhakti. Only then will you find peace. The company of good men generates Bhakti. 0 sage Vyasa, words fail to describe the all-pervasive influence of good men and their devotion towards God. I was once a very ordinary man. But today I am revered as Saint Narada. I owe
this entirely to the company of great men; to the devotion I have towards God."



Sage Vyasa was dumb-founded. Is it ever possible that this universally respected 'Devarshi'was once upon a time an ordinary man? A baffled Vyasa
stared at Narada in wonder. Narada.could read his mind. So he explained: "0 Vyasa, I was once an angel. I was called Upabarhana. I was an expert in music and I was handsome to look at, too. Once Dakshabrahma decided to perform a sacrifice. He arranged a big function. I sang devotional songs on that occasion. But I was not concentrating; my attention was diverted towards the apsaras (heavenly damsels). Dakshabrahma was upset by my behavior. He turned towards me and cursed me, 'You lecherous gandharva! Let the devil take away your entire Knowledge and spiritual splendor.
You don't deserve to live in Heaven. May you be born as a little, despicable human being on earth!'

"I came to my senses only after I had heard the dreadful curse. I begged for his forgiveness. Daksha then said: 'do not lament, 0 Upabarhana. You will be blessed by the company of good men.' 0 Vyasa, it was owing to that curse that I was born to a slave woman."

"Later, my mother started working as a servant-maid in an ashram. I was a little boy then. The rainy season came. Some sannyasins came to the ashram and stayed there. They were learned men and great devotees of God. Every day they conducted prayer meetings in which they sang the glory of Lord Narayana. Their preaching changed my very behavior. I became increasingly attracted to their preaching as days passed. Gradually I
became more and more devoted to God. The sages began to like me. They would offer me fruit and speak to me with much warmth. I carried out devotedly whatever work they assigned to me."



"The rainy season came to an end. The sages prepared to leave for another place. I felt very sad. The kind sages understood my feelings and consoled me. 'Do not worry. Have trust in God and be always eager to realize Him. Do not while away your time on earth. This world is a creation of God and it finds its ultimate fulfillment in Him. Not a straw moves without the will of God. Keep repeating with whole-hearted devotion the mantra 'Om namo bhagavate vasudevaya'and you will be blessed.' Having uttered this benediction, the sages went away."

"The departure of the sages made me sad beyond words. I spent all my time thinking about God."

"Days passed. One day my mother died bitten by a snake. I placed all my trust in God and headed northwards. I had no particular destination. After
a great deal of wandering, I came to a beautiful uninhabited place. I took my bath and drank the water from a nearby pond. I felt comforted. Body and mind became light. I remembered the good words the holy men had preached in the ashram. I sat under a people tree contemplating on God."

"Many years passed by. I lived on the fruits and leaves of the forest. My mind was immersed in contemplation. As time passed, I realized that God is present everywhere and in all objects. One day I saw a brilliant flash of divine light. I saw that the Lord was standing before me. His magnificent form thrilled me. Everything else looked meaningless. I was over- whelmed. I began to wander everywhere. I longed to see that divine form again.
Then I heard a divine voice: 'you will not see me once again in this birth. I do not appear before people who have not rid themselves of desire and anger. As you have seen me once, your devotion for me will now become more steadfast, especially since you keep company with good men. In your next birth you will be one of my close attendants.'"



"I felt somewhat relieved after I heard that voice. I felt a surging spirit of renunciation. The world appeared to be pervaded by the Lord. There was no trace of ego in me. I remained loosely attached to that body for a while like a drop of water on a lotus-leaf. Once, while I was in deep meditation, I
felt as if I was touched by a divine light. Immediately I cast away my body. Then the deluge came. I along with all the living creatures became absorbed in the body of the Lord."

"Some time after the deluge, new creation began. Out of the navel of Lord Narayana came Brahma. He engaged himself in the work of creation, in accordance with the Lord's command. Then Brahma created Marichi, Atri and the other eight Prajeshwaras. I happened to be one of them. Vyasa, I became Narada thanks to the blessings of the Lord. I am wandering round the world singing the glory of the Lord accompanied by this Veena Mahati. It has since then been my aim to convert people into the Path of Devotion (Bhakti) and Piety. In the future Kaliyuga, the chanting of the Lord's name will bring greater reward than performance of sacrifices. The Path of Devotion is the easiest and best. The mind becomes steady, cleansed of passions like greed and anger. Knowledge can be attained only when the mind becomes pure. Of course you are aware of all these things. I therefore ask of you to compile a book setting out the greatness of Devotion (Bhakti) and the glory of God. I shall narrate to you the ideas of Vedanta, which Brahma has taught me briefly. Let this be the basis of your great work. That book will make people happy and will bring mental peace to you."



And then Narada communicated to Vyasa the secrets of Vedanta. Vyasa composed the Bhagavata deriving inspiration by Narada.

In The Hermitage Of Valmiki 

Narada had a part to play even in the composition of the Ramayana. Once sage Narada came to the hermitage of Valmiki.

He was received with warmth and the two hermits sat chatting with each other. Something had been worrying Valmiki for a long time. He wondered whether there was any man who tenaciously stuck to the path of righteousness even in the midst of the greatest odds; whether there was any man
who could be pointed out as an ideal to the whole world.

Narada traverses in all the three worlds. Valmiki thought that Narada might find an answer to his questions. He asked Narada: "0 great sage, you are all knowing. You have studied the Vedas. Can you tell me if there is any man in this world who is virtuous, pious, ever truthful and tenacious? Is there any one who wishes well or all living creatures and who are also a hero and a scholar? Such a man should be free from jealousy and be a man of
invincible valor. He should be the most handsome among mankind. If there be such a man, please let me know."



Narada beamed with a smile and replied: "0 yes. I understand you. You want to find out if there is a flawless perfect human being. It is no doubt difficult to come across such a man. But there is a man who has combined in himself all the virtues you have enumerated. He i6 Sri Rama the king of Ayodhya." Then Narada narrated the story of Sri Rama and went away.

Sage Valmiki was thrilled to listen to the story of Sri Rama. He decided that Sri Rama was truly the greatest living being. With the story of Sri Rama still fresh in his memory, Valmiki set out for the river Tamasa for his morning ablutions. Two
birds were seen playing about on the banks of the river. A hunter shot down the male bird. The female bird wailed sorrowfully for the loss of her male. Sage Valmiki was greatly moved by the misery of the stricken bird.

Unable to restrain his sorrow, Valmiki cursed the hunter for his shameful deed. But no sooner did he utter the curse than it was converted into the form of a shloka - a verse. The sage was amazed.



He returned to the hermitage after his ablutions. Meanwhile Lord Brahma himself arrived there. Valmiki was astonished. Early morning was Narada's surprise visit; later, the death of the bird, and his utterance of a shloka; lastly it was Brahma's arrival. Lord Brahma said: "0 sage, the shloka you have uttered is due to my inspiration. Your mind is now mature enough for writing poetry. Please write in poetic form the story of Sri Rama as narrated to you by Narada. Your poetry will be acclaimed all over the world as the 'Ramayana'. The first 'sarga' or canto of Ramayana written by Valmiki contains one hundred shlokas. These contain a concise account of the Ramayana narrated by Narada.

Lord Krishna and Narada

Once Lord Krishna worshipped Sage Narada in Mahi-sagara-sangam. There king Ugrasena asked Him: "O Lord of the world, Shri Krishna! Why is sage Narada exceedingly fond of you?"

Lord Krishna said: O King! I always eulogize Narada of divine vision by means of the hymn pronounced by Mahendra. Listen to it, O King:

'I bow down to that Narada who has been born from the lap of Brahma, who has no arrogance due to learning or good conduct, but whose learning and good conduct are well known. I bow down to that Narada who has none of these defects - absence of interest, anger, fickleness and fear. He is composed and free from (habitual) procrastination. I pay obeisance to that Narada who does not change his word (once uttered) either due to lust or to covetousness and who is converstant with the priciples and goal of spiritual endeavor, who is forbearing, powerful and straightforward, who has conquered his sense organs and who speaks the truth.



I bow down to that Narada who is full-grown and venerable in respect of splendor, fame, intellect, prudence, humility, birth, and penance, whose conduct and dress are pleasing and whose diet, behavior, eyes and utterances are good, who is tirelessly engaged in altruism, who has no sin, who is enthusiastically engaged in bringing good to others, who always abides by the duties enjoind in the Vedas, Smritis and Puranas and who is free from (i.e. is above) either pleasure or displeasure, who is uninterested in food stuffs and other things, who is learned, who is never idle, who is a Brahmana of vast learning and whose narratives are charming, who has never erred before in respect of wealth, anger, and love, and by whom these defects have been eliminated, who is devoid of the defect of infatuation and fascination, who has unwaverving devotion to God and Bhagawat Dharma, whose moral policies are supreme and who is of a reserved disposition, who is never contaminated by contacts, who is eloquent and who has no prolonged doubts, who never finds fault with any scriptural text, whose life is a personification of penance, who never spends his time without recollecting God and who always keeps his mind under control.

I salute that Narada who puts in great efforts, who exerts his intelligence, who is never satiated with concentration, and meditation and who never errs in his efforts, who does not become elated by the acquisition of wealth, who does not become dejected on account of non-acquisition, who is richly endowed with all good qualities, who is efficient, pure and unafraid, who knows the proper occasions and is conversant with good policies.'

"Everyday I recite this hymn of Narada, O King. Therefore, the excellent sage has great love for me. If any other person too remains pure and repeats this prayer everyday, he will attract great favour of the celestial sage."

Through this eulogy of the celestial sage Narada, the Lord presents the ideal virtues of devotees. Such is the glory of a devotee that he is eulogized by God Himself. One who remembers the virtues of the Lord's devotees, becomes dear to them and imbibes their virtues as well. Recollecting and talking about a devotee and his virtues purifies the heart and brings good to the world.

Naradji, who has the good of all living beings in his mind, helps those who are desirous of progressing on the path of God. It is impossible to assess how many and in what manner beings have been transported by him to the Lord's pious feet. He is ever engaged in guiding the devotees and inquisitive seekers and in the good of saintly souls who desire to attain liberation in life.


Kurma Avatar

In Hinduism, Kurma is the second Avatar of Vishnu, succeeding Matsya and preceding Varaha. Like Matsya, this incarnation also occurred in Satya Yuga. Purana scripture indicates that the sage Durvasa had given a garland to Indra, the king of Devtas. Indra placed the garland around his elephant, but the animal trampled it, insulting the sage. Durvasa then cursed the Devtas to lose their immortality, strength, and divine powers.


In the aftermath of a curse by Sage Durvasa, Devas and and their king, INDRA, had become inglorious and powerless. It was as though they had been abandoned by Gods. They remained engulfed in darkness.
Their eternal foes, ASURAS, were quick to seize the opportunity and conquer the emaciated Devas. Indra was dethroned and driven out along with his subjects. Feeling helpless and utterly humiliated, they went to BRAHMA, the Creator, and sought his help, explaining their predicament. Brahma took them to the abode of VISHNU, since it is the latter who preserves the order of the universe. Indra and Devas surrendered to VISHNU and prayed for their redemption.
Lord VISHNU told them that the only way out for them was to secure the NECTAR of IMMORTALITY: and for that, they would have to strive immensely and (a) cast all kinds of plants, herbs, grassed and creepers into the Ocean of Milk, and (b) churn the ocean using Mount MANDARA as a churn-staff and VASUKI, the king of the serpents, as the rope for turning it. But how to shift the Mount, was the big question. VISHNU suggested that they make peace with their cousins and enemies and enlist their cooperation and help, and achieve their purpose. At the same time HE cautioned them not to covet any of the things that come out of the ocean and not to get angry even if those things were forcibly taken posession of by the ASURAS. HE assured them, however, that he would see to it that the ASURAS did not enjoy any portion of the NECTAR, no matter how much they toiled.


While BRAHMA returned to his own abode, INDRA and the Devas made their journey to the court of Bali, king of the ASURAS. On seeing INDRA and the Devas approaching them, King Bali's followers were furious and about to attack and capture them. However, Bali counselled patience suggesting that they might after all be coming with a proposal which might benefit the Asuras as well. Accordingly, King Bali received Indra and the Devas with due honours. INDRA told the King why they had come to him and requested him to extend his help for the venture from which all of them could benefit.
Bali and his Chiefs agreed to the proposal. Asuras and Devas made peace between themselves. Indra and Bali rallied their forces and began the task of lifting Mount Mandara. Uprooting the mount, they set out carrying it to the seashore. Even before they had carried it halfway, the forces found themselves unable to carry it any longer; and soon the mount came crashing on them. Large numbers of Devas and Asuras lay dead under it. Indra was heartbroken. While he was still thinking of appealing to Lord Vishnu, God appeared on the spot on his Vahana - Garuda - and by His mere glance revived the dead; and placing Mount Mandara on Garuda's back, He flew to the seashore, where the Devas and Asuras too followed. After the mount was safely brought down, Lord Vishnu asked Garuda to withdraw from the scene, lest VASUKI should keep himself away for fear of his natural enemy ( Garuda ). When he saw that Garuda was no longer there, VASUKI, arrived on the scene obeying the summons of VISHNU. The Lord assured the Serpent King that he too would get a share of the Nectar and that the rugged surface of the mount would not hurt him. Vasuki, in tune with his role, allowed himself to be wound around MANDARA as the churning rope.


Devas and Asuras were very joyous and began churning the ocean with Mandara and Vasuki in place. But their joy was shortlived. Mount Mandara had no support and so sank into the ocean within a shortwhile. The mightiest of Devas and Asuras could not hold it.
There was only one who could do it and it was Lord Vishnu. Assuming the form of a huge Tortoise(KURMA), the Lord plunged into the ocean and came up with the mountain on his back. The Lord had come to their rescue again. The Devas and Asuras lost no time to get back to their job of churning. However much they churned nothing came out of their efforts. They became weary and depressed. Lord intervened once more and did the churning too.
With the churning in full steam, the concentrate of the impurities of the ocean threw up the deadly poison, HALAHALA. The poisonous fumes choked the Devas and Asuras. Not knowing what to do, Devas ran to Lord SHIVA collected it in his palm and swallowed it. As soon as the poison was removed, the Devas and Asuras resumed churning. As they churned and churned many precious things came to the surface but not the Nectar.


Suddenly a being emerged with a jar in his arms. It was Dhanwantari with the jar of the nectar of IMMORTALLITY. The Asuras were quick to surmise that it was Nectar in the jar. They rushed towards Dhanwantari and snatched the jar from him and started quarrelling for getting the Nectar first.
Devas watched the Asuras each one of whom was trying to grab the nectar for himself before everyone else. They were annoyed but kept their cool remembering the Lord's warning that they should not covet any precious thing coming out of the ocean or become angry over anything. Lord Vishnu appeared before them and approved their conduct and told them that He will charm the Asuras with the powers and secure the nectar from them.
The Asuras already stood divided over partaking the Nectar. They now noticed a woman, who was the most beautiful that they had ever seen, approaching them. They were all struck by the dazzling beauty of the woman and they turned to enjoying the unrivalled beauty of the form, the limbs, the features and what not, of this enchanting figure. They didn't however know that it was none other than Lord Vishnu who had descended before them in that bewitching form, in the form of MOHINI and He had a purpose in assuming the form.


In a state of infatuation, the Asuras gifted the Jar of Nectar to this beautiful woman and prayed to her to distribute it among them and bring peace and amity among themselves. Mohini condescended to do it but on condition that they would not question her actions, whatever they might be. The Asuras, not knowing who she was and totally under the spell of her charm, readily agreed to her condition. "Go bathe and assemble yourselves in one row with your cousins, the Devas in another row." ordered Mohini. When they were all assembled in two separate rows, Mohini began serving the Nectar to the Devas first. The Asuras were uneasy but chose to keep quiet as they had promised not to question her actions. By the time the last of the Devas in their row had been served, Mohini had made sure that there was no Nectar left to be served to the Asuras. Nectar of immortality would only cause untold harm and destruction, if granted to aggressive and unscrupulous beings like the Asuras.
Then to the amazement of Asuras, Lord Vishnu assumed his own form and the Asuras realised that it was Vishnu who had appeared before them as Mohini. They demanded of Vishnu their share of Nectar; but they got only a smile from him in return. Mounting GARUDA, Lord Vishnu flew away from them.


The Asuras felt cheated and immediately started attacking the Devas. With God on their side and with the Nectar inside, the Devas had regained their original splendour and strength and they were able to conquer the Asuras, who had to flee before the might of Devas. On the advice of Lord BRAHMA, conveyed through Sage Narada, INDRA called off the hostilities and returned to his realms with the Devas.
The Lord thus did revive and restore the lost glory of those who were righteous and who sought refuge in him; and subdue those who were aggressive an unrighteous and who didn't repose faith in him.
There are three temples dedicated to this incarnation of Vishnu in India: Kurmai of Chittoor District of Andhra Pradesh, Sri Kurmam in Srikakulam District of Andhra Pradesh, and Gavirangapur in the Chitradurg District of Karnataka. The name of the village Kurmai mentioned above originated as there is historical temple of Kurma Varadarajaswamy (Kurmavatar of Lord Vishnu), god in this village. The temple located in Srikurmam in Srikakulam District, Andhra Pradesh, is also the Avatar of Kurma.
The story has been mentioned in the Bhagavad Purana, Agni Purana and Ramayana.To celebrate the victory of Devas over the Asura's , Kurma Jayanti is celebrated. The day is celebrated in the month of Vaisakha on the full moon day. Some also celebrate on the twelfth day of the bright half of the Hindu month 'pausha'. The austerity which commences on the tenth day itself when a devotee is supposed to purify himself by taking a holy bath. On the following day he observes a fast and worships lord Kurma with appropriate rituals. He breaks his fast on dwadashi which marks the conclusion of the austerity. A devotee who observes a fast on this auspicious day becomes absolved of all his sins and attains salvation.