Wednesday, October 24, 2018

शरद पूर्णिमा

आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे 'रास पूर्णिमा' भी कहते हैं। ज्योतिष की मान्यता है कि संपूर्ण वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा षोडश कलाओं का होता है। धर्मशास्त्रों में इस दिन 'कोजागर व्रत' माना गया है। इसी को 'कौमुदी व्रत' भी कहते हैं। रासोत्सव का यह दिन वास्तव में भगवान कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए निर्धारित किया है, क्योंकि कहा जाता है इस रात्रि को चंद्रमा की किरणों से सुधा झरती है। इस दिन श्री कृष्ण को 'कार्तिक स्नान' करते समय स्वयं (कृष्ण) को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को चीर हरण के अवसर पर दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरलीवादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था। इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा-पूजन किया जाता है।




शरद पूर्णिमा से ही स्नान और व्रत प्रारम्भ हो जाता है। माताएं अपनी संतान की मंगल कामना से देवी-देवताओं का पूजन करती हैं। इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के अत्यंत समीप आ जाता है। कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारम्भ होता है। विवाह होने के बाद पूर्णिमा (पूर्णमासी) के व्रत का नियम शरद पूर्णिमा से लेना चाहिए। शरद ऋतु में मौसम एकदम साफ़ रहता है। इस दिन आकाश में न तो बादल होते हैं। और न ही धूल-गुबार। इस रात्रि में भ्रमण और चंद्रकिरणों का शरीर पर पड़ना बहुत ही शुभ माना जाता है। प्रति पूर्णिमा को व्रत करने वाले इस दिन भी चंद्रमा का पूजन करके भोजन करते हैं। इस दिन शिव-पार्वती और कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है। यही पूर्णिमा कार्तिक स्नान के साथ, राधा-दामोदर पूजन व्रत धारण करने का भी दिन है।

शरद पूर्णिमा की कथा

एक साहूकार की दो पुत्रियां थीं। वे दोनों पूर्णमासी का व्रत करती थीं। बड़ी बहन तो पूरा व्रत करती थी पर छोटी बहन अधूरा। छोटी बहन के जो भी संतान होती, वह जन्म लेते ही मर जाती। परन्तु बड़ी बहन की सारी संतानें जीवित रहतीं। एक दिन छोटी बहन ने बड़े-बड़े पण्डितों को बुलाकर अपना दु:ख बताया तथा उनसे कारण पूछा। पण्डितों ने बताया-'तुम पूर्णिमा का अधूरा व्रत करती हो, इसीलिए तुम्हारी संतानों की अकाल मृत्यु हो जाती है। पूर्णिमा का विधिपूर्वक पूर्ण व्रत करने से तुम्हारी संतानें जीवित रहेंगी।' तब उसने पण्डितों की आज्ञा मानकर विधि-विधान से पूर्णमासी का व्रत किया। कुछ समय बाद उसके लड़का हुआ, लेकिन वह भी शीघ्र ही मर गया। तब उसने लड़के को पीढ़े पर लेटाकर उसके ऊपर कपड़ा ढक दिया। फिर उसने अपनी बड़ी बहन को बुलाया और उसे वही पीढ़ा बैठने को दे दिया। जब बड़ी बहन बैठने लगी तो उसके वस्त्र बच्चे से छूते ही लड़का जीवित होकर रोने लगा। तब क्रोधित होकर बड़ी बहन बोली-'तू मुझ पर कलंक लगाना चाहती थी। यदि मैं बैठ जाती तो लड़का मर जाता।' तब छोटी बहन बोली-' यह तो पहले से ही मरा हुआ था। तेरे भाग्य से जीवित हुआ है। हम दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती हैं तू पूरा करती है और मैं अधूरा, जिसके दोष से मेरी संतानें मर जाती हैं। लेकिन तेरे पुण्य से यह बालक जीवित हुआ है।' इसके बाद उसने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज से सभी पूर्णिमा का पूरा व्रत करें, यह संतान सुख देने वाला है।



शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा हमारी धरती के बहुत करीब होता है. इसलिए चंद्रमा के प्रकाश में मौजूद रासायनिक तत्व सीधे-सीधे धरती पर गिरते हैं. खाने-पीने की चीजें खुले आसमान के नीचे रखने से चंद्रमा की किरणे सीधे उन पर पड़ती है जिससे विशेष पोषक तत्व खाद्य पदार्थों में मिल जाते हैं जो हमारी सेहत के लिए अनुकूल होते हैं।

रोगियों के लिए वरदान हैं शरद पूर्णिमा की रात

शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।

लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।

अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है।

शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है।

वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा की रात दमा रोगियों के लिए वरदान बनकर आती है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है।



 कुछ महत्वपूर्ण  बातें-

1- आपकी आंखों  की रोशनी कम हो रही है तो नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक प्रतिदिन रात्रि में 15 से 20 मिनट तक चन्द्रमा को देखकर एकटक देखें।

2- आपकी इन्द्रियां अगर शिथिल हो गई हैं तो उन्हें पुष्ट करने के लिए चन्द्रमा की चांदनी में रखी खीर खानी चाहिए। इससे इन्द्रियां पुन: ऊर्जावान हो जाती हैं।

3- शरद पूर्णिमा के दिन चंद्र देव और मां लक्ष्मी को भोग लगाने के बाद वैद्यराज अश्विनी कुमारों से प्रार्थना करना चाहिए कि हमारी इन्द्रियों का तेज-ओज बढ़ाएं।

4- अस्थमा के मरीजों के लिए शरद पूर्णिमा वरदान की रात होती है। इस दिन रात को सोना नहीं चाहिए। चांदनी में रखी खीर का सेवन करने से दमे का दम निकल जाएगा।

5- पूर्णिमा और अमावस्या पर चन्द्रमा के विशेष प्रभाव से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। जब चन्द्रमा इतने बड़े समुद्र में उथल-पुथल कर उसे कंपायमान कर देता है तो जरा सोचिए कि हमारे शरीर में जो जलीय अंश है। सप्तधातुएं हैं और सप्त रंग हैं उन पर चन्द्रमा का कितना गहरा प्रभाव डालेगा।

6- शरद पूर्णिमा के दिन अगर आप काम-विलास में लिप्त रहें तो विकलांग संतान अथवा जानलेवा बीमारी होती है। इसलिए इससे दूर रहना चाहिए।

7- शरद पूर्णिमा पर पूजा, मंत्र, भक्ति, उपवास, व्रत आदि करने से शरीर तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि आलोकित होती है।

8- शरद पूर्णिका की रात को चंद्रमा की रोशनी में सूई में धागा पिरोने का अभ्यास करने से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है।


कैसे मनाएँ

इस रात को चंद्रमा अपनी पूरी सोलह कलाओं के प्रदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं। शरद पूर्णिमा को कोजागरी या कोजागर पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात को माता लक्ष्मी स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर आती हैं और जागृति करती हैं। इस रात महालक्ष्मी को जो भी व्यक्ति जागते हुए दिखाई देता है और पूजा ध्यान में लगा हुआ होता है उन्हें देवी लक्ष्मी की कृपा मिलती है। शरद पूर्णिमा की रात को जब चारों ओर चांद की रोशनी बिखरी हुई होती है, तो उस समय मां लक्ष्मी का पूजन करने से व्यक्ति को धन लाभ होता है। शरद पूर्णिमा की रात में भगवान शिव को खीर का भोग लगाएं। खीर को पूर्णिमा वाली रात को छत पर रखें। भोग लगाने के बाद खीर का प्रसाद ग्रहण करें। इस उपाय से कभी भी पैसे की कमी नहीं रहेगी। शरद पूर्णिमा की रात में हनुमानजी के सामने चौमुखा दीपक जलाएं। इसके लिए आप मिट्टी का एक दीपक लें और उसमें तेल या घी भरें।



इस दिन प्रात: काल स्नान करके आराध्य देव को सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन, आसान, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए।

इन्द्र और महालक्ष्मी जी का पूजन करके घी के दीपक जलाकर उसकी गन्ध पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए।

रात्रि के समय गौदुग्ध (गाय के दूध) से बनी खीर में घी तथा चीनी मिलाकर अर्द्धरात्रि के समय भगवान को अर्पण (भोग लगाना) करना चाहिए।

पूर्ण चंद्रमा के आकाश के मध्य स्थित होने पर उनका पूजन करें तथा खीर का नैवेद्य अर्पण करके, रात को खीर से भरा बर्तन खुली चांदनी में रखकर दूसरे दिन उसका भोजन करें तथा सबको उसका प्रसाद दें।

पूर्णिमा का व्रत करके कथा सुनानी चाहिए। कथा सुनने से पहले एक लोटे में जल तथा गिलास में गेहूं, पत्ते के दोनों में रोली तथा चावल रखकर कलश की वंदना करके दक्षिणा चढ़ाए। फिर तिलक करने के बाद गेहूं के 13 दाने हाथ में लेकर कथा सुनें। फिर गेहूं के गिलास पर हाथ फेरकर मिश्राणी के पांव स्पर्श करके गेहूं का गिलास उन्हें दे दें। लोटे के जल का रात को चंद्रमा को अर्ध्य दें।

ब्राह्माणों को खीर का भोजन कराना चाहिए और उन्हें दान दक्षिणा प्रदान करनी चाहिए

रात को चन्द्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन करना चाहिए  

मंदिर में खीर आदि दान करने का विधि-विधान है. ऐसा माना जाता है कि इस दिन चांद की चांदनी से अमृत बरसता है।


धनवान व्यक्ति ताँबे अथवा मिट्टी के कलश पर वस्त्र से ढँकी हुई स्वर्णमयी लक्ष्मी की प्रतिमा को स्थापित करके भिन्न-भिन्न उपचारों से उनकी पूजा करें, तदनंतर सायंकाल में चन्द्रोदय होने पर सोने, चाँदी अथवा मिट्टी के घी से भरे हुए १०० दीपक जलाए। इसके बाद घी मिश्रित खीर तैयार करे और बहुत-से पात्रों में डालकर उसे चन्द्रमा की चाँदनी में रखें। जब एक प्रहर (३ घंटे) बीत जाएँ, तब लक्ष्मीजी को सारी खीर अर्पण करें। तत्पश्चात भक्तिपूर्वक सात्विक ब्राह्मणों को इस प्रसाद रूपी खीर का भोजन कराएँ और उनके साथ ही मांगलिक गीत गाकर तथा मंगलमय कार्य करते हुए रात्रि जागरण करें। तदनंतर अरुणोदय काल में स्नान करके लक्ष्मीजी की वह स्वर्णमयी प्रतिमा आचार्य को अर्पित करें। इस रात्रि की मध्यरात्रि में देवी महालक्ष्मी अपने कर-कमलों में वर और अभय लिए संसार में विचरती हैं और मन ही मन संकल्प करती हैं कि इस समय भूतल पर कौन जाग रहा है? जागकर मेरी पूजा में लगे हुए उस मनुष्य को मैं आज धन दूँगी।




इस प्रकार प्रतिवर्ष किया जाने वाला यह कोजागर व्रत लक्ष्मीजी को संतुष्ट करने वाला है। इससे प्रसन्न हुईं माँ लक्ष्मी इस लोक में तो समृद्धि देती ही हैं और शरीर का अंत होने पर परलोक में भी सद्गति प्रदान करती हैं।

इस दिन पूजा करने का विशेष लाभ मिलता है। इसके साथ ही मान्यता है कि इस दिन माता लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू में सवार होकर धरती में आती है। माता यह देखती है उनका कौन भक्त रात में जागकर उनकी भक्ति कर रहा है। माना जाता है जो भक्त इस रात में जागकर मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना करते हैं मां लक्ष्मी की उन पर अवश्य ही कृपा होती है।

अगर आप भी चाहते है कि मां भी आपके ऊपर अपनी कृपा बरसाएं। जिससे कि आपके सभी काम हो और आपका भाग्य चमक जाएं, तो इस दिन रात के समय इस मंत्र का जाप करें।

सबसे पहले इस दिन रात को चंद्रमा का दर्शन करके चांदी के बर्तन में दूध और मिश्री लेकर भोग लगाएं और फिर रातभर इस मंत्र का जाप

"पुत्रपौत्रं धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम् प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे।"



Monday, October 1, 2018

महालक्ष्मी व्रत

महालक्ष्मी व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन प्रदोष काल में मनाए जाने का विधान है। धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन हाथी पर सवार देवी गजलक्ष्मी के पूजन का विधान है। शस्त्रानुसार यह पर्व देवी गजलक्ष्मी की कृपा पाने के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन किए गए पूजन, उपाय, अनुष्ठान व टोटकों का संपूर्ण फल प्राप्त होता है। मान्यता है की जिस घर की महिलाएं इस कथा को पढ़ती या सुनती है, उस घर का चिराग सदा रोशन रहता है।



विधि  

यह व्रत आश्विन (क्वांर) कृष्ण पक्ष की अष्टमी को किया जाता है। इस व्रत को करने से पहले भादो शुक्ल अष्टमी को स्नान करके दो दूने से सकोरे में ज्वारे (गेहूं) बोये जाते हैं। प्रतिदिन 16 दिनों तक इन्हें पानी से सींचा जाता है। ज्वारे बोने के दिन ही कच्चे सूत (धागे) से 16 तार का एक डोरा बनाएं। डोरे की लंबाई इतनी लें कि आसानी से गले में पहन सकें। इस डोरे में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर 16 गठानें लगाएं तथा हल्दी से पीला करके पूजा के स्थान पर रख दें तथा प्रतिदिन 16 दूब और 16 गेहूं चढ़ाकर पूजन करें। 

आश्विन (क्वांर) कृष्ण पक्ष (बिदी) की अष्टमी के दिन उपवास (व्रत) रखें। स्नान के बाद पूर्ण श्रृंगार करें। 18 मुट्ठी गेहूं के आटे से 18 मीठी पूड़ी बनाएं। आटे का एक दीपक बनाकर 16 पु‍ड़ियों के ऊपर रखें तथा दीपक में एक घी-बत्ती रखें, शेष दो पूड़ी महालक्ष्मीजी को चढ़ाने के लिए रखें। पूजन करते समय इस दीपक को जलाएं तथा कथा पूरी होने तक दीपक जलते रखना चाहिए। अखंड ज्योति का एक और दीपक अलग से जलाकर रखें। पूजन के पश्चात इन्हीं 16 पूड़ी को बियें (सिवैंया) की खीर या मीठे दही से खाते हैं। इस व्रत में नमक नहीं खाते हैं। इन 16 पूड़ी को पति-पत्नी या पुत्र ही खाएं, अन्य किसी को नहीं दें। 



मिट्टी का एक हाथी बनाएं या कुम्हार से बनवा लें जिस पर महालक्ष्मीजी की मूर्ति बैठी हो। सायंकाल जिस स्थान पर पूजन करना हो, उसे गोबर से लीपकर पवित्र करें। रंगोली बनाकर बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर हाथी को रखें। तांबे का एक कलश जल से भरकर पटे के सामने रखें। एक थाली में पूजन की सामग्री (रोली, गुलाल, अबीर, अक्षत, आंटी (लाल धागा), मेहंदी, हल्दी, टीकी, सुरक्या, दोवड़ा, दोवड़ा, लौंग, इलायची, खारक, बादाम, पान, गोल सुपारी, बिछिया, वस्त्र, फूल, दूब, अगरबत्ती, कपूर, इत्र, मौसम का फल-फूल, पंचामृत, मावे का प्रसाद आदि) रखें। केल के पत्तों से झांकी बनाएं। संभव हो सके तो कमल के फूल भी चढ़ाएं। पटे पर 16 तार वाला डोरा एवं ज्वारे रखें। विधिपूर्वक महालक्ष्मीजी का पूजन करें तथा कथा सुनें एवं आरती करें। इसके बाद डोरे को गले में पहनें अथवा भुजा से बांधें।

भोजन के पश्चात रात्र‍ि जागरण तथा भजन-कीर्तन करें। दूसरे दिन प्रात:काल हाथी को जलाशय में विसर्जन करके सुहाग-सामग्री ब्राह्मण को दें।

उद्यापन विधि 

सामान्यत: यह व्रत 16 वर्षों तक किया जाता है। उसके उपरांत ही व्रत का उद्यापन (उजोवना)
किया जाता है। किंतु श्री महालक्ष्मी की असीम कृपा से मनोकामना शीघ्र पूरी हो जाए तो कम समय में भी उद्यापन किया जा सकता है। लेकिन व्रत को 16 वर्षों तक ही पूरे करना चाहिए। यदि परिस्थितिवश 16 वर्ष के बाद उद्यापन नहीं कर सकें, तो व्रत को आगे भी किया जाता रहे, जब तक कि उद्यापन न हो।

किसी श्रेष्ठ विद्वान पंडित के द्वारा हवन-पूजन कराएं। पूजन की तैयारी उपरोक्त लिखी विधि के अनुसार करें। कथा सुनें, आरती करें तथा 16 जोड़ों को भोजन कराएं। पूजन के समय मिट्टी से बनाई गई मूर्ति को बिठाएं तथा ज्वारे के सामने 17 नारियल और सुहाग पूड़े की 17 टोकरी रखें जिसमें सुहाग की समस्त वस्तुएं एवं ब्लाउज पीस व रुपए रखें। इनमें से एक टोकरी श्री महालक्ष्मीजी को चढ़ाएं, इसके साथ साड़ी-ब्लाउज, पेटीकोट (सरोपाव) एवं भगवान के नाम की धोती-कुर्ता भी रखें। इनका संकल्प लें।

16 जोड़ों को भोजन कराने के पश्चात पुरुषों को पूजन में रखे गए नारियल के साथ रुपया रखकर तिलक करके दें। स्त्रियों को सुहाग पूड़ा दक्षिणा के रूप में दें। प‍ंडित को धोती-कुर्ता व दक्षिणा दें।

सबको भोजन कराने के बाद स्वयं मीठी पूड़ी, खीर या दही से खाएं। इस दिन भी नमक नहीं खाएं। रात्रि जागरण, भजन-कीर्तन करें। अखंड ज्योति जल्दी रहना चाहिए। प्रात:काल हाथी एवं फूल-पत्ते आदि को जलाशय में विसर्जन करें। इसके बाद शेष बचा हुआ सुहाग पूड़ा, लक्ष्मीजी को चढ़ाए गए वस्त्र एवं नारियल, धोती-कुर्ता अपने सास-ससुर अथवा ननद-ननदोई अथवा जेठ-जेठानी अथवा किसी बड़े को देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।

महालक्ष्मी व्रत कथा

महालक्ष्मी व्रत पौराणिक काल से मनाया जा रहा है। शास्त्रानुसार महाभारत काल में जब महालक्ष्मी पर्व आया। उस समय हस्तिनापुर की महारानी गांधारी ने देवी कुन्ती को छोड़कर नगर की सभी स्त्रियों को पूजन का निमंत्रण दिया। गांधारी के 100 कौरव पुत्रों ने बहुत सी मिट्टी लाकर सुंदर हाथी बनाया व उसे महल के मध्य स्थापित किया। जब सभी स्त्रियां पूजन हेतु गांधारी के महल में जाने लगी। इस पर देवी कुन्ती बड़ी उदास हो गई। इस पर अर्जुन ने कुंती से कहा हे माता! आप लक्ष्मी पूजन की तैयारी करें, मैं आपके लिए जीवित हाथी लाता हूं। अर्जुन अपने पिता इंद्र से स्वर्गलोक जाकर ऐरावत हाथी ले आए। कुन्ती ने सप्रेम पूजन किया। जब गांधारी व कौरवों समेत सभी ने सुना कि कुन्ती के यहां स्वयं एरावत आए हैं तो सभी ने कुंती से क्षमा मांगकर गजलक्ष्मी के ऐरावत का पूजन किया। शास्त्रनुसार इस व्रत पर महालक्ष्मी को 16 पकवानों का भोग लगाया जाता है। सोलह बोल की कथा 16 बार कहे जाने का विधान है व कथा के बाद चावल या गेहूं छोड़े जाते हैं। 


सोलह बोल की कथा:"अमोती दमो तीरानी, पोला पर ऊचो सो परपाटन गांव जहां के राजा मगर सेन दमयंती रानी, कहे कहानी। सुनो हो महालक्ष्मी देवी रानी, हम से कहते तुम से सुनते सोलह बोल की कहानी॥"


Monday, September 24, 2018

पितृ-पक्ष

हिंदू धर्म में वैदिक परंपरा के अनुसार अनेक रीति-रिवाज़, व्रत-त्यौहार व परंपराएं मौजूद हैं। हिंदूओं में जातक के गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक अनेक प्रकार के संस्कार किये जाते हैं। अंत्येष्टि को अंतिम संस्कार माना जाता है। लेकिन अंत्येष्टि के पश्चात भी कुछ ऐसे कर्म होते हैं जिन्हें मृतक के संबंधी विशेषकर संतान को करना होता है। श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है। वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को श्राद्ध कर्म किया जा सकता है लेकिन भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इसलिये अपने पूर्वज़ों को के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के इस पर्व को श्राद्ध कहते हैं।



पितृ पक्ष का महत्व

पौराणिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है कि देवपूजा से पहले जातक को अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिये। पितरों के प्रसन्न होने पर देवता भी प्रसन्न होते हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीवित रहते हुए घर के बड़े बुजूर्गों का सम्मान और मृत्योपरांत श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। इसके पिछे यह मान्यता भी है कि यदि विधिनुसार पितरों का तर्पण न किया जाये तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में भटकती रहती है। पितृ पक्ष को मनाने का ज्योतिषीय कारण भी है। ज्योतिषशास्त्र में पितृ दोष काफी अहम माना जाता है। जब जातक सफलता के बिल्कुल नज़दीक पंहुचकर भी सफलता से वंचित होता हो, संतान उत्पत्ति में परेशानियां आ रही हों, धन हानि हो रही हों तो ज्योतिषाचार्य पितृदोष से पीड़ित होने की प्रबल संभावनाएं बताते हैं। इसलिये पितृदोष से मुक्ति के लिये भी पितरों की शांति आवश्यक मानी जाती है।

किस दिन करें पूर्वज़ों का श्राद्ध

वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या को पितरों की शांति के लिये पिंड दान या श्राद्ध कर्म किये जा सकते हैं लेकिन पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व अधिक माना जाता है। पितृ पक्ष में किस दिन पूर्वज़ों का श्राद्ध करें इसके लिये शास्त्र सम्मत विचार यह है कि जिस पूर्वज़, पितर या परिवार के मृत सदस्य के परलोक गमन की तिथि याद हो तो पितृपक्ष में पड़ने वाली उक्त तिथि को ही उनका श्राद्ध करना चाहिये। यदि देहावसान की तिथि ज्ञात न हो तो आश्विन अमावस्या को श्राद्ध किया जा सकता है इसे सर्वपितृ अमावस्या भी इसलिये कहा जाता है। समय से पहले यानि जिन परिजनों की किसी दुर्घटना अथवा सुसाइड आदि से अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। पिता के लिये अष्टमी तो माता के लिये नवमी की तिथि श्राद्ध करने के लिये उपयुक्त मानी जाती है।

कैसे करें श्राद्ध

पहले यम के प्रतीक कौआ, कुत्ते और गाय का अंश निकालें (इसमें भोजन की समस्त सामग्री में से कुछ अंश डालें) फिर किसी पात्र में दूध, जल, तिल और पुष्प लें। कुश और काले तिलों के साथ तीन बार तर्पण करें। ऊं पितृदेवताभ्यो नम: पढ़ते रहें।

बाएं हाथ में जल का पात्र लें और दाएं हाथ के अंगूठे को पृथ्वी की तरफ करते हुए उस पर जल डालते हुए तर्पण करते रहें। वस्त्रादि जो भी आप चाहें पितरों के निमित निकाल कर दान कर सकते हैं।

यदि ये सब न कर सकें तो

दूरदराज में रहने वाले, सामग्री उपलब्ध नहीं होने, तर्पण की व्यवस्था नहीं हो पाने पर एक सरल उपाय के माध्यम से पितरों को तृप्त किया जा सकता है। दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके खड़े हो जाइए। अपने दाएं हाथ के अंगूठे को पृथ्वी की ओर करिए। 11 बार पढ़ें..ऊं पितृदेवताभ्यो नम:। ऊं मातृ देवताभ्यो नम: ।

क्या न करें

  • तेल और साबुन का प्रयोग न करें ( जिस दिन श्राद्ध हो)
  • शेविंग न करें
  • जहां तक संभव हो, नए वस्त्र न पहनें
  • तामसिक भोजन न करें। तामसिक होने के कारण ही इनको निषिद्ध किया गया है।

यह भी ध्यान रखें

  • पुरुष का श्राद्ध पुरुष को, महिला का श्राद्ध महिला को दिया जाना चाहिए
  • यदि पंडित उपलब्ध नहीं हैं तो श्राद्ध भोजन मंदिर में या गरीब लोगों को दे सकते हैं
  • यदि कोई विषम परिस्थिति न हो तो श्राद्ध को नहीं छोड़ना चाहिए। हमारे पितृ अपनी मृत्यु तिथि को श्राद्ध की अपेक्षा करते हैं। इसलिए यथा संभव उस तिथि को श्राद्ध कर देना चाहिए।
  • यदि तिथि याद न हो और किन्हीं कारणों से नहीं कर सकें तो पितृ अमावस्य़ा को अवश्य श्राद्ध कर देना चाहिए।

पितरों की शांति के लिए यह भी करें

एक माला प्रतिदिन ऊं पितृ देवताभ्यो नम: की करें
ऊं नमो भगवते वासुदेवाय नम: का जाप करते रहें
भगवद्गीता या भागवत का पाठ भी कर सकते हैं ।

पितृ दोष प्रबल हो तो यह भी करें उपाय

यदि कुंडली में प्रबल पितृ दोष हो तो पितरों का तर्पण अवश्य करना चाहिए। तर्पण मात्र से ही हमारे पितृ प्रसन्न होते हैं। वे हमारे घरों में आते हैं और हमको आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यदि कुंडली में पितृ दोष हो तो इन सोलह दिनों में तीन बार एक उपाय करिए। सोलह बताशे लीजिए। उन पर दही रखिए और पीपल के वृक्ष पर रख आइये। इससे पितृ दोष में राहत मिलेगी। यह उपाय पितृ पक्ष में तीन बार करना है।

Monday, September 17, 2018

Lord Vishwakarma

Vishwakarma Puja is celebrated on the day of Bhadra Sankranti which is the last day of the Bengali month Bhadra. It usually falls on 17th September every year.  Lord Vishwakarma is remembered on the day of Vishwakarma Puja. The occasion is also known as Vishwakarma Jayanti. It is celebrated with tremendous devotion throughout the length and breadth of the country including states like Uttar Pradesh, Bihar, Jharkhand, Madhya Pradesh, Odisha, Rajasthan, Gujarat, Karnataka, Assam, West Bengal, and Tripura.



Lord Vishwakarma is considered as the divine engineer and the principal architect of the Universe. Hindus consider him as a God and believe that He is a divine architect of the Universe. He is the chief deity of all architects and engineers. He is considered as swayambhu and creator of the world. He constructed the holy city of Dwarka where Krishna ruled, the Maya Sabha of the Pandavas, and was the creator of many fabulous weapons for the gods. He is also called the divine carpenter, is mentioned in the Rig Veda, and is credited with Sthapatya Veda, the science of mechanics and architecture. He is also the creator of many fabulous weapons for the “Devtas”.

Lord Vishwakarma is mentioned in the Rig Vedas and credited with “Sthapatya Veda,” the science of mechanics, engineering, and architecture. He was born to Vasu Prabhasa and Yoga Siddha.
His wife’s name was Gayatri Devi. He is believed to have emerged during Samudra Manthan. He adorns gold jewelry and a crown. In his hands, he holds a water pot, book, craftsman’s tools, and a noose.

Why is Vishwakarma Puja celebrated?


Vishwakarma Puja is celebrated to worship Lord Vishwakarma. He is the chief architect and engineer of the Gods. Vishwakarma Ji knows as the creation of many mythological cities and weapons. He is immensely popular among Hindus. All professionals including craftsmen and workers worship Him on his birthday and celebrate this day as Vishwakarma Puja.

As Lord Vishwakarma is the God of Engineering and Architecture; in factories, workshops, and industries performs Vishwakarma Puja. All professionals including craftsmen, workers, engineers, architects, celebrate the festival with great devotion, joy, and enthusiasm.

Lord Vishwakarma bestows his special blessings on persons who worship him on this day. He grants them with knowledge, working skills, and efficiency so that they may excel in their field.
With the help of the Vishwakarma Puja, machinery and equipment are kept in excellent conditions and industries flourish with his blessings. Normally, on this day, after Vishwakarma Puja, machines are allowed to rest and the holiday is declared for workers.

A statue or picture of Lord Vishwakarma is placed in the factory on this day. All workers gather at one place and offer prayers to Lord Vishwakarma. Gifts are distributed to workers.

How to Perform Vishwakarma Puja?


Ideally, every professional should perform Vishwakarma Puja so that the Lord Vishwakarma bless them and they may attain professional excellence. The Vishwakarma Puja ensures that the coming year will pass without any major technical problem.
Pre-preparations

First, you should arrange an idol of Lord Vishwakarma for the puja celebrations. If you are not able to procure an idol of Lord Vishwakarma, then you must get an image or picture of Lord Vishwakarma.

Apart from this, you should also contact a priest who can perform Vishwakarma Puja. The priest will tell you the items that required at the time of puja. Make sure that you have all the items ready for the Vishwakarma Puja Day.

You must also ensure that the factory is cleaned well before the Puja begins. Especially, the place where you have to place Lord Vishwakarma idol and that place should be washed and cleaned thoroughly before the placement of idol. The machines should be kept in perfect condition. You should also try to decorate the factory premises.

The Puja Muhurat

You must consult with your priest about Puja Muhurat. You must make sure that all the preparations are done before the Puja Muhurat so that puja and celebrations can go ahead without any hindrance. You must announce the puja timings to your workers and make sure that they are present before the puja starts.

The Puja Rituals

The priest performs the Vishwakarma Puja. Aarti is sung, and mantras are chanted. Some of the most sacred Vishwakarma Puja mantras include:

!! Om Aadhaar Shaktapey Namaha!!
!! Om Kumayi Namaha!!
!! Om Anantam Namaha!!
!! Prithviyayi Namaha!!

After puja ceremony, Prasadam is distributed to all the workers. Lunch is organized in the factory area.

Post Procedures

The idol of Lord Vishwakarma should be kept overnight along with the things that were used during the puja. An “Akhand Diya” is lit beside the idol or image of Lord Vishwakarma. On the next day, Visarjan Ceremony is performed, and all the puja items are immersed in a nearby water body.

Wednesday, September 12, 2018

Ganesh Chaturthi

Ganesh Chaturthi or "Vinayak Chaturthi" is one of the major traditional festivals celebrated by the Hindu community. It is observed in the Hindu calendar month of Bhadrapada, starting on the shukla chaturthi (fourth day of the waxing moon period). The festival lasts for 10 days, ending on Ananta Chaturdashi, and is traditionally celebrated as the birthday of Lord Ganesha.





According to Hindu mythology, Lord Ganesha is the son of Shiva (The God of Destruction in the Hindu Holy Trinity of Creator-Preserver-Destroyer) and Parvati (Shiva’s consort). The cutest and most lovable Indian God, Ganesha or Ganpati has the head of an elephant on which rests an elegant tiara, four podgy hands joined to a sizeable belly with each hand holding its own symbolic object - a trishul or a trident in one, an ankush or goad (made from his very own broken tooth) in another, a lotus in the third and a rosary (which is sometimes replaced by modaks, his favourite sweet) in the fourth. Revered as the deity of auspiciousness and wisdom, Lord Ganesha is also famous for being a trickster and for his profound sense of humour.

It is believed that Lord Ganesh was born on a fourth day (chaturthi) of the bright fortnight of the Hindu lunar month of Magh. Since then, an association between Ganesh and chaturthi has been established. Thus the festival dedicated to the worship of Lord Ganesha on this chaturthi day is named as Ganesh Chaturthi.

There is a curiously interesting tale about the birth of Ganesha. It is believed that once while Parvati was bathing, she created a human figure from some unguent and balm, gave him life and asked him to guard the door while she bathed. After a long period of meditation on Mountain Kailash (Lord Shiva’s abode), Shiva chose that very moment to drop by to see his better half, but was abruptly stopped by the man-god Parvati had posted at the door. Outraged by the cheek of this stranger, Shiva cut off his head only to discover moments later that he had killed Parvati’s son! For fear of enraging his wife, Shiva immediately dispatched his ganas (attendants) to get him the head of the first living creature they could find. Well, the first living creature happened to be an elephant. As instructed, the head was chopped off and brought back to Shiva, who placed it on Parvati’s son’s body, bringing him back to life. This elephant-headed god was welcomed into the first family of the Hindu heavens and named Ganesha or Ganapati, which literally means the chief of the ganas, or the attendants of Shiva. Ganesha is the foremost god of the Hindu pantheon. This brave guardian of the door to Parvati’s bath is beheld today as the most auspicious God of new beginnings. He is worshipped during every festival and before people undertake a journey or embark upon a new venture. You will also see him carefully guarding entrances to temples and homes, peeping out of calendars and happily gracing marriages and other such occasions.

It is not known when and how Ganesh Chaturthi was first celebrated. But according to the historian Shri Rajwade, the earliest Ganesh Chaturthi celebrations can be traced back to the times of the reigns of dynasties as Satavahana, Rashtrakuta and Chalukya. Historical records reveal that Ganesh Chaturthi celebrations were initiated in Maharashtra by Chatrapati Shivaji Maharaja, the great Maratha ruler, to promote culture and nationalism. And it had continued ever since. There are also references in history to similar celebrations during Peshwa times. It is believed that Lord Ganapati was the family deity of the Peshwas. After the end of Peshwa rule, Ganesh Chaturthi remained a family affair in Maharashtra from the period of 1818 to 1892.

1857 was a landmark year for India and moreso in the context of Indian freedom. It was the year of Sepoy Mutiny, an armed rebellion against the ruling British Empire by the Indian soldiers. This was the first war that India waged to gain back her independence from her white rulers. Though unsuccesful, this battle marked the beginning of the Indian struggle for independence. Many orators, leaders and freedom fighters all over India teamed to put up a united resistance to the British domination. One of these eminent leaders was Bal Gangadhar Tilak, an Indian nationalist, social reformer and freedom fighter. Greatly esteemed by the Indian people, especially of Maharashtra, Tilak was commonly referred to as "Lokmanya" or "he who is regarded by the people". It was Tilak, who brought back the tradition of Ganesh Chaturthi and reshaped the annual Ganesh festival from private family celebrations into a grand public event.

Lokamanya saw how Lord Ganesha was worshipped by the upper stratum as well as the rank and file of India. The visionary that he was, Tilak realized the cultural importance of this deity and popularised Ganesha Chaturthi as a National Festival "to bridge the gap between the Brahmins and the non-Brahmins and find an appropriate context in which to build a new grassroots unity between them" in his nationalistic strivings against the British in Maharashtra. He knew that India couldn't fight her rulers until she solved the differences within her own. Hence, to unite all social classes Tilak chose Ganesha as a rallying point for Indian protest against British rule because of his wide appeal as "the god for Everyman".

It was around 1893, during the nascent stages of Indian nationalism, that Tilak began to organize the Ganesh Utsav as a social and religious function. He was the first to put in large public images of Ganesha in pavilions and establish the tradition of their immersion on the tenth day. The festival facilitated community participation and involvement in the form of learned discourses, dance dramas, poetry recital, musical concerts, debates, etc. It served as a meeting place for common people of all castes and communities, at a time when all social and political gatherings were forbidden by the British Empire for fear of conspiracies to be hatched against them. An important festival during the Peshwa era, Ganesha Chaturthi acquired at this time a more organized form all over India largely due to Lokmanya's efforts.

Since then, Ganesh Chaturthi has been celebrated throughout Maharashtra as also in other states with great community enthusiasm and participation. With the independence of India in 1947, it was proclaimed to be a national festival.

Today, Ganesh Chaturthi is celebrated in the states of Maharashtra, Tamil Nadu, Karnataka and Andhra Pradesh and many other parts of India. The festival is so popular that the preparations begin months in advance. Days before the actual worship, homes are cleaned and marquees erected at street corners to house the idols of the Lord. Elaborate arrangements are made for lighting, decoration, mirrors and flowers. The artisans who make the idols of Ganesh vie with each other to make bigger and better sculptures. The sizes of the relatively larger ones range anywhere from 10 meters to 30 meters in height. These are installed in marquees and in homes prior to the Puja (worship). During the festival days, the Lord is worshipped with great devotion and prayer services are performed daily. The duration of the Lord's stay varies from place to place; once the worship is complete, the statues are carried on decorated floats to be immersed in the sea after one, three, five, seven and ten days. Thousands of processions converge on the beaches to immerse the holy idols in the sea. This procession and immersion is accompanied with dancing and the sound of exciting drum-beats, devotional songs and exploding firecrackers. As the idol is immersed amidst loud chants of "Ganesh Maharaj Ki Jai!" (Hail Lord Ganesh), the festival comes to an end with pleas to the Lord to return the next year with chants of "Ganpati bappa morya, pudcha varshi laukar ya" (Hail Lord Ganesh, return again soon next year). Tourists from all over the world come to witness this wonderful event in the sun kissed beaches of Goa and Mumbai.

While celebrated all over India, Ganesh Chaturthi festivities are most elaborate in states like Maharashtra, Goa (It is the biggest festival for Konkani people all over the world), Gujarat, Karnataka and Andhra Pradesh, and other areas which were former states of the Maratha Empire. Outside India, it is celebrated in Nepal by the Newars.


Lord Ganesha is worshipped with all sixteen rituals along with chanting of Puranik Mantras during Ganesha Chaturthi Puja which is also known as Vinayaka Chaturthi Puja. Worshipping Gods and Goddesses with all 16 rituals is known as Shodashopachara Puja.

Although Ganesha Puja can be done during Pratahkala, Madhyahnakala and Sayankala but Madhyahnakala is preferred during Ganesha Chaturthi Puja.

If you have Lord Ganesha installed at your home and is worshipped daily then Avahana and Pratishthapan should be skipped as these two rituals are done for newly bought statues of Lord Ganesha either made of clay or made of metal. It should be noted that pre-installed statue of Lord Ganesha at home are not given Visarjan but given Utthapana at the end of Puja.

It is Prohibited for Moon Sighting on Ganesha Chaturthi day. It is believed that no one should sight the moon on Ganesh Chaturthi. Sighting moon on Ganesh Chaturthi creates Mithya Dosham or Mithya Kalank which means a false accusation of stealing something.

Pooja Requirements

  • A Clay image of Lord Ganesha.
  • Red flowers
  • Druva Grass blades
  • Modak (jaggery filled sweet)
  • Coconut
  • Red chandan (Sandalwood paste)
  • Incense dhoop sticks

The Puja


  • First clean the house and take a bath.
  • A Clay image of Lord Ganesha is installed in a raised platform.
  • Pray to Lord Ganesh and you can recite mantras or bhajans dedicated to Lord Ganesha.
  • Next step is to invoke Ganesha into the image. This is known as pran-prathishta. The Pran Prathista mantra in Sanskrit to be invoked is found in the Rig Veda and is part of Ganesh Suktha.
  • Offer 21 blades of Druva Grass.
  • Offer 21 modakas
  • Offer red flowers
  • Apply a tilak using red Sandalwood paste.
  • Break the coconut or just keep it along with the idol. You can also keep fried grains. (The food of the rat – the vehicle of Ganesha).
  • You can also recite the 108 salutations dedicated to Lord Ganesha or read the Ganesha Upanishad or just simply pray.

The number 21 signifies - the five organs of perception, five organs of action, five vital airs (pranas), five elements, and the mind.

While performing Ganesha Puja at home, you can always be flexible. The strict rituals are meant for Vedic priests. All you need to be careful is to perform the pujas with a clean body and clean mind.

What is more important is devotion not the ritual.