Friday, June 23, 2017

गुप्त नवरात्री

देवी दुर्गा को शक्ति का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि वही इस चराचर जगत में शक्ति का संचार करती हैं। उनकी आराधना के लिये ही साल में दो बार बड़े स्तर पर लगातार नौ दिनों तक उनके अनेक रूपों की पूजा की जाती है। 9 दिनों तक मनाये जाने वाले इस पर्व को नवरात्र कहा जाता है। जिसके दौरान मां के विभिन्न रूपों की पूजा आराधना की जाती है। इन नवरात्र को चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन साल में दो बार नवरात्र ऐसे भी आते हैं जिनमें मां दुर्गा की दस महाविद्याओं की पूजा की जाती है। यह साधना हालांकि चैत्र और शारदीय नवरात्र से कठिन होती है लेकिन मान्यता है कि इस साधना के परिणाम बड़े आश्चर्यचकित करने वाले मिलते हैं। इसलिये तंत्र विद्या में विश्वास रखने वाले तांत्रिकों के लिये यह नवरात्र बहुत खास माने जाते हैं। चूंकि इस दौरान मां की आराधना गुप्त रूप से की जाती है इसलिये इन्हें गुप्त नवरात्र भी कहा जाता है। चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र के बारे में तो सभी जानते ही हैं जिन्हें वासंती और शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है लेकिन गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में मनाये जाते हैं। गुप्त नवरात्र की जानकारी अधिकतर उन लोगों को होती है जो तंत्र साधना करते हैं।



गुप्त नवरात्र के महत्व को बताने वाली एक कथा भी पौराणिक ग्रंथों में मिलती है कथा के अनुसार एक समय की बात है कि ऋषि श्रंगी एक बार अपने भक्तों को प्रवचन दे रहे थे कि भीड़ में से एक स्त्री हाथ जोड़कर ऋषि से बोली कि गुरुवर मेरे पति दुर्व्यसनों से घिरे हैं जिसके कारण मैं किसी भी प्रकार के धार्मिक कार्य व्रत उपवास अनुष्ठान आदि नहीं कर पाती। मैं मां दुर्गा की शरण लेना चाहती हैं लेकिन मेरे पति के पापाचारों से मां की कृपा नहीं हो पा रही मेरा मार्गदर्शन करें। तब ऋषि बोले वासंतिक और शारदीय नवरात्र में तो हर कोई पूजा करता है सभी इससे परिचित हैं। लेकिन इनके अलावा वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्र भी आते हैं इनमें 9 देवियों की बजाय 10 महाविद्याओं की उपासना की जाती है। यदि तुम विधिवत ऐसा कर सको तो मां दुर्गा की कृपा से तुम्हारा जीवन खुशियों से परिपूर्ण होगा। ऋषि के प्रवचनों को सुनकर स्त्री ने गुप्त नवरात्र में ऋषि के बताये अनुसार मां दुर्गा की कठोर साधना की स्त्री की श्रद्धा व भक्ति से मां प्रसन्न हुई और कुमार्ग पर चलने वाला उसका पति सुमार्ग की ओर अग्रसर हुआ उसका घर खुशियों से संपन्न हुआ।

मान्यतानुसार गुप्त नवरात्र के दौरान भी पूजा अन्य नवरात्र की तरह ही करनी चाहिये। नौ दिनों तक व्रत का संकल्प लेते हुए प्रतिपदा को घटस्थापना कर प्रतिदिन सुबह शाम मां दुर्गा की पूजा की जाती है। अष्टमी या नवमी के दिन कन्याओं के पूजन के साथ व्रत का उद्यापन किया जाता है। वहीं तंत्र साधना वाले साधक इन दिनों में माता के नवरूपों की बजाय दस महाविद्याओं की साधना करते हैं। ये दस महाविद्याएं मां काली, तारा देवी, त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, माता छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, मां ध्रूमावती, माता बगलामुखी, मातंगी और कमला देवी हैं। लेकिन एस्ट्रोयोगी की सभी साधकों से अपील है कि तंत्र साधना किसी प्रशिक्षित व सधे हुए साधक के मार्गदर्शन अथवा अपने गुरु के निर्देशन में ही करें। यदि साधना सही विधि से न की जाये तो इसके प्रतिकूल प्रभाव भी साधक पर पड़ सकते हैं।

गुप्त नवरात्रों में की पूजा विधि भी दूसरे नवरात्र की तरह ही है। इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर मंत्र जाप कीजिए। कहते है कि अगर किसी मंत्र में सिद्धि प्राप्त करनी है, तो गुप्त नवरात्रों का करने से लाभ होता है। इस नवरात्रि में शाकंभरी देवी का पूजन करना चाहिए। संभव हो तो हर दिन दुर्गा सप्तशती या देवीभागवत् का पाठ कीजिए।

गणेश जी का मोदक, जामुन, बेल आदि के साथ सबसे पहले आह्वान अवश्य कर लीजिए। गुप्त नवराक्षों में कुलदेवी या कुलदेवता की पूजा करने से भी लाभ होता है। गुप्त नवरात्रि के दौरान मां काली, तारा,भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुंदरी, छिनमस्तिका, त्रिपुर भैरवी, धूमावति, बगलामुखी, मातंगी, मां कमला देवी की अराधना करनी चाहिए। नौ दिनों के उपवास का संकल्प लेते हुए प्रतिप्रदा यानि पहले दिन घटस्थापना करनी चाहिए। घटस्थापना के बाद प्रतिदिन सुबह और शाम के समय मां दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। अष्टमी या नवमी के दिन कन्या पूजन के साथ नवरात्रि व्रत का उद्यापन करना चाहिए। एक चौकी पर मिट्टी का कलश पानी भरकर मंत्रोच्चार सहित रखा जाता है। मिट्टी के दो बड़े कटोरों में मिट्टी भरकर उसमे गेहूं-जौ के दाने बो कर ज्वारे उगाए जाते हैं और उसको प्रतिदिन जल से सींचा जाता है। दशमी के दिन देवी-प्रतिमा व ज्वारों का विसर्जन कर दिया जाता है। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की मूर्तियां बनाकर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करें और पुष्पों को अर्ध्य दें। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है उसका करोड़ों गुना मिलता है। नवरात्रि व्रत से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। कन्या पूजन -नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। अष्टमी के दिन कन्या-पूजन का महत्व है जिसमें 5, 7,9 या 11 कन्याओं को पूज कर भोजन कराया जाता है।

कलश स्थापना

नवरात्रि के लिए मिट्टी का पात्र और जौ, शुद्ध, साफ मिट्टी, शुद्ध जल से भरा हुआ सोना, चांदी, तांबा, पीतल या मिट्टी का कलश, मोली (कलवा), साबुत सुपारी, कलश में रखने के लिए सिक्के, फूल और माला, अशोक या आम के 5 पत्ते, कलश को ढकने के लिए मिट्टी का ढक्कन, साबुत चावल, एक पानी वाला नारियल, लाल कपड़ा या चुनरी की आवस्यकता होती है।

ऐसे करें कलश स्थापना

नवरात्रि में कलश स्थापना करने के दौरान सबसे पहले पूजा स्थल को शुद्ध कर लें।
लकड़ी की चौकी रखकर उसपर लाल रंग का कपड़ा बिछाएं।
कपड़े पर थोड़े-थोड़े चावल रखें।
चावल रखते हुए सबसे पहले गणेश जी का स्मरण करें।
एक मिट्टी के पात्र में जौ बोयें।
इस पात्र पर जल से भरा हुआ कलश स्थापित करें।
कलश पर रोली से स्वस्तिक या ‘ऊँ’ बनायें।
कलश के मुख पर कलवा बांधकर इसमें सुपारी, सिक्का डालकर आम या अशोक के पत्ते रखें।
कलश के मुख को चावल से भरी कटोरी से ढक दें।
एक नारियल पर चुनरी लपेटकर इसे कलवे से बांधें और चावल की कटोरी पर रख दें।
सभी देवताओं का आवाहन करें और धूप दीप जलाकर कलश की पूजा करें।
भोग लगाकर मां की पूजा करें।

ऐसे कीजिए नवरात्र में पाठ

दुर्गा सप्तशती, इष्ट देवी के बीजमंत्र, दुर्गा कवच, दुर्गा शतनाम पाठ
दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ नहीं करें तो अध्याय 4, 5 और 11 का पाठ

पूजा करते वक्त फल की इच्छा ना करें

कहते है माता रानी की सही तरीके से सही समय पर पूजा की जाएं तो वह फलदायी होती है। अगर आप किसी मंशा से माता भगवती की पूजा आराधना कर रहे हैं, तो आप सावधान हो जाईये। क्योंकि माता रानी की पूजा करते वक्त फल की इच्छा मन में नहीं आनी चाहिए। माता बहुत दयालू होती है। वे भक्त की सभी मनोइच्छा पूजा मात्र से पूरी करती है।


Monday, June 19, 2017

योगिनी एकादशी

उत्तर भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन योगिनी एकादशी व्रत करने का विधान है. इस शुभ दिन पर विष्णु भगवान की पूजा-उपासना की जाती है. योगिनी एकादशी व्रत के दिन पीपल के पेड़ की पूजा करने का भी विशेष महत्व है. मान्यता है कि योगिनी एकादशी का व्रत करने से सारे पाप मिट जाते हैं. जीवन में समृद्धि और आनन्द की प्राप्ति होती है. ऐसा भी कहा जाता है कि यह एकादशी निर्जला एकादशी के बाद और देवश्‍यनी एकादशी के बाद आती है.



ऐसा भी कहा जाता है‍ कि योगिनी एकादशी का व्रत करना अट्ठासी हज़ार ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर है और यह स्वर्गलोक की प्राप्ति में सहायक है. इस दिन भगवान विष्णु नारायण एवं भगवान श्री लक्ष्मी नारायण जी का पूजन किया जाता है. यदि आप ये व्रत करना चाहते हैं तो ध्‍यान रहे इस व्रत में केवल फल ही खाए जाते हैं. इस व्रत को समाप्‍त करने को पारण कहा जाता है.

योगिनी एकादशी व्रत की कथा

अलकापुरी नामक एक नगरी थी. जहां कुबेर नाम का एक राजा था. राजा कुबेर शिव के भक्त थे. राजा कुबेर के यहां हेम नाम का एक माली था, जो पूजन के लिए फूल लाया करता था. इस माली की पत्‍नी का नाम था विशालाक्षी. एक दिन की बात है हमेशा की तरह माली हेम सागर से फूल तो ले आया, लेकिन पत्‍नी के साथ हास्य-विनोद करता रहा.

दूसरी ओर जब पूजा में देरी हुई तो राजा कुबेर ने सेवकों को इसका कारण जानने के लिए माली के पास भेजा. सेवकों ने सब पता करके राजा को बता दिया. यह सुनकर राजा को बहुत गुस्‍सा आया. उसने माली को श्राप दिया कि तू महिला का वियोग सहेगा और कोढ़ी बनेगा. इसके फौरन बाद माली को पृथ्वी पर भेज दिया गया. यहां पहुंचते ही वह कोढ़ी हो गया.

पृथ्‍वी पर माली ने बहुत दुख भोगे, लेकिन उसे अपना पिछला सब याद रहा. एक दिन परेशान होकर वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में गया. मार्कण्डेय ऋषि ने जब उसे देखा तो बोले, ‘तुमने जरूर कुछ ऐसा काम किया है, जिस कारण तुम्हारी ये हालत हो गई है.’ इसके बाद माली ने पूरी बात मार्कण्डेय ऋषि को बता दी. ऋषि ने माली को योगिनी एकादशी का व्रत करने की सलाह दी. इसके बाद माली ने पूरे विधि-विधान से योगिनी एकादशी का व्रत रखा. इस व्रत के प्रभाव से वह अपने पुराने स्वरूप में वापस लोट गया और अपनी पत्‍नी के साथ सुखपूर्वक जीवन व्‍यतीत करने लगा.

कैसे करें व्रत एवं पूजन?

पदमपुराण के अनुसार भगवान को एकादशी तिथि अति प्रिय है इसलिए जो लोग किसी भी पक्ष की एकादशी का व्रत करते हैं तथा अपनी सामर्थ्य अनुसार दान-पुण्य करते हैं वह अनेक प्रकार के सांसारिक सुखों का भोग करते हुए अंत में प्रभु के परमधाम को प्राप्त होते हैं।

इस बार यह व्रत 20 जून को है। एकादशी से एक दिन पूर्व अर्थात 19 जून को सच्चे भाव से एकादशी व्रत का संकल्प करके अगले दिन प्रात: स्नान आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर भगवान विष्णु नारायण एवं भगवान श्री लक्ष्मी नारायण जी के रूप का पूजन करना चाहिए। व्रत में केवल फलाहार करने का विधान है। रात को मंदिर में दीपदान करके प्रभु नाम का संकीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए। द्वादशी तिथि यानी 21 जून को अपनी क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को दान देकर व्रत का पारण करना शास्त्र सम्वत है।

21जून को, पारण (व्रत तोडऩे का) समय- 5:28 से 08:14
पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय-19:14
एकादशी तिथि प्रारम्भ- 20 जून 2017 01:11 बजे
एकादशी तिथि समाप्त- 20 जून 2017 22:28 बजे

Saturday, June 17, 2017

नाड़ी दोष

इंडियन एस्ट्रोलॉजी में वैवाहिक जीवन का भविष्य नक्षत्र मिलान के द्वारा जाना जाता है। उत्तर भारत में इसके अंतर्गत आठ मेलापक या कूट को मिलाया जाता है - वर्ण, वैश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट तथा नाड़ी। हर कूट के लिए एक-एक पॉइंट्स के बढ़ते क्रम में एक मिलाप निर्धारित है। इस तरह कुल 36 गुण (वर्ण-1 वैश्य-2 तारा-3 योनि-4 ग्रहमैत्री-5 गण-6 भकूट -7 नाड़ी-8= 36) होते हैं जिनका होने वाले वर-वधू की कुंडली में मिलान किया जाता है।इनमें अंतिम के तीन गुण सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इनके कुल गुण मिलकर सभी 8 कूट में सबसे ज्यादा (21= नाड़ी-8 भकूत-7 गण-6) और सभी गुणों का 58 प्रतिशत होते हैं। यही कारण है कि कुंडली मिलान में इन तीन को 'महादोष' कहा गया है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ब्रह्मांड में कुल 27 नक्षत्र माने गए हैं और इन 27 नक्षत्रों को 3 नाड़ियों में बांटा गया है - आदि, मध्य तथा अंत्य। कुंडली मिलान करते हुए अगर वर-वधू दोनों ही आदि-आदि, मध्य-मध्य अथवा अंत्य-अंत्य में आएं, तो उनके साथ को नाड़ी दोष युक्त माना जाता है। इस तरह नाड़ीकूट के अंतर्गत उन्हें कोई पॉइंट भी नहीं मिलता। इसी तरह अगर इस मिलान में वर-वधू अलग-अलग नक्षत्र के हों, तो उन्हें पूरे 8 पॉइंट्स मिलते हंं और उन्हें नाड़ी दोष से मुक्त माना जाता है।

नारद पुराण के अनुसार भले ही वर-वधू के अन्य गुण मिल रहे हों, लेकिन अगर नाड़ी दोष उत्पन्न हो रहा है तो इसे किसी भी हाल में नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह वैवाहिक जीवन के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होता है। ऐसे रिश्ते या तो नर्क समान गुजरते हैं या बेहद दुखद हालातों में टूट जाते हैं, यहां तक कि जोड़े में किसी एक की मृत्यु भी हो सकती है।  वाराहमिहिर के अनुसार अगर वर-वधू की कुंडली में ‘आदि दोष’ हो, तो उनका तलाक निश्चित है। इसी प्रकार ‘मध्य दोष’ होने पर दोनों की ही मृत्यु हो सकती है। ‘अन्य दोष’ हो तो वैवाहिक जीवन बेहद कष्टकर गुजरता है या दोनों में किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनका वो एकाकी जीवन भी सामान्य से अधिक कष्टदायक होता है।

‘आदि दोष’ में जहां पति की मृत्यु हो सकती है, ‘मध्य’ पति-पत्नी दोनों के लिए मृत्युकारक होता है और ‘अन्य दोष’ पत्नी की मृत्यु का कारक बनाता है। इस प्रकार वैवाहिक जीवन के लिए नाड़ी दोष का होना हर प्रकार से बस जीवन को दुखी और शोकाकुल बनाता है।  आज जोड़ियां बनाने में कुंडली मिलान करना जरूरी नहीं माना जाता, लेकिन इस प्रकार कई बार अनजाने में ऐसी भी जोड़ियां बन सकती हैं जो हर प्रकार से जीवन में दुखों का सामना करते हैं। इन्हीं में एक है वर-वधू की कुंडली में ‘नाड़ी दोष’ का होना।  

Tuesday, June 13, 2017

How to do Namaskār

The word ‘Namaskar’ is derived from the root ‘namaha’, which means paying obeisance (Namaskar) or salutation. From Science of Justice – ‘Namaha’ is a physical action expressing that ‘you are superior to me in all qualities and in every way’. The main objective of doing Namaskar to someone is to derive spiritual as well as worldly benefits.

By doing Namaskar to a deity or a Saint, unknowingly their virtues and capabilities are impressed upon our minds. Consequently we start emulating them, thus changing ourselves for the better.
Spiritual Benefits
1. Increase in humility and reduction of ego
While doing Namaskar, when one thinks, ‘You are superior to me; I am the subordinate. I do not know anything, you are omniscient’, only then does it help in reducing the ego and increasing humility.
2. Enhancement in the spiritual emotion of surrender and gratitude
While doing Namaskar when thoughts like ‘I do not know anything’, ‘You alone get everything done’, ‘Grant me a place at Your Holy Feet’ come to mind, only then does it help in increasing the spiritual emotion of surrender and gratitude.
3. Gaining the sattva component and faster spiritual progress
A. We receive the highest amount of sattva component from the posture (mudra) of Namaskar.
B. By  doing Namaskar to Deities or Saints we receive subtle frequencies emitted by them, e.g. frequencies of sattva or Bliss.
C. By doing Namaskar to Deities or Saints we also receive their blessings in a subtle form. This helps in hastening spiritual progress.
How to do Namaskar-
A. 'While paying obeisance to God, bring the palms together.
1. The fingers should be held loose (not straight & rigid) while joining the palms.
2. The fingers should be kept close to each other without leaving any space between them.
3. The fingers should be kept away from the thumbs.
4. The inner portion of the palms should not touch each other and there should be some space between them.
Note : The stage of awakening of spiritual emotion (bhāv) is important to the seeker at the primary level. Hence, for awakening spiritual emotion (bhāv), he should keep space in between the palms, whereas a seeker who is at the advanced level should refrain from leaving such space in between the palms to awaken the unexpressed spiritual emotion (bhāv).
B. After joining the hands one should bow and bring the head forward.
C. While tilting the head forward, one should place the thumbs at the mid-brow region, i.e. at the point between the eyebrows and try to concentrate on the feet of the Deity.
D. After that, instead of bringing the folded hands down immediately, they should be placed on the mid-chest region for a minute in such a way that the wrists touch the chest; then only should the hands be brought down.
Underlying Science in this action

A. The fingers should not be stiff while bringing the palms together because this will lead to a decrease in Sattva component from the vital and mental sheaths and thus increase the Raja component in them. By keeping the fingers relaxed, the subtlest Sattva component will get activated. With the strength of this energy, embodied souls are able to fight powerful distressing energies.
B. In the Namaskār posture, the joined fingers act as an antenna to assimilate the Chaitanya (Divine consciousness) or the Energy transmitted by a Deity. While joining the palms, the fingers must touch each other because leaving space between the fingers will result in accumulation of energy in that space. This energy will be immediately transmitted in various directions; therefore the seeker's body will lose the benefit of this potent energy.
C. About the space to be maintained between the palms: For a seeker at the primary level, it is advisable to leave space between the palms; it is not necessary for a seeker at an advanced level to leave space between the palms.
D. After joining the palms, bow a little. This posture puts pressure on the navel and activates the five vital energies situated there. Activation of these vital energies in the body makes it sensitive to accepting sāttvik frequencies. This later awakens the 'ātmashakti' (i.e. energy of the soul) and later, bhāv is awakened. This enables the body to accept in large measures the Chaitanyaemitted by the  Deity.
E. Touch the thumbs to the mid-brow region. (Please see images above.) This posture awakens the bhāv of surrender in an embodied soul, and in turn activates the appropriate subtle frequencies of Deities from the Universe. They enter through the 'Ādnyā-chakra’ (sixth centre in the spiritual energy system located in the mid-brow region in the subtle body) of the embodied soul and settle in the space parallel to it at the back interior of the head. In this space the openings to all the three channels converge; namely, the Moon, the Central and the Sun channels. Due to the movement of these subtler frequencies in this space, the Central Channel is activated. Consequently it facilitates the speedy transmission of these frequencies throughout the body, leading to purification of both the gross and subtle bodies at the same time.
F. After doing Namaskār, to completely imbibe the Chaitanya of the Deity (that has entered the hands by now), instead of bringing the folded hands down immediately, place them on the mid-chest region in such a way that the wrists touch the chest.
The ‘Anāhat-chakra‘ is located at the centre of the chest. Akin to the Ādnyā-chakra’, the activity of the ‘Anāhat-chakra‘ is also to absorb the Sattva frequencies. By touching the wrists to the chest, the ‘Anāhat-chakra‘ is activated and it helps in absorbing more of the Sattva component.

Effect of this Posture : By doing Namaskār in this manner, the Deity's Chaitanya is absorbed to a greater extent by the body, as compared to other methods of doing Namaskār. This gives maximum distress to negative energies. The negative energies that have manifested in a person are unable to touch their thumbs at the mid-brow region in Namaskār. (The negative energies are subtle. But at times they enter an individual's body and manifest in it.)








Monday, June 12, 2017

वास्तु दिशा एवं विदिशा के दोष एवं उपाय

यदि आपके घर में किसी भी दिशा में वास्तुदोष हो, जिसकी वजह से गृहस्वामी को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, तो उन दोषों को समाप्त करने ले लिए तुरंत ही उपाय करने चाहिए, जिससे घर में सुख-समृद्धि आये ! अलग-अलग दिशाओं में वास्तु दोष होने से अलग-अलग परिणाम होते हैं !


पूर्व दिशा जनित वास्तु दोष
पूर्व दिशा में वास्तुदोष हो तो गृहस्वामी का अदालती विवाद, चोरों व अग्नि का भय रहता है ! घर में धन नहीं रुकता है एवं दरिद्रता का वास रहता है !
उपाय
  • पूर्व दिशा जनित वास्तु दोष से बचने के लिए घर में पूर्व दिशा में सूर्य यन्त्र की स्थापना करनी चाहिए !
  • रोज प्रातः उठकर सूर्य को अर्ध्य दें एवं सूर्य की उपासना करें !
  • पूर्व दरवाजे पर वास्तु मंगलकारी तोरण लगायें !
  • पूर्व दिशा स्वच्छ एवं साफ़-सुथरी रखें !
पश्चिम दिशा जनित वास्तु दोष
पश्चिम दिशा में वास्तु दोष फोने पर गृहस्वामी को गुप्त रोग होने की सम्भावना होती है ! विभिन्न प्रकार की व्याधि के कारण परिवार में लोग पीड़ित रहते हैं ! सरकारी मामलों में हानि होती है और घर के छोटे-बड़े सदस्यों में सामंजस्य का अभाव रहता है!
उपाय
  • पश्चिम दिशा जनित वास्तु दोष को दूर करने के लिए घर में वरुण यंत्र स्थापित करना चाहिए !
  • गृहस्वामी शनिवार का उपवास करें !
  • शनिवार को खेजड़ी में जल डालें तथा सरसों के तेल का दान करें !
  • गरीब बच्चों को कचौड़ियाँ शनिवार के दिन खिलाएं !
उत्तर दिशा जनित वास्तु दोष
उत्तर दिशा में वास्तु दोष होने पर घर की लक्ष्मी दूसरों के घर चली जाती है ! गृहस्वामी को वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है ! मन में अशांति एवं घर में वैमनस्य का वातावरण रहता है ! जातक को माता एवं पुत्र के सुख में कमी होती है !
उपाय
  • उत्तर दिशा जनित वास्तु दोष को दूर करने के लिए पूजा-घर में बुध यंत्र स्थापित करें !
  • घर की दीवारों पर हरा रंग करवाएं !
  • गृहस्वामी बुधवार का व्रत रखें !
  • पूर्णिमा की रात को घी का दीपक उत्तर दिशा में जलाएं !
दक्षिण दिशा जनित वास्तु दोष
दक्षिण दिशा में वास्तुदोष होने पर घर में अकारण झगड़े, धन की हानि, स्त्री एवं पुत्र में दोष एवं भीतरी या बाहरी धोका हो सकता है !
उपाय
  • दक्षिण दिशा जनित वास्तु दोष को दूर करने के लिए दक्षिणावृत सूंड वाले गणपति की मूर्ति घर के अंदर व बाहर लगा दें !
  • गृहस्वामी को भैरव की उपासना करनी चाहिए !
  • गृहस्वामी को चाहिए की मंगलवार के दिन व्रत करें एवं हनुमान जी को चोला चढ़ाएं !
  • घर के द्वार पर शुभ मंगलकारी तोरण लगाना चाहिए !
  • अमावस्या के दिन चार बत्तियों वाला, तेल का दीपक जलाना चाहिए !

Thursday, June 8, 2017

बृहस्पति हुए मार्गी

देवगुरु बृहस्पति को सौरमंडल के मजबूत ग्रहों में से एक माना गया है। ज्योतिष शास्त्र की मानें तो यह ग्रह बेहद शुभ है और यदि किसी की कुंडली में शुभ स्थिति में हो तो उसे अपार खुशियां दिलाता है। देवगुरु बृहस्पति का जातक के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। इस ग्रह का मजबूत होना जीवन में धन, सुख और सौभाग्य को लाता है।



हाल ही में देवगुरु बृहस्पति ने अपनी चाल बदली है। 6 फरवरी 2017 को वक्री होने के बाद अब 9 जून 2017 को साय 7 बजकर 27 मिनट पर मार्गी हो रहे हैं। ज्योतिष अवलोक के अनुसार यह ग्रहीय परिवर्तन ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हो रहा है, फलस्वरूप यह एक बेहद शुभ संयोग बना रहा है। इतना ही नहीं, जिन जातकों की कुंडली में इस समय देवगुरु बृहस्पति शुभ स्थिति में विराजमान हैं उन्हें कोई बड़ा लाभ हो सकता है। साथ ही यदि कुंडली में बृहस्पति की दशा अशुभ है तो कुछ समय के लिए राहत मिल सकती है। आगे राशि अनुसार (चंद्र राशि के अनुसार) जानिए इस ग्रहीय परिवर्तन का किस राशि को कितना लाभ हो सकता है।

मेष राशि

बृहस्पति के मार्गी होते ही इस राशि के जातकों को कोई खुशखबरी मिल सकती है, साथ ही अटके कार्यों में तेजी आएगी। फंसा हुआ धन आने के योग बनेंगे। नौकरीपेशा व्यक्तियों को प्रमोशन मिल सकता है या फिर स्थान परिवर्तन होने की संभावना है। दांपत्य जीवन में चली आ रही परेशानियों का अंत होगा।

वृषभ राशि

वृषभ राशि के नौकरीपेशा वर्ग को बृहस्पति के मार्गी होते ही लाभ मिलेगा। कोई बड़ी तरक्की हो सकती है और साथ ही लंबे समय से किसी सहकर्मचारी के साथ चल रहे मतभेद खत्म होंगे। व्यापार जगत में अपनी किस्मत आजमा रहे लोग भी इस दौरान विस्तार करेंगे। अविवाहित युवक युवतियों के विवाह संयोग खुल जाएंगे।

मिथुन राशि

मिथुन राशि के वे जातक जो लंबे समय से नया कारोबार स्थापित करने का विचार बना रहे हैं, वे 9 जून के बाद अपनी प्लानिंग को सच बना सकते हैं। इसके अलावा आर्थिक संकट से जूझ रहे लोगों की परेशानी खत्म होगी।

कर्क राशि

बृहस्पति का मार्गी होना कर्क राशि के जातकों के लिए भाग्योदय लेकर आ रहा है। भूमि, भवन, संपत्ति संबंर्धी कार्यों में रुकावट समाप्त होगी। वाहन खरीदने का योग है। शादी नहीं हुई है तो संभव है कि इस अवधि में आप विवाह सूत्र में बंध जाएंगे।

सिंह राशि

बृहस्पति के मार्गी होने से इस राशि के जातकों के लिए विदेश यात्रा के योग बन रहे हैं। या तो आप ऑफिस या बिजनेस के काम से विदेश जाएंगे या फिर इस बार हमेशा के लिए सेटल होने का आपका प्लान भी साकार हो सकता है। यह योग छात्राओं के लिए काफी प्रबल दिखाई दे रहा है। दूसरे ओर इस राशि के जातकों के विवाह योग मजबूत हो जाएंगे।

कन्या राशि

बृहस्पति के मार्गी होने से कन्या राशि के जातकों के स्वास्थ्य में सुधार आएगा। साथ ही यदि किसी आर्थिक परेशानी का सामना कर रहे हैं, तो इस पक्ष में भी राहत मिलने की संभावना है। संबंधों के लिहाज से भी वक्त अच्छा आने वाला है।

तुला राशि

इस राशि वालों के लिए बृहस्पति का मार्गी होना कई शुभ संकेत लेकर आ रहा है। अवसरों का लाभ उठाने का मौका आएगा। अपना धनकोष बढ़ाने के कई अवसर आएंगे लेकिन आपको उन्हें पहचानना होगा। लेकिन साथ ही बेवजह का खर्च करने से बचें, ऐसा ना हो आप अधिक ऋण के तले आ जाएं।

वृश्चिक राशि

बृहप्सति का गोचर इस राशि के जातकों के दाम्पत्य जीवन में खुशियां लाएगा। जीवनसाथी की ओर से अधिक स्नेह प्राप्त होगा। नि:संतान दम्पत्ति यदि इस समय कोशिश करेंगे तो संतान का सुख हासिल कर सकते हैं। निजी जीवन के अलावा आर्थिक पक्ष में बृहस्पति का गोचर धन का खर्च करवाएगा, किंतु केवल संपत्ति बनाने के लिए जो आगे चलकर लाभ ही दिलाएगा।

धनु राशि

बृहस्पति का यह ग्रहीय परिवर्तन धनु राशि के जातकों के लिए विभिन्न क्षेत्रों में लाभ ला रहा है। राह भटक चुके लोगों को जीवन का न्या मार्ग प्राप्त होगा, आर्थिक संकट कम होने की संभावना है, मौजूदा नौकरी से परेशान लोगों को नई जॉब का ऑफर मिलेगा या फिर इसी जॉब में भी नया अवसर मिल सकता है। नकारात्मक विचार वाले लोगों से दूर रहने का प्रयास करें।

मकर राशि

गोचर के दौरान मकर राशि के जातकों का भाग्योदय होगा। धन के नए स्रोत प्राप्त होंगे। पारिवारिक और दांपत्य जीवन में चल रही अनबन समाप्त हो जाएगी और पति-पत्नी के संबंधों में मधुरता आएगी। मकर राशि वाले जातक यदि विदेश या किसी धार्मिक यात्रा पर जाना चाह रहे हैं तो योजना बनाएं 9 जून के बाद सफल होगी।

कुंभ राशि

बृहस्पति की बदलती चाल कुंभ राशि के जातकों के लिए आर्थोक्ल मोर्चे पर फायदेमंद होगी। खासतौर से व्यापार जगत के लोगों को अच्छा-खासा मुनाफा प्राप्त हो सकता है। नौकरीपेशा के लिए भी यह समय अनुकूल है।

मीन राशि

मीन राशि के स्वामी बृहस्पति ही हैं इसलिए विशेषकर विवाह कार्यों के लिए शुभ समय आ रहा है। विवाह कार्यों में आ रही बाधाएं दूर होंगी। साथ ही जिन लोगों का दाम्पत्य जीवन मुश्किल में पड़ा हुआ है वे राहत महसूस करेंगे। आर्थिक बाधाएं समाप्त होंगी, रुका हुआ धन भी वापस आने की संभावना है। 

Monday, June 5, 2017

भौम प्रदोष व्रत

मंगलवार को आने वाले प्रदोष व्रत को भौम प्रदोष व्रत कहा जाता है. हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार, प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने का विधान है. यह हर माह की त्रयोदशी तिथि में संपन्न  किया जाता है, जो कि शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षों में होता है. कहा जाता है इस व्रत को करने से लम्‍बे समय के कर्ज से मुक्ति मिलती है.



प्रदोष व्रत करने वाले व्रती ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर सबसे पहले स्नान करते हैं इसके बाद भगवान का ध्यान करते हुए व्रत शुरू किया जाता है. यूं तो इस व्रत के मुख्य देवता शिव माने गए हैं, लेकिन इस दिन उनके साथ उनकी पत्‍नी यानी देवी पार्वती की भी पूजा की जाती है.

इसके बाद भगवान शिव को बेल पत्र, चावल, फूल, धूप, दीप, फल, पान, सुपारी आदि चढ़ाए जाते हैं. दिन भर भगवान शिव के मंत्रों का जाप किया जाता है. शिव जी के मंत्रों की अगर बात करें तो आप ‘ओम नम: शिवाय’ या फिर महामृत्युजंय मंत्र ‘ऊं त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टि वर्धनम, उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्युर्मुक्षीय माम्रतात’ का जाप कर सकते हैं.

प्रदोष व्रत के दिन निराहार रहकर संध्या काल में स्नान करने के बाद संध्या-वंदना के बाद भगवान शिव की पूजा की जाती है. मान्यता है कि प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है.

मंगलवार को प्रदोष तिथि आने के चलते इस दिन शाम के समय हनुमान चालीसा का पाठ करना लाभदायी सिद्ध होता है.कहा जाता है कि इस व्रत को करने से मंगल ग्रह की शांति भी हो जाती है.

आइए जानते हैं इस व्रत की कथा के बारे में

एक वृद्ध महिला भगवान हनुमानजी की भक्‍त थी. एक दिन हनुमानजी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची. हनुमानजी ने साधु का वेश बनाया और वृद्धा के घर गए. हनुमान जी ने कहा- ‘कोई हमारी इच्‍छा पूरी करे’. वृद्धा घर से बाहर आई और बोली- क्‍या बात है महाराज. हनुमान बोले- मैं भूखा हूं, मुझे भोजन खिला दे. ऐसा कर सबसे पहले थोड़ी जमीन को लीप दे.

वृद्धा परेशान हो गई और बोली- लीपने के बजाए आप कुछ और कहिए, मैं आपकी इच्‍छा को जरूर पूरा करूंगी. साधु ने वृद्धा से तीन बार प्रतिज्ञा ली और कहा- अपने बेटे को बुलाओं. मैं उसकी पीठ पर आग जलाकर और भोजन बनाऊंगा. अब वृद्धा बहुत घबरा गई. अपने पुत्र को साधु को सौंप दिया.

साधु ने वृद्धा से उसके बेटे की पीठ पर आग जलवाई. आग जलाकर वृद्धा अपने घर वापिस चली गई. साधु ने भोजन बनाया और वृद्धा को बुलाया – अपने बेटे को बुलाओ, ताकि वो भी खाना खा सके. वृद्धा ने बेटे को आवाज लगाई- पुत्र को जीवित देख वृद्धा को बहुत हैरानी हुई और वह साधु के पैरों में गिरकर रोने लगी.
इसके बाद हनुमानजी ने उसे दर्शनऔर आशीर्वाद दिया.

प्रदोष व्रत की विधि

- प्रदोष व्रत करने के लिए मनुष्य को त्रयोदशी के दिन प्रात: सूर्य उदय से पूर्व उठना चाहिए.
- नित्यकर्मों से निवृ्त होकर, भगवान श्री भोले नाथ का स्मरण करें.
- इस व्रत में आहार नहीं लिया जाता है.
- पूरे दिन उपावस रखने के बाद सूर्यास्त से एक घंटा पहले, स्नान आदि कर श्वेत वस्त्र धारण किए जाते है.
- पूजन स्थल को गंगाजल या स्वच्छ जल से शुद्ध करने के बाद, गाय के गोबर से लीपकर, मंडप तैयार किया जाता है.
- अब इस मंडप में पांच रंगों का उपयोग करते हुए रंगोली बनाई जाती है.
- प्रदोष व्रत कि आराधना करने के लिए कुशा के आसन का प्रयोग किया जाता है.
- इस प्रकार पूजन की तैयारियां करके उतर-पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे और भगवान शंकर का पूजन करना चाहिए.
- पूजन में भगवान शिव के मंत्र 'ऊँ नम: शिवाय' का जाप करते हुए शिव को जल चढ़ाना चाहिए.

Sunday, June 4, 2017

भगवती श्री गायत्री उपासना

भगवती गायत्री आद्याशक्ति प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। वास्तव में भगवती गायत्री नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सविता की पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया। कहते हैं कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई। कहीं-कहीं सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है। इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्। गायत्री ज्ञान-विज्ञान की मूर्ति हैं। ये द्विजाति मात्र की आराध्या देवी हैं। इन्हें परब्रह्मस्वरूपिणी कहा गया है। वेदों, उपनिषदों और पुराणादि में इनकी विस्तृत महिमा का वर्णन मिलता है।



उपासना

गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है।


  • प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है।
  • मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
  • सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है।
ब्रह्मस्वरूपा गायत्री


इस प्रकार गायत्री, सावित्री और सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- 'जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री-मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है। गायत्री-मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं। मन्त्र का मूल स्वरूप इस प्रकार है-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 

अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध वरण करने योग्य तेज़ का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।

गायत्री भाष्य

याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों ने जिस गायत्री भाष्य की रचना की है वह इन चौबीस अक्षरों की विस्तृत व्याख्या है। इस महामन्त्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र हैं। गायत्री-मन्त्र के चौबीस अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। अत: यह त्रिपदा गायत्री कहलाती है। गायत्री दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापहन्त्री एवं परा विद्या की स्वरूपा हैं। यद्यपि गायत्री के अनेक रूप हैं। परन्तु शारदातिलक के अनुसार इनका मुख्य ध्यान इस प्रकार है- भगवती गायत्री के पाँच मुख हैं, जिन पर मुक्ता, वैदूर्य, हेम, नीलमणि तथा धवल वर्ण की आभा सुशोभित है, त्रिनेत्रों वाली ये देवी चन्द्रमा से युक्त रत्नों का मुकुट धारण करती हैं तथा आत्मतत्त्व की प्रकाशिका हैं। ये कमल के आसन पर आसीन होकर रत्नों के आभूषण धारण करती हैं। इनके दस हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, कमलयुग्म, वरद तथा अभयमुद्रा, कोड़ा, अंकुश, शुभ्र कपाल और रुद्राक्ष की माला सुशोभित है। ऐसी भगवती गायत्री का हम भजन करते हैं।

हिंदू धर्म में मां गायत्री को वेदमाता कहा जाता है अर्थात सभी वेदों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मां गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को हम गायत्री जयंती के रूप में मनाते है। 

धर्म ग्रंथों में यह भी लिखा है कि गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं तथा उसे कभी किसी वस्तु की कमी नहीं होती। गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं। विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विपत्तियों के समय उसकी रक्षा करती है।

मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए।

विद्या और तप गायत्री साधक के रूप में सामान्य जन को अमृत,पारस,कल्पवृक्ष रूपी लाभ सुनिश्चित रूप से आज भी मिल सकते है, पर उसके लिए पहले ब्राह्मण बनना होगा। गुरुवर के शब्दों में " ब्राह्मण की पूँजी है- विद्या और तप। अपरिग्रही ही वास्तव में सच्चा ब्राह्मण बनकर गायत्री की समस्त सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस के रूप में प्रतिपादित किया गया है।"

गायत्री पूजा से लाभ युगऋषि ने लिखा है कि परब्रह्म निराकार, अव्यक्त है। अपनी जिस अलौकिक शक्ति से वह स्वयं को विराट रूप में व्यक्त करता है, वह गायत्री है। इसी शक्ति के सहारे जीव मायाग्रस्त होकर विचरण करता है और इसी के सहारे माया से मुक्त होकर पुनः परमात्मा तक पहुँचता है।

सरल और फलदायी मंत्र गायत्री मंत्र को जगत की आत्मा माने गए साक्षात देवता सूर्य की उपासना के लिए सबसे सरल और फलदायी मंत्र माना गया है. यह मंत्र निरोगी जीवन के साथ-साथ यश, प्रसिद्धि, धन व ऐश्वर्य देने वाली होती है। लेकिन इस मंत्र के साथ कई युक्तियां भी जुड़ी है. अगर आपको गायत्री मंत्र का अधिक लाभ चाहिए तो इसके लिए गायत्री मंत्र की साधना विधि विधान और मन, वचन, कर्म की पवित्रता के साथ जरूरी माना गया है।

सुख, सफलता व शांति की चाहत वेदमाता मां गायत्री की उपासना 24 देवशक्तियों की भक्ति का फल व कृपा देने वाली भी मानी गई है। इससे सांसारिक जीवन में सुख, सफलता व शांति की चाहत पूरी होती है। खासतौर पर हर सुबह सूर्योदय या ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री मंत्र का जप ऐसी ही कामनाओं को पूरा करने में बहुत शुभ व असरदार माना गया है। मंत्र: ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध वरण करने योग्य तेज़ का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।

गायत्री मंत्र जप जुड़ी खास बातें 

गायत्री मंत्र जप किसी गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए। गायत्री मंत्र जप के लिए सुबह का समय श्रेष्ठ होता है। किंतु यह शाम को भी किए जा सकते हैं। गायत्री मंत्र के लिए स्नान के साथ मन और आचरण पवित्र रखें। किंतु सेहत ठीक न होने या अन्य किसी वजह से स्नान करना संभव न हो तो किसी गीले वस्त्रों से तन पोंछ लें। साफ और सूती वस्त्र पहनें। कुश या चटाई का आसन बिछाएं। पशु की खाल का आसन निषेध है। तुलसी या चन्दन की माला का उपयोग करें। ब्रह्ममूहुर्त में यानी सुबह होने के लगभग 2 घंटे पहले पूर्व दिशा की ओर मुख करके गायत्री मंत्र जप करें। शाम के समय सूर्यास्त के घंटे भर के अंदर जप पूरे करें। शाम को पश्चिम दिशा में मुख रखें। इस मंत्र का मानसिक जप किसी भी समय किया जा सकता है। शौच या किसी आकस्मिक काम के कारण जप में बाधा आने पर हाथ-पैर धोकर फिर से जप करें। बाकी मंत्र जप की संख्या को थोड़ी-थोड़ी पूरी करें। साथ ही अधिक माला कर जप बाधा दोष का शमन करें। गायत्री मंत्र जप करने वाले का खान-पान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किंतु जिन लोगों का सात्विक खान-पान नहीं है, वह भी गायत्री मंत्र जप कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के असर से ऐसा व्यक्ति भी शुद्ध और सद्गुणी बन जाता है।

कैसे करें गायत्री उपासना...? गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है। प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है। मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है।

गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हम नित्य गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन उसका पूरा अर्थ नहीं जानते। गायत्री मंत्र की महिमा अपार हैं। गायत्री, संहिता के अनुसार, गायत्री मंत्र में कुल 24 अक्षर हैं। ये चौबीस अक्षर इस प्रकार हैं- 1। तत् 2.स 3। वि 4। तु 5। र्व 6। रे 7। णि 8। यं 9। भ 10। गौं 11। दे 12। व 13। स्य 14। धी 15। म 16। हि 17। धि 18। यो 19। यो 20। न: 21। प्र 22। चो 23। द 24। यात् वृहदारण्यक के अनुसार हम उक्त शब्दावली का भाव इस प्रकार समझते हैं। तत्सवितुर्वरेण्यं: अर्थात् मधुर वायु चलें, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हों। भूलोक हमें सुख प्रदान करें। भर्गो देवस्य धीमहि:अर्थात् रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारण हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो। धियो यो न: प्रचोदयात्: अर्थात् वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं।

गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं- उत्साह एवं सकारात्मकता, त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा होती है, परमार्थ में रूचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आर्शीवाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्र सिद्धि प्राप्त होती है, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है। विद्यार्थीयों के लिए---- गायत्री मंत्र का जप सभी के लिए उपयोगी है किंतु विद्यार्थियों के लिए तो यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का एक सौ आठ बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। विद्यार्थियों को पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से निजात मिल जाती है।

गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं- 

दरिद्रता के नाश के लिए---- यदि किसी व्यक्ति के व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो उन्हें गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्र का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो ज्यादा लाभ होता है। 

संतान संबंधी परेशानियां दूर करने के लिए... किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर यौं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है। 

शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए--- यदि कोई व्यक्ति शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहा हो तो उसे प्रतिदिन या विशेषकर मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे क्लीं बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार एक सौ आठ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। मित्रों में सद्भाव, परिवार में एकता होती है तथा न्यायालयों आदि कार्यों में भी विजय प्राप्त होती है।

विवाह कार्य में देरी हो रही हो तो--- यदि किसी भी जातक के विवाह में अनावश्यक देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ह्रीं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर एक सौ आठ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री पुरुष दोनों कर सकते हैं। 

यदि किसी रोग के कारण परेशानियां हो तो---- यदि किसी रोग से परेशान है और रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ऐं ह्रीं क्लीं का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसके भी रोग का नाश होता हैं।

माता गायत्री शक्ति, ज्ञान, पवित्रता तथा सदाचार का प्रतीक मानी जाती है। मान्यता है कि गायत्री मां की अराधना करने से जीवन में सूख-समृद्धि, दया-भाव, आदार-भाव आदि की प्राप्ति होती हैं। माता गायत्री जी के कुछ मंत्र निम्न हैं:

माता गायत्री के मंत्र (Mantra of Mata Gayatri in Hindi)

मां गायत्री की पूजा के दौरान इस मंत्र को पढ़ते हुए वस्त्र अथवा ओढ़नी चढ़ाना चाहिए-

ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्मवरूथमासदत्स्वः |
वासोग्ने विश्वरूपर्ठ संव्ययस्व विभावसो ||

Maa Gayatri ki pooja ke dauran is mantra ko padhte huye vastra athva odhani chadhana chahiye-

Om Sujaato Jyotisha Sah Sharmvaroothamaasadatsvah |
Vaasogne Vishvarooparth Vibhavaso ||

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मां गायत्री की पूजा में उन्हें इस मंत्र के द्वारा मुकुट चढ़ाना चाहिए-

मातस्तवेमं मुकुटं हरिन्मणि-प्रवाल-मुक्तामणिभि-र्विराजितम् |
गारूत्मतैश्चापि मनोहरं कृत गृहाण मातः शिरसो विभूषणम् ||

Maa Gayatri ki pooja me is mantra ke dwara mukut chadhana chahiye-

Maatastavemam Mukutam Harinmani-Pravaal-Muktaamanibhi-Rviraajitam |
Gaarutmataishchaapi Manoharam Krit Grihaan Maatah Shirso Vibhooshanam ||

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इस मंत्र के द्वारा मां गायत्री को धूप दिखलाना चाहिए-

दशांगधूपं तव रंजनार्थं नाशाय मे विघ्नविधायकानाम् |
दत्तं मया सौरभचूर्णयुक्तं गृहाण मातस्तव सन्निधौ च ||

Is mantra ke dwara Maa Gayatri ko dhoop dikhalaana chahiye-

Dashaangadhoopam Tav Ranjanaartham Naashaya Me Vighnavidhaayakaanaam |
Dattam Maya Saurabhchoornayuktam Grihaan Maatastav Sannidhau Ch ||

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मां गायत्री की पूजा में इस मंत्र को पढ़ते हुए उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करना चाहिए-

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ||

Maa Gayatri ki pooja me is mantra ko padhte huye unhe pushpaanjali arpit karna chahiye-

Om Yagyen Yagyamayajant Devaastaani Dharmaani Prahtamaanyaasan |
Te Ha Naakam Mahimaanah Sachant Yatra Poorve Saadhyaah Santi Devah ||

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मां गायत्री की आरती करते समय इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए-

इदर्ठ हविः प्रजननं मे अस्तु दशवीरः सर्व्गणर्ठ स्वस्तये |
आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि ||

Maa Gayatri ki aarti karte samay is mantra ka uchcharan karna chahiye-

Idarth Havih Prajananam Me Astu Dashveerah Sarvganarth Svastaye |
Aatmasani Prajaasani Pashusani Lokasanyabhayasani ||

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मां गायत्री की पूजा में इस मंत्र का उच्चारण करते हुए पूगीफल समर्पण करना चाहिए-

ॐ याः फ़लिनीर्या अफ़ला अपुष्पायाश्च पुष्पिणीः |
बृहस्पतिप्रसूतास्तानो मुंचन्त्वर्ठ हसः ||

Maa Gayatri ki pooja me is mantra ka uchcharan karte huye poogeefal samarpan karna chahiye-

Om Yaah Falineeryaa Afalaa Apushpaayashch Pushpineeh |
Brihaspatiprasootaastaano Munchntvarth Hasah ||

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मां गायत्री की पूजा में इस मंत्र का उच्चारण करते हुए उन्हें पुष्प अर्पित करना चाहिए-

ॐ ओषधीः प्रतिमोददध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः |
अश्चा इव सजित्वरीवींरूधः पारियिष्णवः ||

Maa Gayatri ki pooja me is mantra ka uchcharan karte huye unhe pushp arpti karna chahiye-

Om Oshadheeh Pratimodadadhvam Pushpvateeh Prasoovarih |
Ashchaa Iv Sajitvareeveenroodhah Paariyishnavah ||

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मां गायत्री की पूजा के दौरान इस मंत्र को पढ़ते हुए उन्हें ताम्बूल समर्पण करना चाहिए-

कर्पूर्-जातीफ़ल-जायकेन ह्येला-लवंगेन समन्वितेन |
मया प्रदत्तं मुखवासनार्थं ताम्बूलमंगी कुरू मातरेतत् ||

Maa Gayatri ki pooja ke dauran is mantra ko padhte huye unhe tambool samarpan karna chahiye-

Karpoor-Jaatifal-Jaayaken Hyelaa-Lavangen Samanviten |
Maya Pradattam Mukhavaasanaartham Tamboolmangee Karu Maataretat ||

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इस मंत्र को पढ़ते हुए मां गायत्री को सिन्दूर समर्पण करना चाहिए-

ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्यायाहेतिं परिबाधमानाः |
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान्पुमान पुमार्ठ सम्परिपातु विश्वतः ||

Is mantra ko padhte huye Maa Gayatri ko sindoor samarpan karna chahiye-

Om Ahiriv Bhogaih Paryeti Baahum Jyaayaahetim Paribaadhamaanah |
Hastghno Vishva Vayunaani Vidvaanpumaan Pumaarth Samparipaatu Vishvatah ||

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मां गायत्री की पूजा के दौरान इस मंत्र का उच्चारण करते हुए उनका आवाहन करना चाहिए-

आयाहि वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि |
गायत्रि छन्दसां मातर्ब्रह्ययोने नमोस्तु ते ||

Maa Gayatri ki pooja ke dauran is mantra ka uchcharan karte huye unka aavahan karna chahiye-

Aayahi Varde Devi Tryakshare Brahmavaadini |
Gayatri Chhandasaam Maatarbrahyayone Namostu Te ||

Maa Gayatri

Gayatri Devi the Goddess is considered the veda mata, Essentially, the Goddess is seen to combine all the phenomenal attributes of Brahman. Goddess Gayatri is also worshipped as the Hindu Trimurti. Some also consider her to be the mother of all Gods.



She is an aspect of Mata Saraswati, Mata Lakshmi and Mata Parvati, all three in one form, a form of Adi Shakti, as she is the human form of the Gayatri writings of the Vedas, hence called Gayatri meaning 'Gaya' to sing and 'tri' referring to the three Goddess, is the source of Brahma's power. Without her, Brahma remains dormant or unable to create. It's said that if one were to worship anyone, Gayatri, Lakshmi, Saraswati, Durga or Radha devi, it is equal to worshiping all the pancha (5) mata.

Gayatri is, in fact, the name applied to one of the most well known Vedic hymns consisting of twenty-four syllables. This hymn is addressed to god Surya (sun) as the supreme generative force. One translation of this hymn is: "We meditate on that glorious light of the divine Surya (Sun), may he, the lord of light, illuminate our minds". It is purported that repeating this hymn leads to salvation (moksha); that one who desires to attain heaven should recite it a thousand times each day; and that a person, who daily repeats the Gayatri hymn 3000 times for one month, shall be freed from guilt, however great.

Gayatri later came to be personified as a goddess. She is shown having five heads and is usually seated within a lotus. She is seen as a consort of Brahma.

According to the myth, one day Brahma was to perform his sacrifices to gods. But to do so it was important for Brahma to be married. His consort's presence was indispensable to complete the ceremonies. Brahma asked the priest to fetch him any woman and wed him to her at the spot. Nearby was found a very lovely girl mostly seen near the Mt. Kailash Manasarovar region during that time . In reality, she was no other person than this Vedic hymn of Gayatri incarnated in the shape of that beautiful girl. Brahma immediately married that girl and kept her as his wife .

The five heads of Gayatri represent the four Vedas of ancient Indians, and the remaining one represents the Almighty Lord himself. In her ten hands she holds all the symbols of Lord Vishnu including mace, lotus, axe, conch, sudarshan chakra, lotus, etc. One of the sacred texts explicitly reads, 'The Gayatri is Brahma, the Gayatri is Vishnu, the Gayatri is Shiva, the Gayatri is Vedas".

All sects of Hindus accept the importance of this hymn. Even the Arya Samajists, who do not believe in the worship of images and idols, proclaim this hymn as the most sacred one and in every prayer of theirs repeat the holy mantra to achieve success as well as salvation.

About Gayatri Mantra 

What is a Gayatri mantra, It is a jewel among the treasures that is handed down from generation to generation. To be initiated into this sacred mantra is a great privilege. The sound or even the thought of the Gayatri's verse sets grace in action. Those who are called by her are initiated into her power by the Master.

The Gayatri Mantra is first recorded in the Rig Veda (iii, 62, 10) which was written in Sanskrit about 2500 to 3500 years ago, and by some reports, the mantra may have been chanted for many generations before that. Gayatri Mantra is a highly revered mantra in Hinduism, second only to the mantra Om. Since all the other three Vedas contain much material rearranged from the Rig Veda, the Gayatri mantra is found in all the four Vedas. The deva invoked in this mantra is Savitr, and hence the mantra is also called Savitri.

Gayatri is typically portrayed as seated on a red lotus, signifying wealth. She appears in either of these forms:

1. Having five heads with the ten eyes looking in the eight directions plus the earth and sky, and ten arms holding all the weapons of Vishnu, symbolizing all her reincarnations.

2. Accompanied by a white swan, holding a book to portray knowledge in one hand and a cure in the other, as the goddess of Education.



"Aum Bhoor Bhuwah Swaha, Tat Savitur Varenyam,
Bhargo Devasaya Dheemahi, Dhiyo Yo Naha Prachodayat"
Gayatri Mantra - Its Meaning
Aum Bhoor Bhuwah Swaha,
Tat Savitur Varenyam
Bhargo Devasaya Dheemahi
Dhiyo Yo Naha Prachodayat.


Summary of the Gayatri Mantra

Gayatri Mantra (the mother of the vedas), the foremost mantra in hinduism and hindu beliefs, inspires wisdom. Its meaning is that "May the Almighty God illuminate our intellect to lead us along the righteous path". The mantra is also a prayer to the "giver of light and life" - the sun (savitur).

Oh God! Thou art the Giver of Life,
Remover of pain and sorrow,
The Bestower of happiness,
Oh! Creator of the Universe,
May we receive thy supreme sin-destroying light,
May Thou guide our intellect in the right direction.


Gayatri Mantra in Sanskrit

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

अर्थः - उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित  करें।


Gayatri, the five-faced Goddess, is said to have domain over the five senses or pranas, and protects these five life-forces of those who chant the Gayatri Mantra. In her role as the protector, Gayatri is referred to as Savitri.

Word for Word Meaning of the Gayatri Mantra

Aum = Brahma ;
bhoor = embodiment of vital spiritual energy(pran) ;
bhuwah = destroyer of sufferings ;
swaha = embodiment of happiness ;
tat = that ;
savitur = bright like sun ;
varenyam = best choicest ;
bhargo = destroyer of sins ;
devasya = divine ;

These first nine words describe the glory of God

dheemahi = may imbibe ; pertains to meditation
dhiyo = intellect ;
yo = who ;
naha = our ;
prachodayat = may inspire!
"dhiyo yo na prachodayat" is a prayer to God


Hence the Gayatri is unique in that it embodies the three concepts of stotra (singing the praise and glory of God), dhyaana (meditation) and praarthana (prayer).

The prayer form of the Gayatri be used to pray to Lord Shiva is called Rudra Gayatri. Similarly, one may sing Ganesha Gayatri for Lord Ganesha, Hanuman Gayatri for Lord Hanuman, and Saraswati Gayatri for Goddess Saraswati.


Origin, Benefits and Chanting of the Gayatri Mantra

The Vedas are widely considered to be the source of all true knowledge, the word "Veda" itself meaning "Knowledge". Gayatri Devi also gave to mankind the "Gayatri Mantra", also known as the "Guru Mantra" or the "Savitri Mantra". It is one of the oldest mantras, and generally thought of as being amongst the highest and most powerful mantras of all. This mantra is therefore often referred to as "the Mother of the Vedas". In the Bhagavad Gita, Lord Krishna had proclaimed to Arjuna - "Among all the mantras, I am the Gayatri".

Rishis selected the words of the Gayatri Mantra and arranged them so that they not only convey meaning but also create specific power of righteous wisdom through their utterance. The ideal times for chanting the mantra are three times a day - at dawn, mid-day, and at dusk. These times are known as the three sandhyas - morning, mid-day and evening. The maximum benefit of chanting the mantra is said to be obtained by chanting it 108 times. However, one may chant it for 3, 9, or 18 times when pressed for time. The syllables of the mantra are said to positively affect all the chakras or energy centres in the human body - hence, proper pronunciation and enunciation are very important.

Chanting of Gayatri Mantra removes all obstacles in our path to increased wisdom and spiritual growth and development. The teachings and powers incorporated in the Gayatri Mantra fulfill this purpose. Righteous wisdom starts emerging soon after Jap(recitation) of the Gayatri Mantra is performed. Sathya Sai Baba teaches that the Gayatri Mantra "will protect you from harm wherever you are, make your intellect shine, improve your power of speech, and dispel the darkness of ignorance (Dhiyoyonah prachodayaath)".


References to the Gayatri Mantra in Scriptures


The Upanisads (secret texts) of Hinduism contain several references to the Gayatri Mantra.

Gayatri Mantra - Long Form and Praanayama:

The complete form (or long form) of the Gayatri Mantra contains an invocation to the seven spheres, followed by the traditional 24-syllable mantra that is most commonly chanted (Details of each syllable can be found in the Gayatri by Words article). The final part of the mantra is an invocation to the Goddess of light to illuminate our path as we move towards higher consciousness.


AUM bhUH, AUM bhuvaH, AUM svaH, AUM mahaH
AUM janaH, AUM tapaH, AUM satyam
AUM tatsaviturvarenyM bhargo devasya dhImahi
dhIyo yo nH prachodayAt.h.
AUM Apo jyotiH rasomRRitaM
brahma bhUR bhuvaH svar AUM..


AUM, the primordial sound, resides in all elements of the universe. It permeates the earth (-bhUH), water (-bhuvaH), fire (-svaH), air (-mahaH), ether (-janaH), intelligence (-tapaH) and consciousness (-satyam). We pay homage to Gayatri, the one who shines like the sun (tat savitur), the one who destroys all our sins through her everlasting and effulgent light. Dear Goddess Gayatri, please illuminate our path towards our higher consciousness and lead us to our true purpose in life. Please shine your light (-jyotiH) in our path so we may partake of the everlasting nectar (rasomRRitaM) of brahman while chanting the primordial sound, AUM!


Gayatri Mantra - Mantra or Prayer?

The Gayatri Mantra occupies a unique place in that it has both the power of mantra and of prarthana (prayer). It is important then in considering the Gayatri Mantra to distinguish the difference between these two deceptively similar words.

A mantra may be articulate or inarticulate, or a combination of them, as with AUM. It has an inherent power, known as "Mantra shakti", which has a positive influence not due to any philosophical meaning behind the mantra, but simply due to its utterance alone.

A prayer on the other hand does have a philosophical meaning behind it, and it is generally through this meaning that the prayer or prarthana has its power. Since this meaning can be easily understood, the method of prarthana is generally the form of worship used by most people.

The Gayatri, or Guru Mantra possesses both the power of mantra and the power of prarthana, and thus has both an intrinsic power (ie "mantra shakti"), through its mere utterance alone, and also an instrumental power (ie "prarthana shakti"), which is derived from the understanding of its meaning and philosophical significance. Hence, the repeated and correct chanting of the Gayatri Mantra, with proper understanding of its meaning, is believed to be of the greatest good to the individual.


Nirjala Ekadashi

Origin of Nirjala Ekadashi Vrat is found in the mythological legend of Mahabharata. As per the story mentioned therein, out of the five Pandavas, Yudhisthira, Arjuna, Nakula and Sahadeva used to observe Ekadashi Vrat along with Kunti (their mother) and Draupadi (their wife). But Bhima, their second brother, was not able to do so, as he was fond of eating and controlling hunger was impossible for him. Once, he expressed his wish to observe the fast, but wanted to eat as well. However, as eating was against the ritual of Ekadashi fast; therefore, he went to his grandfather (Ved Vyasa) to seek help. On this, Vyasa suggested him to observe Nirjala Ekadashi Vrat, as it is equivalent to observing all the 24 Ekadashi Vrats. He also told him that observing this fast will compensate him for not being able to observe all the other Ekadashi Vrats of the year.



Vyasadeva advised him to follow this difficult vrata.

One should worship the Lord in the evening by bathing him in milk.
On the dvadasi one should give full pots of water to brahmanas and feed them before breaking one's fast.

SAMVATSARASYA YA MADHYE EKADASYO BHAVANTI HI TASAM PHALAM AVAPNOTI PUTRA ME NA ATRA SAMSAYAH ITI MAM KESAVAH PRAHA SANKHA CAKRA GADADHARAH
(HARI BHAKTI VILASA 15/25 from PADMA PURANA Vyasadeva speaks to Bhimasena)

Oh son, Lord Keshava, Who holds the club, disk, conch and lotus flower in His hand, personally told me that all of the merit achieved by fasting on whatever Ekadasis fall in one year can be attained by fasting on this one Ekadasi (nirjala Ekadasi).
Of this, there is no doubt.

ATMADROHAH KRTASTES TU YAIR ESA NA HY UPOSITA PAPATMANO DURACARA DUSTAS TE NA ATRA SAMSAYAH
(HARI BHAKTI VILASA 15/33 from PADMA PURANA Vyasadeva speaks to Bhimasena)
Anyone who does not fast on this particular Ekadasi (nirjala Ekadasi), they should be understood to be sinful, corrupted and suicidal person without a doubt.

The Story of Pandava Nirjala Ekadasi:

Once Bhimasena, the younger brother of Maharaja Yudhisthira, asked the great sage Shrila Vyasadeva, the grandfather of the Pandavas, if it is possible to return to the spiritual world without having observed all the rules and regulations of the Ekadasi fasts.

Bhimasena then spoke as follows, "Oh greatly intelligent and learned grandfather, my brother Yudhisthira, my dear mother Kunti, and my beloved wife Draupadi, as well as Arjuna, Nakula and Sahadeva, fast completely on each Ekadasi and strictly follow all the rules, guidelines and regulative injunctions of that sacred day.

Being very religious, they always tell me that I should also fast on that day too.
But, Oh learned grandfather, I tell them that I cannot live without eating, because as the son of Vayudeva - Samanaprana, (the digestive air) hunger is unbearable to me.
I can give widely in charity and worship Lord Keshava properly with all manner of wonderful upacharas (items), but I cannot be asked to fast on Ekadasi.

Please tell me how I can obtain the same merits result without fasting."

Hearing these words, Sri Vyasadeva said, "If you want to go to the heavenly planets and avoid the hellish planets, you should indeed observe a fast on both the light and dark Ekadasis."

Bhima replied, "Oh great saintly intelligent grandfather, please listen to my plea.

Oh greatest of munis, since I cannot live if I eat only once in a day, how can I possibly live if I fast completely?

Within my stomach burns a special fire named Vrika, the fire of digestion.
Agni the fire-god, descends from Lord Vishnu through Brahma, from Brahma to Angirasa, from Angirasa to Brihaspathi, and from Brihaspathi to Samyu, who was Agni's father.
He is the gatekeeper in charge of Nairritti, the south-eastern direction.
He is one of the eight material elements, and Parikshit Maharaja, he is very expert at examining things.
He examined Maharaja Shibi once by turning into a dove. (for further information on this incident see Srila A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada's Srimad Bhagavatam commentary to 1:12:20. Purport.)

Agni is divided into three categories; Davagni, the fire in wood, Jatharagni, the fire in the digestion in the stomach, and Vadavagni, the fire that creates fog when hot and cold streams mix in for example the ocean.
Another name for the fire of digestion is Vrika.
It is this powerful fire that resided in Bhima's stomach.
Only when I eat to my full satisfaction does the fire in my stomach become satisfied.
Oh great sage, I might possibly be able to fast only once, so I beg that you tell me of an Ekadasi that is worthy of my fasting and that includes all other Ekadasis.
I shall faithfully observe that fast and hopefully still become eligible for liberation's release."

Shrila Vyasadeva replied, Oh king, you have heard from me about the various kinds of occupational duties, such as elaborate Vedic ceremonies and pujas.
In the Kali-yuga, however, no one will be able to observe all these occupational & functional duties properly.
I shall therefore tell you how, at practically no expense, one can endure some small austerity and achieve the greatest benefit and resultant happiness.
The essence of what is written in the Vedic literatures known as the Puranas is that one should not eat on either the dark or light fortnight Ekadasis."

As stated in Srimad Bhagavatam (Mahabhagavat Puranam) 12:13:12 and 15, the Bhagavat Puranam is itself the essence or cream of all Vedanta philosophy (sara-vedanta-saram), and the Srimad Bhagavatam's unequivocal message is that of full surrender to Lord Sri Krishna and the rendering of loving devotional service to Him.
Observing Ekadasi strictly is a great aid in that process, and here Shrila Vyasadeva is simply stressing to Bhima the importance of the Ekadasi vratam.

"One who fasts on Ekadasis saved from going to the hellish planets."
Hearing Shrila Vyasadeva's words, the son of Vayu, Bhimasena, the strongest of all warriors, became frightened and began to shake like a leaf on a banyan tree in a strong wind.
The frightened Bhimasena then said, "Oh grandfather, what should I do? I am completely unable and ill equipped to fast twice in a month throughout the year!
Please tell me of the one fasting day that will bestow the greatest benefit upon me!"

Vyasadeva replied, "Without drinking even water, you should fast on the Ekadasi that occurs during the light fortnight of the month of Jyeshtha (May-June) when the sun travels in the sign of Taurus (Vrishabh) and Gemini (Mithun),
According to learned personalities, on this day one may bathe and perform Achamana for pratiprokshana purification.
But while performing Achamana one may drink only that amount of water equal to a drop of gold, or that amount it takes to immerse a single mustard seed.
Only this amount of water should be placed in the right palm for sipping, which one should form to resemble a cow's ear.
If one drinks more water than this, he might as well have drunk wine despite the soaring heat of summer (in the northern hemisphere and cold in the southern hemisphere).

One must certainly not eat anything, for if he does so he breaks his fast.
This rigid fast is in effect from sunrise on the Ekadasi day to sunrise on the Dwadashi day.
If a person endeavours to observe this great fast very strictly, he easily achieves the result of observing all twenty-four other Ekadasi fasts throughout the entire year.

On Dwadashi the devotee should bathe early in the morning.
Then, according to the prescribed rules, guidelines and regulative injunctions, and of course depending on his ability, he should give some gold and water to worthy brahmanas.
Finally, he should cheerfully honour prasadam with a branmana.

Oh Bhimasena, one who can fast on this special Ekadasi in this manner reaps the benefit of having fasted on every Ekadasi during the year.
There is no doubt of this, nor should there be.

Oh Bhima, now hear the specific merit one gets by fasting on this Ekadasi.
The Supreme Lord Keshava, who holds a conch, discus, club and lotus, personally told me, `Everyone should take shelter of Me and follow My instructions.'
Then He told me that one who fasts on this Ekadasi, without taking even drinking water or eating, becomes free of all sinful reactions, and that one who observes the difficult nirjalafast on Jyeshtha-shukla Ekadasi truly reaps the benefit of all other Ekadasi fasts.

"Oh Bhimasena, in the Kali-yuga, the age of quarrel and hypocrisy, when all the principles of the Vedas will have been destroyed or greatly minimised, and when there will be no proper charity or observance of the ancient Vedik principles and ceremonies, how will there be any means of purifying the self?
But there is the opportunity to fast on Ekadasi and become free of all one's past sins.

"Oh son of Vayu, what more can I say to you?
You should not eat during the Ekadasis that occur during the dark and light fortnights, and you should even give up drinking water (nir = no jala= water) on the particularly auspicious Ekadasi day of Jyeshtha-shukla Ekadasi.
Oh Vrikodara (voracious eater), whoever fasts on this Ekadasi receives the merits of bathing in all the places of pilgrimage, giving all kinds of charities to worthy persons, and fasting on all the dark and light Ekadasis throughout the year, in one go.
Of this there is no doubt.

Oh tiger among men, whoever fasts on this Ekadasi truly becomes a great person and achieves all manner of opulence and wealth, grains, strength, and health.
And at the fearful moment of death, the terrible Yamadutas, whose complexions are yellow and black and who brandish huge maces and twirl mystic pasha ropes in the air for binding their victims, will refuse to approach him.
Rather, such a faithful soul will at once be taken to the supreme abode of Lord Vishnu by the Vishnu-dutas, whose transcendentally beautiful forms are clothed in gorgeous yellowish garments and who each hold a disk, club, conch and lotus in their four hands, resembling Lord Vishnu.
It is to gain all these benefits that one should certainly fast on this very auspicious and important Ekadasi, even from water."

When the other Pandavas heard about the benefits to be gained by following Jyeshtha-shukla Ekadasi, they resolved to observe it exactly as their grandfather Srila Vyasadeva had explained it to their brother, Bhimasena.
All the Pandavas observed it by refraining from eating or drinking anything, and thus this day is also known as Pandava Nirjala Dvadashi (technically it is a Maha-Dvadashi).

Shrila Vyasadeva continued, Oh Bhimasen, therefore you should observe this important fast to remove all your past sinful reactions.
You should pray to the Supreme Personality of Godhead, Lord Sri Krishna in this way making your sankalpa declaration, `Oh Lord of all the devas (demigods), Oh Supreme Personality of Godhead, today I shall observe Ekadasi without taking any water.
Oh unlimited Anantadev, I shall break fast on the next day, Dwadashi.'

Thereafter, to remove all his sins, the devotee should honour this Ekadasi fast with full faith in the Lord and with full control over his senses.
Whether his sins are equal in volume to Mount Sumeru or to Mandarachala Hill, if he or she observes this Ekadasi, the sins that have been accumulated all become nullified and are burned to ashes.
Such is the great power of this Ekadasi.

Oh best of human beings, although a person should also give water and cows in charity during this Ekadasi, if for some reason or other he cannot, then he should give a qualified brahmana some cloth or a pot filled with water.
Indeed, the merit achieved by giving water alone equals that gained by giving gold ten million times a day.

"Oh Bhima, Lord Sri Krishna has said that whoever observes this Ekadasi should take a Holy bath, give charity to a worthy person, chant the Lord's Holy names on a japa-mala, and perform some kind of recommended sacrifice, for by doing these things on this day one receives imperishable benefits.
There is no need to perform any other kind of religious duty.
Observance of this Ekadasi fast alone promotes one to the supreme abode of Sri Vishnu.
Oh best of the Kurus, if one donates gold, cloth, or anything else on this day, the merit one obtains is imperishable.

"Remember, whosoever eats any grains on Ekadasi becomes contaminated by sin and verily eats only sin.
In effect, he has already become a dog-eater, and after death he suffers a hellish existence.
But he who observes this sacred Jyeshtha-shukla Ekadasi and gives something in charity certainly achieves liberation from the cycle of repeated birth and death and attains to the supreme abode.
Observing this Ekadasi, which is merged with Dwadashi, frees one from the horrible sin of killing a brahmana, drinking liquor and wine, becoming envious of one's spiritual master and ignoring his instructions, and continually telling lies.

"Furthermore, Oh best of beings (Jivottama), any man or woman who observes this fast properly and worships the Supreme Lord Jalshayi (He who sleeps on the water), and who on the next day satisfies a qualified brahmana with nice sweets and a donation of cows and money - such a person certainly pleases the Supreme Lord Vasudeva, so much so that one hundred previous generations in his family undoubtedly go to the Supreme Lord's abode, even though they may have been very sinful, of bad character, and guilty of suicide, etc.
Indeed, one who observes this amazing Ekadasi rides on a glorious celestial airplane (vimana) to the Lord's abode.

"One who on this day gives a brahmana a waterpot, an umbrella, or shoes surely goes to the heavenly planets.
Indeed, he who simply hears these glories also attains to the transcendental abode of the Supreme Lord, Shri Vishnu.

Whoever performs the Shraddha ceremony to the forefathers on the dark-moon day called amavasya, particularly if it occurs at the time of a solar eclipse undoubtedly achieves great merit.
But this same merit is achieved by him who simply hears this sacred narration - so powerful and so dear to the Lord is this Ekadasi.

One should clean his teeth properly and, without eating or drinking, observe this Ekadasi to please the Supreme Lord, Keshava.

On the day after Ekadasi one should worship the Supreme Personality of Godhead in His form as Trivikrama by offering Him water, flowers, incense, and a brightly burning lamp.
Then the devotee should pray from the heart, `Oh God of gods, Oh deliverer of everyone, Oh Hrishikesha, master of the senses, kindly bestow upon me the gift of liberation, though I can offer you nothing greater than this humble pot filled with water.'
Then the devotee should donate the waterpot to a brahmana.

"Oh Bhimasena, after this Ekadasi fast and donating the recommended items according to his ability, the devotee should feed brahmanas and thereafter honour prasadam silently."

Shrila Vyasadeva concluded, "I strongly urge you to fast on this auspicious, purifying, sin-devouring Dwadashi in just the way I have outlined.
Thus you will be completely freed of all sins and reach the supreme abode."

Thus ends the narration of the glories of Jyeshtha-shukla Ekadasi, or Bhimaseni-nirjala Ekadasi, from the Brahma-vaivarta Pura

Bhima followed his grandfather’s advice and observed the fast with faith and dedication. As a result of observing Nirjala Ekadasi fast and not consuming anything, he became unconscious on the very next morning. To get back to his senses, he offered Ganga Jal to Tulsi plant and ended his fast. After this, Nirjala Ekadashi came to be known as Bhima Ekadashi, Bhimseni Ekadashi, and Pandava Ekadashi.

Nirjala Ekadashi : How to Observe Nirjala Ekadashi Vrat

The literal meaning of Nirjala is “without water”. This reason makes Nirjala Ekadashi Vrat the most difficult as well as the most sacred. Devotees find this fast more difficult and strict than others, as it falls in the summer season when surviving without water is not an easy task. Being a 24-hour long fast, Nirjala Ekadashi Vrat starts from sunrise of the day and ends on the sunrise of the next day i.e. Dwadashi (the twelfth day). This holy day is spent in the dedication of Lord Vishnu and chanting Mantras. However, if someone is unable to observe the Nirjala Ekadashi Vrat due to any reason, they can make donations to the needy people for seeking blessings of this meritorious day.

Nirjala Ekadashi : Rituals Of Nirjala Ekadashi

Bathe Vishnu’s idol with Panchamrit {mixture of milk, Ghee (purified butter), sugar, curd, and honey}.
Worship deity of the day, Lord Vishnu, by lighting Diyas (earthen lamps), offering Tulsi leaves and fruits.
Visit Vishnu’s temple and participate in the rituals of Nirjala Ekadashi Puja.
Observe Nirjala Ekadasi Vrat.
Donate clothes, food, gold, and other useful things to the needy people.
Break Nirjala Ekadasi fast next morning, after worshiping the lord.
Nirjala Ekadashi : Importance of Nirjala Ekadashi
Among all the Ekadashi Vrats, Nirjala Ekadashi Vrat is the most difficult one. For this reason, certain benefits are associated with the observance of Nirjala Ekadashi Vrat. Observing this extremely difficult Ekadasi Vrat is considered equal to:

  • Going on a pilgrimage
  • Burning all the sins and mistakes
  • Gaining the virtues of all the 24 Ekadashis of the year
  • Cleaning all the impurities and negativity from the body and soul
  • On this Nirjala Ekadashi, worship Lord Vishnu and observe Nirjala Ekadasi fast to achieve longevity, happiness, salvation, wealth, and prosperity.


Though Nirjala Ekadashi is not easy to observe, still performing it with the right rituals can open doors of success for you. Observe Nirjala Ekadasi and get the blessings of Lord Vishnu along with the washing off all your evils. If you are not able to observe the other Ekadasi Vrats of this year, then Nirjala Ekadashi Vrat can help you in compensating for each one of them.