शीतला मां का उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्दपुराण में मिलता है, इनको अत्यंत सम्मान का स्थान प्राप्त है. इनका स्वरूप अत्यंत शीतल है और रोगों को हरने वाला है. इनका वाहन है गधा, तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते हैं. मुख्य रूप से इनकी उपासना गर्मी के मौसम में की जाती है. इनकी उपासना का मुख्य पर्व "शीतला अष्टमी" है.
अगर सफलता पानी हो तो धैर्य जरूर होना चाहिए। यही हमें बतलाती हैं मां शीतला। सृष्टि में सबसे ज्यादा धैर्यवान गधा इनका वाहन है, जिसे गणेश जी की सर्वाधिक प्रिय दूब बहुत पसंद है। माता शीतला सात बहन हैं- ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा। चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत भी कहा जाता है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इन महीनों में गर्मी शुरू होने लगती है। चेचक आदि की आशंका रहती है। प्रकृति के अनुसार शरीर निरोगी हो, इसलिए भी शीतला अष्टमी व्रत करना चाहिए।
शीतल जल में स्नान करके- ‘मम गेहे शीतलारोग जनितोपद्रव प्रशमनपूर्वकायुरोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमी व्रत करिष्ये’ मंत्र का संकल्प व्रती को करना चाहिए। नैवेद्य में पिछले दिन के बने शीतल पदार्थ- मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल-भात, लपसी और रोटी-तरकारी आदि कच्ची-पक्की आदि चीजें मां को चढ़ानी चाहिए। रात में जागरण और दीये अवश्य जलाने चाहिए।नाभिकमल और हृदयस्थल के बीच विराजमान शीतला देवी अपने वाहन गर्दभ (गधे) पर सवार रहती हैं। स्कन्द पुराण में शीतलाष्टक स्तोत्र है। मान्यता है कि उसकी रचना भगवान शंकर ने की थी।‘वन्देùहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम॥’ अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में झाड़ होने का अर्थ है कि माता को वे लोग ही पसंद हैं, जो सफाई के प्रति जागरूक रहते हैं। कलश में भरे जल से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छ रहने से ही सेहत अच्छी होती है।
इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं। इससे परिवार में दाहज्वर, पीतज्वर, पीड़ा, नेत्रों के समस्त रोग तथा शीतलाजनित दोष समाप्त होते हैं। उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले में सिराथू के पास स्थित कड़ा धाम शीतला माता का बुहत प्रसिद्ध तीर्थ है। उत्तराखंड के काठगोदाम, हरियाणा के गुरुग्राम और गुजरात के पोरबंदर में भी शीतला माता के भव्य मंदिर हैं। गौरतलब है कि गुप्त मनौती माता को बताते वक्त भक्तगण इस मंत्र का बराबर जाप करते रहते हैं- ‘शीतला: तू जगतमाता, शीतला: तू जगतपिता, शीतला: तू जगदात्री, शीतला: नमो नम:॥’
पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शीतला जी की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा जी से ही हुई थी। ब्रह्मा जी ने माता शीतला को धरती पर पूजे जाने के लिए भेजा था। देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं। तब उनके पास दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए कोई स्थान नहीं दिया तो माता शीतला क्रोधित हो गईं।
उसी क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा के शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आए और लोग उस गर्मी से संतप्त हो गए। राजा को अपनी गलती का एहसास होने पर उन्होंने माता शीतला से माफी मांगकर उन्हें उचित स्थान दिया। लोगों ने माता शीतला के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध एवं कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई और माता शांत हुईं। तब से हर साल शीतला अष्टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडे बासी भोजन का प्रसाद मां को चढ़ाने लगे और व्रत करने लगे।
हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है
शीतला अष्टमी को बसौड़ा पूजा भी कहा जाता है। ये होली पर्व के ठीक आठ दिनों बाद मनाई जाती है यानी अष्टमी को। हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है। इसलिए इसे बसौड़ा भी कहते हैं जिसका मतलब होता है बासी भोजन। शीतला माता के हाथ में झाडू और कलश होता है। माता के हाथ में झाडू होने का मतलब लोगों को सफाई के प्रति जागरुक करने से होता है।
हिंदू धर्म शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि कलश में सभी 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास रहता है। यह पर्व एक तरफ से लोगों को सफाई के प्रति जागरूक भी करता है कि व्यक्ति ना सिर्फ खुद को स्वच्छ रखे बल्कि अपने आसपास के वातावरण को भी साफ , सुंदर और स्वच्छ रखे।
माता शीतला देवी की उपासना से सभी तरह के पाप नष्ट हो जाते है। शीतलाष्टमी के एक दिन पहले भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग तैयार किया जाता है। शीतला अष्टमी के दिन माता को प्रसाद चढ़ाया जाता है।
शीतला अष्टमी को लेकर ऐसी मान्यता है कि महिलाएं अपने बच्चों की सलामती, उन्हें हर प्रकार के रोगों से दूर रखने के लिए और घर में सुख समृद्धि के लिए शीतला माता की पूजा करती हैं।कहा जाता है कि जिस घर में शुद्ध मन से शीतला माता की पूजा होती है वहां हर प्रकार से सुख समृद्धि बनी रहती है। बताया जाता है कि जिस घर में चेचक से कोई बीमार हो, उसे ये पूजा नहीं करनी चाहिए।
कैसे करनी चाहिए पूजा
शीतल माता की पूजा करने के बाद बसौड़े के तौर पर मीठे चावल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। कई लोग इस दिन शीतला माता के मंदिर जाकर हल्दी और बाजरे से पूजा भी करते हैं। पूजा के बाद बसौड़ा व्रत कथा कही जाती है। पूजा के बाद परिवार के सभी लोगों को प्रसाद देकर एक दिन पहले बनाया गया बासी भोजन खाया जाता है। स्कंद पुराण में शीतला माता के विषय में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग की देवी हैं, यह हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण किए होती हैं तथा गर्दभ की सवारी किए यह अभय मुद्रा में विराजमान हैं।
शीतला माता के संग ज्वरासुर ज्वर का दैत्य, हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण त्वचा रोग के देवता एवं रक्तवती देवी विराजमान होती हैं इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी। तभी से शीतला माता की अष्टमी को पूजा करने की परंपरा चली आ रही है। कई लोग इस दिन मां का आशीर्वाद पाने और पूरे साल बीमारियों से दूर रखने के लिए उपवास भी करते हैं।
अष्टमी के दिन बासी वस्तुओं का नैवेद्य शीतला माता को अर्पित किया जाता है। इस दिन व्रत उपवास किया जाता है तथा माता की कथा का श्रवण होता है। कथा समाप्त होने पर मां की पूजा अर्चना होती है तथा शीतलाष्टक को पढ़ा जाता है, शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा को दर्शाता है, साथ ही साथ शीतला माता की वंदना उपरांत उनके मंत्र का उच्चारण किया जाता है जो बहुत अधिक प्रभावशाली मंत्र है जो इस प्रकार है-
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्। ।
कथा
यह कथा बहुत पुरानी है। एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है। माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।
शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।
तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।
तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उसबूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत। मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है। इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।
माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।
तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है माता मेरी इच्छा है अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना। उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को कपडे धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़ाकर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।
तब माता बोली तथाअस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु । है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी। शील कि डुंगरी में शीतला माता का मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी पर वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है। इस कथा को पढ़ने से घर कि दरिद्रता का नाश होने के साथ सभी मनोकामना पुरी होती है।
लोक किंवदंतियों के अनुसार 'बसौड़ा' की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। कहते हैं कि एक बार किसी गांव में गांववासी शीतला माता की पूजा-अर्चना कर रहे थे तो माँ को गांववासियों ने गरिष्ठ भोजन प्रसाद स्वरूप चढ़ा दिया। शीतलता की प्रतिमूर्ति माँ भवानी का गर्म भोजन से मुंह जल गया तो वे नाराज हो गईं और उन्होंने कोप दृष्टि से संपूर्ण गांव में आग लगा दी। केवल एक बुढ़िया का घर सुरक्षित बचा हुआ था। गांव वालों ने जाकर उस बुढ़िया से घर न जलने के बारे में पूछा तो बुढि़या ने माँ शीतला को गरिष्ठ भोजन खिलाने वाली बात कही और कहा कि उन्होंने रात को ही भोजन बनाकर माँ को भोग में ठंडा-बासी भोजन खिलाया, जिससे माँ ने प्रसन्न होकर बुढ़िया का घर जलने से बचा लिया। बुढ़िया की बात सुनकर गांव वालों ने माँ से क्षमा मांगी और 'रंग पंचमी' के बाद आने वाली सप्तमी के दिन उन्हें बासी भोजन खिलाकर माँ का बसौड़ा पूजन किया।
पूजा को विधि विधान के साथ पूर्ण करने पर सभी भक्तों के बीच मां के प्रसाद बसौड़ा को बांटा जाता है इस प्रकार पूजन समाप्त होने पर भक्त माता से सुख शांति की कामना करता है।
शीतला अष्टमी पूजन विधि :-
शीतला अष्टमी पूजन विधि सूर्य ढलने के पश्चात तेल और गुड़ में खाने-पीने की वस्तुएं मीठी रोटी, मीठे चावल, गुलगुले, बेसन एवं आलू आदि की नमकीन पूरियां तैयार की जाती हैं. शीतला माता को अष्टमी के दिन मंदिर में जाकर गाय के कच्चे दूध की लस्सी के साथ सभी चीजों का भोग लगाया जाता है. आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि मीठी रोटी के साथ दही और मक्खन, कच्चा दूध, भिगोए हुए काले चने, मूंग और मोठ आदि प्रसाद रूप में चढ़ाने की परंपरा है.
क्या आप जानते हैं कि मां शीतला को भोग लगाने के बाद मंदिर में बनी विभिन्न पिंडियों समेत शिवलिंग पर कच्ची लस्सी चढ़ाई जाती है. इसी के साथ मां से परिवार की मंगल कामना के लिए प्रार्थना की जाती है.
भगवती शीलता की पूजा का विधान भी अनूठा है | देवी को ठंडा ओर बासी भोजन अर्पित किया जाता है, इसी लिए एक दिन पहले बने भोजन का ही भोग लगाया जाता है| इसी लिए इस उत्सव को बसोड़ा भी कहते है| ऐसी मान्यता है की इस दिन से बासी खाने को खाना बंद कर दिया जाता है, जिस का वैज्ञानिक कारण मौसम में परिवर्तन है| इस समय मौसम थोड़ा गरम भी होना शुरू हो गया होता है इसीलिए बासी खाने से बीमारियों के होने का डर बना रहता है| बासी खाना सिर्फ शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी नुकसान पहुचाता है|
शीतला अष्टमी वैज्ञानिक महत्व:-
किसी त्योहार पर बासी भोजन की परंपरा थोड़ा चकित करने वाली जरूर है लेकिन इसके पीछे तर्क और युक्ति है। दरअसल शीतला सप्तमी पर वसंत ऋतु बीत रही होती है और ग्रीष्म का आगमन होता है तो इस त्योहार पर अंतिम बार बासी भोजन किया जाता है ।
चूंकि गर्मी में भोजन जल्दी ही दूषित हो जाता है इसलिए भूलवश भी बासी भोजन नहीं करना है यह शीतला सप्तमी का पर्व हमें सिखाता है। हमारे सारे ही पर्वों में कुछ न कुछ सीख छिपी थी लेकिन समय के साथ उनके अर्थ थोड़े बदल गए और हमने उनके महत्वों को ठीक तरह से नहीं समझा। अगर हम अपनी परंपराओं में छिपे अर्थों को देखेंगे तो पाएंगे कि हर पर्व का कुछ महत्व है।
शीतला सप्तमी के दिन प्रात:काल में स्त्रियां पूजन के लिए जाती हैं। शीतला माता को बाजरा, जौ, चने और अन्य अन्ना उबालकर उसकी राबड़ी का भोग लगाती हैं। इस अन्ना को देवी को चढ़ाए जाने का भी प्रतीकात्मक महत्व यह है कि अब चूंकि ऋतु बदल गई है तो अपने खानपान में ऐसी ही चीजों को शामिल करना है जो शीतलता दे। शीतला माता को दुग्ध और दही से भी स्नान कराया जाता है और उसके पीछे मान्यता यही है कि देवी की कृपा से पारिवारिक रिश्तों के बीच कभी खटास न आने पाए और संबंध हमेशा सरस बने रहें।
माँ शीतला के स्वरूप से क्या प्रदर्शित होता है?
- कलश, सूप , झाड़ू और नीम के पत्ते इनके हाथ में रहते हैं.
-यह सारी चीज़ें साफ़ सफाई और समृद्धि की सूचक है.
-इनको शीतल और बासी खाद्य पदार्थ चढ़ाया जाता है, जिसको बसौड़ा भी कहते हैं.
-इनको चांदी का चौकोर टुकड़ा जिस पर उनका चित्र उकेरा हो, अर्पित करते हैं.
-अधिकांशतः इनकी उपासना बसंत तथा ग्रीष्म में होती है, जब रोगों के संक्रमण की सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं.
शीतलाष्टमी का वैज्ञानिक आधार क्या है? इसे मनाने के लाभ क्या हैं?
-चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, तथा आषाढ़ की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतलाष्टमी के रूप में मनाया जाता है.
- रोगों के संक्रमण से आम व्यक्ति को बचाने के लिए शीतला अष्टमी मनाई जाती है.
- इस दिन आखिरी बार आप बासी भोजन खा सकते हैं, इसके बाद से बासी भोजन का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए.
- अगर इस दिन के बाद भी बासी भोजन किया जाय तो स्वास्थ्य की समस्याएँ आ सकती हैं.
- यह पर्व गरमी की शुरुआत पर पड़ता है यानी गरमी में आप क्या प्रयोग करें, इस बात की जानकारी आपको मिल सकती है.
- गरमी के मौसम में आपको साफ-सफाई, शीतल जल और एंटीबायोटिक गुणों से युक्त नीम का विशेष प्रयोग करना चाहिए.
बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए किस प्रकार माँ शीतला की उपासना करें?
- माँ शीतला को एक चांदी का चौकोर टुकड़ा अर्पित करें
- साथ में उन्हें खीर का भोग लगाएं
- बच्चे के साथ माँ शीतला की पूजा करें
- चांदी का चौकोर टुकड़ा लाल धागे में बच्चे के गले में धारण करवाएं
अगर सफलता पानी हो तो धैर्य जरूर होना चाहिए। यही हमें बतलाती हैं मां शीतला। सृष्टि में सबसे ज्यादा धैर्यवान गधा इनका वाहन है, जिसे गणेश जी की सर्वाधिक प्रिय दूब बहुत पसंद है। माता शीतला सात बहन हैं- ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा। चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत भी कहा जाता है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इन महीनों में गर्मी शुरू होने लगती है। चेचक आदि की आशंका रहती है। प्रकृति के अनुसार शरीर निरोगी हो, इसलिए भी शीतला अष्टमी व्रत करना चाहिए।
शीतल जल में स्नान करके- ‘मम गेहे शीतलारोग जनितोपद्रव प्रशमनपूर्वकायुरोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमी व्रत करिष्ये’ मंत्र का संकल्प व्रती को करना चाहिए। नैवेद्य में पिछले दिन के बने शीतल पदार्थ- मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल-भात, लपसी और रोटी-तरकारी आदि कच्ची-पक्की आदि चीजें मां को चढ़ानी चाहिए। रात में जागरण और दीये अवश्य जलाने चाहिए।नाभिकमल और हृदयस्थल के बीच विराजमान शीतला देवी अपने वाहन गर्दभ (गधे) पर सवार रहती हैं। स्कन्द पुराण में शीतलाष्टक स्तोत्र है। मान्यता है कि उसकी रचना भगवान शंकर ने की थी।‘वन्देùहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम॥’ अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में झाड़ होने का अर्थ है कि माता को वे लोग ही पसंद हैं, जो सफाई के प्रति जागरूक रहते हैं। कलश में भरे जल से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छ रहने से ही सेहत अच्छी होती है।
इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं। इससे परिवार में दाहज्वर, पीतज्वर, पीड़ा, नेत्रों के समस्त रोग तथा शीतलाजनित दोष समाप्त होते हैं। उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले में सिराथू के पास स्थित कड़ा धाम शीतला माता का बुहत प्रसिद्ध तीर्थ है। उत्तराखंड के काठगोदाम, हरियाणा के गुरुग्राम और गुजरात के पोरबंदर में भी शीतला माता के भव्य मंदिर हैं। गौरतलब है कि गुप्त मनौती माता को बताते वक्त भक्तगण इस मंत्र का बराबर जाप करते रहते हैं- ‘शीतला: तू जगतमाता, शीतला: तू जगतपिता, शीतला: तू जगदात्री, शीतला: नमो नम:॥’
पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शीतला जी की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा जी से ही हुई थी। ब्रह्मा जी ने माता शीतला को धरती पर पूजे जाने के लिए भेजा था। देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं। तब उनके पास दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए कोई स्थान नहीं दिया तो माता शीतला क्रोधित हो गईं।
उसी क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा के शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आए और लोग उस गर्मी से संतप्त हो गए। राजा को अपनी गलती का एहसास होने पर उन्होंने माता शीतला से माफी मांगकर उन्हें उचित स्थान दिया। लोगों ने माता शीतला के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध एवं कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई और माता शांत हुईं। तब से हर साल शीतला अष्टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडे बासी भोजन का प्रसाद मां को चढ़ाने लगे और व्रत करने लगे।
हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है
शीतला अष्टमी को बसौड़ा पूजा भी कहा जाता है। ये होली पर्व के ठीक आठ दिनों बाद मनाई जाती है यानी अष्टमी को। हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है। इसलिए इसे बसौड़ा भी कहते हैं जिसका मतलब होता है बासी भोजन। शीतला माता के हाथ में झाडू और कलश होता है। माता के हाथ में झाडू होने का मतलब लोगों को सफाई के प्रति जागरुक करने से होता है।
हिंदू धर्म शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि कलश में सभी 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास रहता है। यह पर्व एक तरफ से लोगों को सफाई के प्रति जागरूक भी करता है कि व्यक्ति ना सिर्फ खुद को स्वच्छ रखे बल्कि अपने आसपास के वातावरण को भी साफ , सुंदर और स्वच्छ रखे।
माता शीतला देवी की उपासना से सभी तरह के पाप नष्ट हो जाते है। शीतलाष्टमी के एक दिन पहले भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग तैयार किया जाता है। शीतला अष्टमी के दिन माता को प्रसाद चढ़ाया जाता है।
शीतला अष्टमी को लेकर ऐसी मान्यता है कि महिलाएं अपने बच्चों की सलामती, उन्हें हर प्रकार के रोगों से दूर रखने के लिए और घर में सुख समृद्धि के लिए शीतला माता की पूजा करती हैं।कहा जाता है कि जिस घर में शुद्ध मन से शीतला माता की पूजा होती है वहां हर प्रकार से सुख समृद्धि बनी रहती है। बताया जाता है कि जिस घर में चेचक से कोई बीमार हो, उसे ये पूजा नहीं करनी चाहिए।
कैसे करनी चाहिए पूजा
शीतल माता की पूजा करने के बाद बसौड़े के तौर पर मीठे चावल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। कई लोग इस दिन शीतला माता के मंदिर जाकर हल्दी और बाजरे से पूजा भी करते हैं। पूजा के बाद बसौड़ा व्रत कथा कही जाती है। पूजा के बाद परिवार के सभी लोगों को प्रसाद देकर एक दिन पहले बनाया गया बासी भोजन खाया जाता है। स्कंद पुराण में शीतला माता के विषय में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग की देवी हैं, यह हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण किए होती हैं तथा गर्दभ की सवारी किए यह अभय मुद्रा में विराजमान हैं।
शीतला माता के संग ज्वरासुर ज्वर का दैत्य, हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण त्वचा रोग के देवता एवं रक्तवती देवी विराजमान होती हैं इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी। तभी से शीतला माता की अष्टमी को पूजा करने की परंपरा चली आ रही है। कई लोग इस दिन मां का आशीर्वाद पाने और पूरे साल बीमारियों से दूर रखने के लिए उपवास भी करते हैं।
अष्टमी के दिन बासी वस्तुओं का नैवेद्य शीतला माता को अर्पित किया जाता है। इस दिन व्रत उपवास किया जाता है तथा माता की कथा का श्रवण होता है। कथा समाप्त होने पर मां की पूजा अर्चना होती है तथा शीतलाष्टक को पढ़ा जाता है, शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा को दर्शाता है, साथ ही साथ शीतला माता की वंदना उपरांत उनके मंत्र का उच्चारण किया जाता है जो बहुत अधिक प्रभावशाली मंत्र है जो इस प्रकार है-
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्। ।
कथा
यह कथा बहुत पुरानी है। एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है। माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।
शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।
तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।
तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उसबूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत। मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है। इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।
माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।
तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है माता मेरी इच्छा है अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना। उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को कपडे धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़ाकर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।
तब माता बोली तथाअस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु । है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी। शील कि डुंगरी में शीतला माता का मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी पर वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है। इस कथा को पढ़ने से घर कि दरिद्रता का नाश होने के साथ सभी मनोकामना पुरी होती है।
लोक किंवदंतियों के अनुसार 'बसौड़ा' की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। कहते हैं कि एक बार किसी गांव में गांववासी शीतला माता की पूजा-अर्चना कर रहे थे तो माँ को गांववासियों ने गरिष्ठ भोजन प्रसाद स्वरूप चढ़ा दिया। शीतलता की प्रतिमूर्ति माँ भवानी का गर्म भोजन से मुंह जल गया तो वे नाराज हो गईं और उन्होंने कोप दृष्टि से संपूर्ण गांव में आग लगा दी। केवल एक बुढ़िया का घर सुरक्षित बचा हुआ था। गांव वालों ने जाकर उस बुढ़िया से घर न जलने के बारे में पूछा तो बुढि़या ने माँ शीतला को गरिष्ठ भोजन खिलाने वाली बात कही और कहा कि उन्होंने रात को ही भोजन बनाकर माँ को भोग में ठंडा-बासी भोजन खिलाया, जिससे माँ ने प्रसन्न होकर बुढ़िया का घर जलने से बचा लिया। बुढ़िया की बात सुनकर गांव वालों ने माँ से क्षमा मांगी और 'रंग पंचमी' के बाद आने वाली सप्तमी के दिन उन्हें बासी भोजन खिलाकर माँ का बसौड़ा पूजन किया।
पूजा को विधि विधान के साथ पूर्ण करने पर सभी भक्तों के बीच मां के प्रसाद बसौड़ा को बांटा जाता है इस प्रकार पूजन समाप्त होने पर भक्त माता से सुख शांति की कामना करता है।
शीतला अष्टमी पूजन विधि :-
शीतला अष्टमी पूजन विधि सूर्य ढलने के पश्चात तेल और गुड़ में खाने-पीने की वस्तुएं मीठी रोटी, मीठे चावल, गुलगुले, बेसन एवं आलू आदि की नमकीन पूरियां तैयार की जाती हैं. शीतला माता को अष्टमी के दिन मंदिर में जाकर गाय के कच्चे दूध की लस्सी के साथ सभी चीजों का भोग लगाया जाता है. आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि मीठी रोटी के साथ दही और मक्खन, कच्चा दूध, भिगोए हुए काले चने, मूंग और मोठ आदि प्रसाद रूप में चढ़ाने की परंपरा है.
क्या आप जानते हैं कि मां शीतला को भोग लगाने के बाद मंदिर में बनी विभिन्न पिंडियों समेत शिवलिंग पर कच्ची लस्सी चढ़ाई जाती है. इसी के साथ मां से परिवार की मंगल कामना के लिए प्रार्थना की जाती है.
भगवती शीलता की पूजा का विधान भी अनूठा है | देवी को ठंडा ओर बासी भोजन अर्पित किया जाता है, इसी लिए एक दिन पहले बने भोजन का ही भोग लगाया जाता है| इसी लिए इस उत्सव को बसोड़ा भी कहते है| ऐसी मान्यता है की इस दिन से बासी खाने को खाना बंद कर दिया जाता है, जिस का वैज्ञानिक कारण मौसम में परिवर्तन है| इस समय मौसम थोड़ा गरम भी होना शुरू हो गया होता है इसीलिए बासी खाने से बीमारियों के होने का डर बना रहता है| बासी खाना सिर्फ शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी नुकसान पहुचाता है|
शीतला अष्टमी वैज्ञानिक महत्व:-
किसी त्योहार पर बासी भोजन की परंपरा थोड़ा चकित करने वाली जरूर है लेकिन इसके पीछे तर्क और युक्ति है। दरअसल शीतला सप्तमी पर वसंत ऋतु बीत रही होती है और ग्रीष्म का आगमन होता है तो इस त्योहार पर अंतिम बार बासी भोजन किया जाता है ।
चूंकि गर्मी में भोजन जल्दी ही दूषित हो जाता है इसलिए भूलवश भी बासी भोजन नहीं करना है यह शीतला सप्तमी का पर्व हमें सिखाता है। हमारे सारे ही पर्वों में कुछ न कुछ सीख छिपी थी लेकिन समय के साथ उनके अर्थ थोड़े बदल गए और हमने उनके महत्वों को ठीक तरह से नहीं समझा। अगर हम अपनी परंपराओं में छिपे अर्थों को देखेंगे तो पाएंगे कि हर पर्व का कुछ महत्व है।
शीतला सप्तमी के दिन प्रात:काल में स्त्रियां पूजन के लिए जाती हैं। शीतला माता को बाजरा, जौ, चने और अन्य अन्ना उबालकर उसकी राबड़ी का भोग लगाती हैं। इस अन्ना को देवी को चढ़ाए जाने का भी प्रतीकात्मक महत्व यह है कि अब चूंकि ऋतु बदल गई है तो अपने खानपान में ऐसी ही चीजों को शामिल करना है जो शीतलता दे। शीतला माता को दुग्ध और दही से भी स्नान कराया जाता है और उसके पीछे मान्यता यही है कि देवी की कृपा से पारिवारिक रिश्तों के बीच कभी खटास न आने पाए और संबंध हमेशा सरस बने रहें।
माँ शीतला के स्वरूप से क्या प्रदर्शित होता है?
- कलश, सूप , झाड़ू और नीम के पत्ते इनके हाथ में रहते हैं.
-यह सारी चीज़ें साफ़ सफाई और समृद्धि की सूचक है.
-इनको शीतल और बासी खाद्य पदार्थ चढ़ाया जाता है, जिसको बसौड़ा भी कहते हैं.
-इनको चांदी का चौकोर टुकड़ा जिस पर उनका चित्र उकेरा हो, अर्पित करते हैं.
-अधिकांशतः इनकी उपासना बसंत तथा ग्रीष्म में होती है, जब रोगों के संक्रमण की सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं.
शीतलाष्टमी का वैज्ञानिक आधार क्या है? इसे मनाने के लाभ क्या हैं?
-चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, तथा आषाढ़ की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतलाष्टमी के रूप में मनाया जाता है.
- रोगों के संक्रमण से आम व्यक्ति को बचाने के लिए शीतला अष्टमी मनाई जाती है.
- इस दिन आखिरी बार आप बासी भोजन खा सकते हैं, इसके बाद से बासी भोजन का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए.
- अगर इस दिन के बाद भी बासी भोजन किया जाय तो स्वास्थ्य की समस्याएँ आ सकती हैं.
- यह पर्व गरमी की शुरुआत पर पड़ता है यानी गरमी में आप क्या प्रयोग करें, इस बात की जानकारी आपको मिल सकती है.
- गरमी के मौसम में आपको साफ-सफाई, शीतल जल और एंटीबायोटिक गुणों से युक्त नीम का विशेष प्रयोग करना चाहिए.
बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए किस प्रकार माँ शीतला की उपासना करें?
- माँ शीतला को एक चांदी का चौकोर टुकड़ा अर्पित करें
- साथ में उन्हें खीर का भोग लगाएं
- बच्चे के साथ माँ शीतला की पूजा करें
- चांदी का चौकोर टुकड़ा लाल धागे में बच्चे के गले में धारण करवाएं
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