Thursday, August 31, 2017

Colours and your numbers

Birth date also corresponds to a particular colour which is different from our lucky colour as this is the colour your birth date identifies with the most.



Number 1

For all those whose birth date falls on the 1st, 10th,19th, 28th of any month are ambitious, strong and creative and they identify with the colour yellow and even gold. These colours symbolise vitality and abundance in life.

Number 2

Those born on the 2nd,11th, 20th, 29th of any month are quiet souls who love peace and tranquillity -they prefer to go with the flow and do not take life too seriously. They mostly identify with the colour blue since it symbolises vastness, depth and solitude.

Number 3

Those born on the 3rd, 12th, 21st, 30th of any month symbolise strong will power and resilience. They are very strong souls and do not get perturbed by anything major in life. They identify the most with the colour purple.


Number 4

Those born on the 4th, 13th, 22nd, 31st of any month are fiery souls. They are extremely competitive and do not take things lying down. They stand for what is right in life. They identify the most with the colour Red.

Number 5

Those born on the 5th, 14th, 23rd of any month have a bright side to them and an amazing sense of humour. They are beautiful creatures who provide warmth to each and every person they meet. They identify the most with the colour Orange.

Number 6

Those born on the 6th, 15th, 24th of any month are quite conservative and do not like change too much. They prefer to be on their own and don't like to be socially visible all the time. They enjoy limited company. They identify the most with the colour Green.

Number 7

Those born  on the 7th, 16th, 25th of any month are introverts who do not like to project themselves in front of the world. They are good at hiding their feelings, even with those who are close to them. They identify the most with colours such as White, Pale Grey and light Brown.

Number 8

Those born  on the 8th, 17th, 26th of any month are good by heart, but are quite adept at building a wall around them. Those who manage to break that wall earn themselves a very good friend. They identify the most with the colour light blue.

Number 9

Those born on the 9th, 18th, 27th of any month are materialistic and crave for worldly pleasures. They look for security in life and often go as they plan. They identify the most with the colour Brown.

Thursday, August 24, 2017

गणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार भारत के विभिन्न भागों में मनाया जाता है किन्तु महाराष्ट्र में बडी़ धूमधाम से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इसी दिन गणेश का जन्म हुआ था।गणेश चतुर्थी पर हिन्दू भगवान गणेशजी की पूजा की जाती है। कई प्रमुख जगहों पर भगवान गणेश की बड़ी प्रतिमा स्थापित की जाती है। इस प्रतिमा का नो दिन तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में आस पास के लोग दर्शन करने पहुँचते है। नो दिन बाद गाजे बाजे से श्री गणेश प्रतिमा को किसी तालाब इत्यादि जल में विसर्जित किया जाता है।




शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकोंके स्वामी।

कथा

शिवपुराणके अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपालबना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर विष्णुजीउत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर!तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्यदेकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्षपर्यन्तश्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

अन्य कथा

एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा?

खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया।

बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।

एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।

गणेशजी 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा।

तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।

वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने 'गणेश व्रत' का इतिहास उनसे कह दिया।

तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।

कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर 'ब्रह्म-ऋषि' होने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं।



तीसरी कथा

एक बार महादेवजी स्नान करने के लिए भोगावती गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती ने अपने तन के मैल से एक पुतला बनाया और उसका नाम 'गणेश' रखा। पार्वती ने उससे कहा- हे पुत्र! तुम एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाओ। मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ। जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर मत आने देना।

भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया। इसे शिवजी ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर उनका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। पार्वती ने उन्हें नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण महादेवजी नाराज हैं। इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया।

तब दूसरा थाल देखकर तनिक आश्चर्यचकित होकर शिवजी ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए है? पार्वती जी बोलीं- पुत्र गणेश के लिए है, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है।

यह सुनकर शिवजी और अधिक आश्चर्यचकित हुए। तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा है? हाँ नाथ! क्या आपने उसे देखा नहीं? देखा तो था, किन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उद्दण्ड बालक समझकर उसका सिर काट दिया। यह सुनकर पार्वती जी बहुत दुःखी हुईं। वे विलाप करने लगीं। तब पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। पार्वती जी इस प्रकार पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने पति तथा पुत्र को प्रीतिपूर्वक भोजन कराकर बाद में स्वयं भोजन किया।

यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है।



गणेश चतुर्थी पूजा विधि

भगवान गणेश की गणेश-चतुर्थी के दिन सोलह उपचारों से वैदिक मन्त्रों के जापों के साथ पूजा की जाती है। भगवान की सोलह उपचारों से की जाने वाली पूजा को षोडशोपचार पूजा कहते हैं। गणेश-चतुर्थी की पूजा को विनायक-चतुर्थी पूजा के नाम से भी जाना जाता है।

भगवान गणेश को प्रातःकाल, मध्याह्न और सायाह्न में से किसी भी समय पूजा जा सकता है। परन्तु गणेश-चतुर्थी के दिन मध्याह्न का समय गणेश-पूजा के लिये सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मध्याह्न के दौरान गणेश-पूजा का समय गणेश-चतुर्थी पूजा मुहूर्त कहलाता है।

गणेश-पूजा के समय किये जाने वाले सम्पूर्ण उपचारों को नीचे सम्मिलित किया गया है। इन उपचारों में षोडशोपचार पूजा के सभी सोलह उपचार भी शामिल हैं। दीप-प्रज्वलन और संकल्प, पूजा प्रारम्भ होने से पूर्व किये जाते हैं। अतः दीप-प्रज्वलन और संकल्प षोडशोपचार पूजा के सोलह उपचारों में सम्मिलित नहीं होते हैं।

यदि भगवान गणपति आपके घर में अथवा पूजा स्थान में पहले से ही प्राण-प्रतिष्ठित हैं तो षोडशोपचार पूजा में सम्मिलित आवाहन और प्रतिष्ठापन के उपचारों को त्याग देना चाहिये। आवाहन और प्राण-प्रतिष्ठा नवीन गणपति मूर्ति (मिट्टी अथवा धातु से निर्मित) की ही की जाती है। यह भी उल्लेखनीय है कि घर अथवा पूजा स्थान में प्रतिष्ठित मूर्तियों का पूजा के पश्चात विसर्जन के स्थान पर उत्थापन किया जाता है।

गणेश चतुर्थी पूजा के दौरान भक्तलोग भगवान गणपति की षोडशोपचार पूजा में एक-विंशति गणेश नाम पूजा और गणेश अङ्ग पूजा को भी सम्मिलित कर लेते हैं।

भगवान गणेश खाने के बेहद शौकीन थे, उन्हें कई तरह की मिठाईयां जैसे मोदक, गुड़ और नारियल जैसी चीज़े प्रसाद या भोग में चढ़ाई जाती हैं. गणेश जी को मोदक काफी पंसद थे जिन्हें चावल के आटे, गुड़ और नारियल से बनाया जाता है.  इस पूजा में गणपति को 21 लड्डुओं का भोग लगाने का विधान है.

व्रत

भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी से प्रारंभ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चंद्रोदयव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत करने पर विघ्नेश्वरगणेश प्रसन्न होकर समस्त विघ्न और संकट दूर कर देते हैं। प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात्‌ व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है।

जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-

'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'

गणेश चतुर्थी पूजा

इस साल भक्त एक दिन ज्यादा सिद्धि विनायक भगवान गणेश जी की पूजा कर सकेंगे। इस बार गणेश जी श्रद्धालुओं के घर पर दस दिन नहीं 11 दिन के लिए आएंगे। इस बार 11 दिनों तक गणेशोत्सव मनाया जाएगा। इस साल गणेश चर्तुथी 25 अगस्त को मनाई जाएगी। दशमी तिथि दो दिन होने के कारण गणेश उत्सव एक दिन के लिए बढ़ गया है। पांच सितंबर को अनंत चतुर्दशी होगी। इसी दिन गणपति जी का विसर्जन किया जाएगा। 31 अगस्त और एक सितंबर दोनों ही दिन दशमी तिथि रहेगी। इस बार गणेश उत्सव की शुरुआत रवि योग में होगी। गणेश चतुर्थी का दिन बेहद ही शुभ माना जाता है इसीलिए किसी भी शुभ काम की शुरुआत के लिए ये दिन विशेष रूप से शुभ होता है।



गणेश चतुर्थी पूजा मुहूर्त

मध्याह्न गणेश पूजा का समय = ११:०३ से १३:३२
अवधि = २ घण्टे २९ मिनट्स
२४th को, चन्द्रमा को नहीं देखने का समय = २०:२७ से २०:३८
अवधि = ० घण्टे ११ मिनट्स
२५th को, चन्द्रमा को नहीं देखने का समय = ०९:०३ से २१:१८
अवधि = १२ घण्टे १५ मिनट्स
चतुर्थी तिथि प्रारम्भ = २४/अगस्त/२०१७ को २०:२७ बजे
चतुर्थी तिथि समाप्त = २५/अगस्त/२०१७ को २०:३१ बजे


गणेश चतुर्थी का महत्व -

साल भर में पड़ने वाली चतुर्थियों में गणेश चतुर्थी को सबसे बड़ी चतुर्थी माना जाता है। इस दिन 'बप्‍पा' के भक्‍त गणपति को अपने घर में लाने के लिए पूरी श्रद्धा से इंतजार करते हैं। वैसे तो साल भर में पड़ने वाली किसी भी चतुर्थी को गणपति जी का पूजन और उपासना करने से घर में संपन्‍नता, समृद्धि, सौभाग्य और धन का समावेश होता है। मगर शास्त्रों में इस चतुर्थी के दिन किए गए व्रत और पूजन का विशेष महत्व बतलाया गया है। आइए जानें कैसे करें गणेश चतुर्थी पूजन। गणेश जी की वैदिक पूजा विधि -गणेश चतुर्थी के मौके पर भगवान गणपति की प्रतिमा को घर लाकर हम पूजा की शुरुआत करते हैं। इस दिन भगवान गणेश की प्रतिमा को घर लाना सबसे पवित्र समझा जाता है। जब आप बप्‍पा की मूर्ति को घर लाएं, उससे पहले इन चीजों को तैयार रखें। अगरबत्‍ती और धूप, आरती थाली, सुपारी, पान के पत्‍ते और मूर्ति पर डालने के लिए कपड़ा, चंदन के लिए अलग से कपड़ा और चंदन।

 गणपति मूर्ति की पूजा करने के लिए सबसे पहले एक आरती की थाली में अगरबत्‍ती-धूप को जलाएं। इसके बाद पान के पत्‍ते और सुपारी को भी इसमें रखें। इस दौरान मंत्र ' ऊं गं गणपतये नम:' का जाप करें। यदि कोई पुजारी इसे कर रहे हों तो दक्षिणा भी अर्पित करें। जो श्रद्धालु गणेश जी की मूर्ति को चतुर्थी से पहले अपने घर ला रहे हैं, उन्‍हें मूर्ति को एक कपड़े से ढककर लाना चाहिए और पूजा के दिन मूर्ति स्‍थापना के समय ही इसे हटाना चाहिए। घर में मूर्ति के प्रवेश से पहले इस पर अक्षत जरूर डालना चाहिए। स्‍थापना के समय भी अक्षत को आसन के निकट डालना चाहिए। साथ ही, वहां सुपारी, हल्‍दी, कुमकुम और दक्षिणा भी वहां रखना चाहिए।

पूजा के लिए जरूरी सामग्री - 

गणपति की मूर्ति को घर में स्‍थापित करने के समय सभी विधि विधान के अलावा जिन सामग्री की जरूरत होती है, वो इस प्रकार हैं। जैसे लाल फूल, दूर्वा, मोदक, नारियल, लाल चंदन, धूप और अगरबत्‍ती। गणेश चतुर्थी के दिन ब्रह्म मूहर्त में उठकर स्नान आदि से शुद्ध होकर शुद्ध कपड़े पहनें। इस दिन लाल रंग के वस्त्र पहनना अति शुभ होता है। गणपति का पूजन शुद्ध आसन पर बैठकर अपना मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ करके करें। पंचामृत से श्री गणेश को स्नान कराएं तत्पश्चात केसरिया चंदन, अक्षत, दूर्वा अर्पित कर कपूर जलाकर उनकी पूजा और आरती करें। उनको मोदक के लड्डू अर्पित करें। उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। श्री गणेश जी का श्री स्वरूप ईशाण कोण में स्थापित करें और उनका श्री मुख पश्चिम की ओर रहे।संध्या के समय गणेश चतुर्थी की कथा, गणेश पुराण, गणेश चालीसा, गणेश स्तुति, श्रीगणेश सहस्रनामावली, गणेश जी की आरती, संकटनाशन गणेश स्तोत्र का पाठ करें। अंत में गणेश मंत्र ' ऊं गणेशाय नम:' अथवा 'ऊं गं गणपतये नम: का अपनी श्रद्धा के अनुसार जाप करें।

इस दिन किया जाने वाला विशेष काम - 

भगवान गणेश अपने भक्तों के समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए विघ्नों के मार्ग में विकट स्वरूप धारण करके खड़े हो जाते हैं। अपने घर, दुकान, फैक्टरी आदि के मुख्य द्वार के ऊपर तथा ठीक उसकी पीठ पर अंदर की ओर गणेश जी का स्वरूप अथवा चि‍‍त्रपट जरूर लगाएं। ऐसा करने से गणेश जी कभी भी आपके घर, दुकान अथवा फैक्टरी की दहलीज पार नहीं करेंगे तथा सदैव सुख-समृद्धि बनी रहेगी। कोई भी नकारात्मक शक्ति घर में प्रवेश नहीं कर पाएगी।अपने दोनों हाथ जोड़कर स्थापना स्थल के समीप बैठकर किसी धर्म ग्रंथ का पाठ रोजाना करेंगे तो शुभ फल मिलेगा। सच्‍चे मन और शुद्ध भाव से गणपति की पूजा करने से बुद्धि, स्‍वास्‍थ्‍य और संपत्ति मिलती है।गणपति जी को ऐसे करें प्रसन्नजब भी पूजा की शुरुआत की जाती है तो सबसे पहले गणेश जी की आराधना की जाती है। गणपति जी की पूजा करने से भक्तों के दिल की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है। जैसे गणपति जी के पिता भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए किसी विशेष सामाग्री की जरूरत नहीं होती वैसे ही गणेश जी को प्रसन्न करना भी बेहद आसान है। बता दें कि जो भी भक्त गणपति जी पर जितनी श्रद्धा रखता है वह उतने ही कृपालु बने रहते हैं। मनोकामनापूर्ति के लिए दूर्वा, मोदक, घी से गणपति जी की पूजा करें।


Wednesday, August 23, 2017

Hartalika Teej

Hartalika Teej is seen as a major festival and is celebrated on the third day of the bright half of the North Indian Lunar month of Bhadrapud. The festival women feasting during the evening of Hartalika Teej, praying to Goddess Parvati and Lord Shiva, remembering their wedding and staying up all night listening to prayers. The fast (also called nishivasar nirjala vrat) commences during the evening of Hartalika Teej and is broken the next day after a full day's observance which involves women not even drinking water. The focus is on praying to Goddess Parvati whom Shiva desired should be worshipped under the name Hartalika.



Hartalika is a combination of "harit" and "aalika" which means "abduction" and "female friend" respectively. According to the legend of Hartalika Teej, Goddess Parvati, incarnated as Goddess Shailaputri, was the daughter of himalaya who promised her hand in marriage to Lord Vishnu, at the suggestion of Narada. Upon hearing this, Goddess Parvati told her friend of her father's decision whereupon the friend took Goddess Parvati to the thick forest so that her father would not marry her to Lord Vishnu against her wish.

On the third day of the bright half of Bhadrapud, Goddess Parvati made a Shiva lingam out of her hair and prayed. Lord Shiva was so impressed that he gave his word to marry Goddess Parvati. Eventually, Goddess Parvati was united with Lord Shiva and was married to him with her father's blessing. Since then, the day is referred to as haritalika teej as Goddess Parvati's female (aalika)friend had to abduct (harit) her in order for the Goddess to achieve her goal of marrying Lord Shiva.

Though the rituals of Hartalika Teej are same as other Teej Vrat. But, some of the differences are as follows:

Rituals Of Hartalika Teej:


  • Females observe Hartalika Teej Vrat on the day of Hartalika Teej.
  • A Nirjala Vrat (without water) is observed on Hartalika Teej.
  • People who observe a fast on Teej stay awake the whole night.
  • Goddess Parvati and Lord Shiva are worshiped on Hartalika Teej.


These are some of common rituals that are performed while observing Hartalika Teej. Let’s see what is the benefit of observing Hartalika Teej.



Benefit Of Hartalika Teej

It is believed that those who observe the fast of Hartalika Teej, Lord Shiva fulfills all the desires of those devotees.

The states in which Hartalika Teej is celebrated on a large scale are Madhya Pradesh, Rajasthan, Jharkhand, Uttar Pradesh, and Bihar.


Teej : Legend Of Teej Festival

The legend of Teej festival is related to Lord Shiva and Goddess Parvati. It is believed that Goddess Parvati admired Lord Shiva and wanted to marry Him. Hence, Goddess Parvati prayed to Lord Shiva with full devotion and dedication, for a period of 108 years. Post which, She was accepted by Lord Shiva as his wife. Since then, the festival of Teej is dedicated to Goddess Parvati, who is also known as ‘Teej Mata’. The divine reunion of Goddess Parvati and Lord Shiva for a blissful marriage remains to be the prime reason for celebrating Teej.




Teej : Significance Of Teej Festival

Teej is one of the most popular festivals among the married women. This festival during the Shravan Maas (month) is considered extremely important for females. The festival of Teej signifies the devotion of a woman toward her husband. It is believed that through severe dedication, a woman can attain the eternal blessings of Almighty.

So, on this Teej, don’t forget to please Lord Shiva and Goddess Parvati, for attaining the man of your dreams.

Teej Vrat Rituals

Just like any other festival, the Teej festival has some important rituals. Some of the important rituals that are to be followed during the Teej festival are as follows:


  • Married women are presented with items of Shringaar (make up) by her in-laws. This Shringaar includes Kumkum (vermilion), Henna (mehndi tattoo), Bindi (decorative mark on forehead), bangles, and Sari (traditional attire).
  • During the festival of Teej, females observe a Nirjala (without water) fast. So, if you plan to observe the Teej Vrat, you should eat a day prior to Teej festival.
  • As a part of the Teej festival rituals, women visit the nearest temple and pray to Lord Shiva and Goddess Parvati.
  • During the fast, females dress up elegantly, wearing the Shringaar items and apply Mehendi (Henna) to their hands. This ritual is a depiction of a blissful married life.
  • In the evening, women pray to Goddess Parvati and listen or recite the Teej Vrat Katha.
  • Special prayers are offered during the night while observing the Moon.
  • During the festival of Teej, special folk dances are performed and Teej songs are sung. These are some of the important rituals that are followed during the Teej festival. So, this Teej, don’t forget to follow these rituals.



Teej Celebrations

During the Teej festival, there is no part of the country which is left behind. The celebration of the Teej festival can be seen in the states of Rajasthan, Andhra Pradesh., Haryana, and Punjab. Not only in India, but also outside, the festival of Teej is celebrated with a lot of joy, enthusiasm, and vibrancy.

During the festival of Teej, special fares are also conducted. Women across the country dress up in different vibrant colored sarees, suits, and Lehengas (traditional attire for women).


Tuesday, August 22, 2017

हरतालिका तीज

संकल्प शक्ति का प्रतीक और अखंड सौभाग्य की कामना का परम पावन व्रत हरतालिका तीज हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को किया जाता है। हरतालिका तीज को हरितालिका तीज भी कहा जाता है। इस वर्ष हरतालिका तीज 24 अगस्त को मनाई जाएगी।



हरतालिका तीज व्रत 

नारी के सौभाग्य की रक्षा करनेवाले इस व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अक्षय सौभाग्य और सुख की लालसा हेतु श्रद्धा, लगन और विश्वास के साथ मानती हैं। कुवांरी लड़कियां भी अपने मन के अनुरूप पति प्राप्त करने के लिए इस पवित्र पावन व्रत को श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक करती है। "हर" भगवान भोलेनाथ का ही एक नाम है और चूँकि शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माँ पार्वती ने इस व्रत को रखा था, इसलिए इस पावन व्रत का नाम हरतालिका तीज रखा गया।

इस व्रत के सुअवसर पर सौभाग्यवती स्त्रियां नए लाल वस्त्र पहनकर, मेंहदी लगाकर, सोलह शृंगार करती है और शुभ मुहूर्त में भगवान शिव और मां पार्वती जी की पूजा आरम्भ करती है। इस पूजा में शिव-पार्वती की मूर्तियों का विधिवत पूजन किया जाता है और फिर हरितालिका तीज की कथा को सुना जाता है। माता पार्वती पर सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। भक्तों में मान्यता है कि जो सभी पापों और सांसारिक तापों को हरने वाले हरितालिका व्रत को विधि पूर्वक करता है, उसके सौभाग्य की रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं।

शिव पुराण की एक कथानुसार इस पावन व्रत को सबसे पहले राजा हिमवान की पुत्री माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किया था और उनके तप और आराधना से खुश होकर भगवान शिव ने माता को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था।

लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। काफी समय सूखे पत्ते चबाकर काटी और फिर कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे।


इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बतलाई तो वह बहुत दुखी हो गई और जोर-जोर से विलाप करने लगी। फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई।

भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।




मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झुला-झूलने की प्रथा है।

हरतालिका तीज का व्रत का व्रत निर्जल रहा जाता है। इस व्रत में  शाम को पूजा होते हुए रात भर, भजन-कीर्तन, जागरण के बाद दूसरे दिन सुबह समाप्त होता है, तब महिलाएं अपना व्रत तोड़ती हैं और अन्न-जल ग्रहण करती हैं। इस दिन शिव पार्वती जी पूजा की जाती है। जानिए इस व्रत को कैसे करना चाहिए औऱ इसकी कथा किस प्रकार है।

शुभ मुहूर्त

ज्योतिषचार्य के अनुसार इस साल तृतीया तिथि 24 अगस्त को है।

रात:काल हरतालिका तीज: सुबह 5 बजकर 45 मिनट से सुबह 8 बजकर 18 मिनट तक
 प्रदोषकाल हरतालिका तीज: शाम 6 बजकर 30 मिनट से रात 8 बजकर 27 मिनट तक


ऐसे करें इस व्रत में पूजा

तीज के इस व्रत को महिलाएं बिना कुछ खाए-पीए रहती है। इस व्रत में पूजन रात भर किया जाता है। इस पूजन में बालू के भगवान शंकर व माता पार्वती का मूर्ति बनाकर किया जाता है और एक चौकी पर शुद्ध मिट्टी में गंगाजल मिलाकर शिवलिंग, रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश, पार्वती एवं उनकी सहेली की प्रतिमा बनाई जाती है।

ध्यान रहें कि प्रतिमा बनातें समय भगवान का स्मरण करते रहे और पूजा करते रहे। पूजन-पाठ के बाद महिलाएं रात भर भजन-कीर्तन करती है और हर प्रहर को इनकी पूजा करते हुए बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण करने चाहिए और आरती करनी चाहिए। साथ में इन मंत्रों बोलना चाहिए-

जब  माता पार्वती की पूजा कर रहे हो तब-
ऊं उमायै नम:, ऊं पार्वत्यै नम:, ऊं जगद्धात्र्यै नम:, ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:, ऊं शांतिरूपिण्यै नम:, ऊं शिवायै नम:

भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करना चाहिए
ऊं हराय नम:, ऊं महेश्वराय नम:, ऊं शम्भवे नम:, ऊं शूलपाणये नम:, ऊं पिनाकवृषे नम:, ऊं शिवाय नम:, ऊं पशुपतये नम:, ऊं महादेवाय नम:



क्यों पड़ा हरितालिका तीज नाम ?

हरितालिका दो शब्दों से बना है, हरित और तालिका। हरित का अर्थ है हरण करना और तालिका अर्थात सखी। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, जिस कारण इसे तीज कहते है। इस व्रत को हरितालिका इसलिए कहा जाता है, क्योकि पार्वती की सखी (मित्र) उन्हें पिता के घर से हरण कर जंगल में ले गई थी।

हरितालिका तीज की पूजन सामग्री 

गीली मिट्टी या बालू रेत। बेलपत्र, शमी पत्र, केले का पत्ता, धतूरे का फल, अकांव का फूल, मंजरी, जनैव, वस्त्र व सभी प्रकार के फल एंव फूल पत्ते आदि। पार्वती मॉ के लिए सुहाग सामग्री-मेंहदी, चूड़ी, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, माहौर, बाजार में उपलब्ध सुहाग आदि। श्रीफल, कलश, अबीर, चन्दन, घी-तेल, कपूर, कुमकुम, दीपक, दही, चीनी, दूध, शहद व गंगाजल पंचामृत के लिए।




हरतालिका व्रत कथा

धर्म ग्रंथों के अनुसार  यह व्रत कथा है जिसमें तीज की कथा भगवान शंकर ने पार्वती को उनके पूर्व जन्म का याद दिलाने के लिए के लिए सुनाई थी। जो  इस प्रकार है-

भगवान शिव नें पार्वती को बताया कि वो अपनें पूर्व जन्म में राजा दक्ष की पुत्री सती थीं। सती के रूप में भी वे भगवान शंकर की प्रिय पत्नी थीं। एक बार सती के पिता दक्ष ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन उसमें द्वेषतावश भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने भगवान शंकर से यज्ञ में चलने को कहा, लेकिन आमंत्रित किए बिना भगवान शंकर ने जाने से इंकार कर दिया।

तब सती स्वयं यज्ञ में शामिल होने चली गईं औऱ अपने पिता दक्ष से पूछा कि मेरे पति को क्यों न बुलाया इस बात पर दक्ष नें खूब भसा -बुरा शकंर जी को सुनाया जिससे कुंठित होकर वहां उन्होंने अपने पति शिव का अपमान होने के कारण यज्ञ की अग्नि में देह त्याग दी।

अगले जन्म में सती का जन्म हिमालय राजा और उनकी पत्नी मैना के यहां हुआ। बाल्यावस्था में ही पार्वती भगवान शंकर की आराधना करने लगी और उन्हें पति रूप में पाने के लिए घोर तप करने लगीं। यह देखकर उनके पिता हिमालय बहुत दु:खी हुए। हिमालय ने पार्वती का विवाह भगवान विष्णु से करना चाहा, लेकिन पार्वती भगवान शंकर से विवाह करना चाहती थी।

पार्वती ने यह बात अपनी सखी को बताई। वह सखी पार्वती को एक घने जंगल में ले गई। पार्वती ने जंगल में मिट्टी का शिवलिंग बनाकर कठोर तप किया, जिससे भगवान शंकर प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर पार्वती से वरदान मांगने को कहा। पार्वती ने भगवान शंकर से अपनी धर्मपत्नी बनाने का वरदान मांगा, जिसे भगवान शंकर ने स्वीकार किया। इस तरह माता पार्वती को भगवान शंकर पति के रूप में प्राप्त हुए।

हरितालिका तीज की विधि 

हरितालिका तीज के दिन महिलायें निर्जला व्रत रखती है। इस दिन शंकर-पार्वती की बालू या मिट्टी की मूति बनाकर पूजन किया जाता है। घर को स्वच्छ करके तोरण-मंडप आदि सजाया जाता है। एक पवित्र चौकी पर शुद्ध मिट्टी में गंगाजल मिलाकर शिलिंग, रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश, पार्वती व उनकी सखी की आकृति बनायें। तत्पश्चात देवताओं का आवाहन कर षोडशेपचार पूजन करें। इस व्रत का पूजन पूरी रात्रि चलता है। प्रत्येक पहर में भगवान शंकर का पूजन व आरती होती है।

सर्वप्रथम 'उमामहेश्वरायसायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रतमहं करिष्ये' मन्त्र का संकल्प करके भवन को मंडल आदि से सुशोभित कर पूजा सामग्री एकत्रित करें। हरतिालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता है। प्रदोष काल अर्थात दिन-रात्रि मिलने का समय। संध्या के समय स्नान करके शुद्ध व उज्ज्वला वस्त्र धारण करें। तत्पश्चात पार्वती तथा शिव की मिट्टी से प्रतिमा बनाकर विधिवत पूजन करें। तत्पश्चात सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी सामग्री सजा कर रखें, फिर इन सभी वस्तुओं को पार्वती जी को अर्पित करें। शिव जी को धोती तथा अंगोछा अर्पित करें और तत्पश्चात सुहाग सामग्री किसी ब्राहम्णी को तथा धोती-अंगोछा ब्राहम्ण को दान करें। इस प्रकार पार्वती तथा शिव का पूजन कर हरितालिका व्रत कथा सुनें।

भगवान शिव की परिक्रमा करें फिर गणेश जी की आरती करें, फिर शिव जी और पार्वती जी की आरती करें। तत्पश्चात भगवान शिव की परिक्रमा करें। रात्रि जागरण करके सुबह पूजा के बाद माता पार्वती को सिन्दूर चढ़ायें। ककड़ी-हलवे का भोग लगांये और फिर उपवास तोड़े। अन्त में सारी सामग्री को एकत्रित करके एक गढढा खोदकर मिट्टी में दबा दें।


Monday, August 21, 2017

Varaha Avatar

Varaha is the avatar of the Hindu god Vishnu in the form of a boar. Varaha is listed as third in the Dashavatara, the ten principal avatars of Vishnu. When the demon Hiranyaksha stole the earth (personified as the goddess Bhudevi) and hid her in the primordial waters, Vishnu appeared as Varaha to rescue her. Varaha slew the demon and retrieved the Earth from the ocean, lifting it on his tusks, and restored Bhudevi to her place in the universe.



Varaha may be depicted completely as a boar or in an anthropomorphic form, with a boar's head and human body. His consort, Bhudevi, the earth, is often depicted as a young woman, lifted by Varaha. The earth may be depicted as a mass of land too.

Varaha has four arms, two of which hold the Sudarshana chakra (discus) and shankha (conch), while the other two hold a gada (mace), a sword, or a lotus or one of them makes the varadamudra (gesture of blessing). Varaha may be depicted with all of Vishnu'a attributes in his four hands: the Sudarshana chakra, the shankha, the gada and the lotus. Sometimes, Varaha may carry only two of Vishnu's attributes: a shankha and the gada personified as a female called Gadadevi. Varaha is often shown with a muscular physique and in a heroic pose. He is often depicted triumphantly emerging from the ocean as he rescues the earth.

Legends

The earliest versions of the Varaha legend are found in the Taittiriya Aranyaka and the Shatapatha Brahmana. They narrate that the universe was filled with the primordial waters. The earth was the size of a hand and was trapped in it. The god Prajapati (the creator-god Brahma) in the form of a boar (varaha) plunges into the waters and brings the earth out. He also marries the earth thereafter. The Shatapatha Brahmana calls the boar as Emusha. The epic Ramayana and the Vishnu Purana - considered sometimes as the oldest of the Puranic scriptures - are the first to associate Varaha with Vishnu. Various Puranic scriptures including the Agni Purana, the Bhagavata Purana, the Devi Bhagavata Purana, the Padma Purana, the Varaha Purana, the Vayu Purana and the Vishnu Purana narrate the legend of Varaha with some variations.

One day Lord Vishnu was resting in his palace, when Lord Brahma’s four sons came to meet him. They were stopped at the entrance by two guards, Jaya and Vijaya. They did not allow them to enter as their master was resting, Brahma’s sons were very angry and cursed Jaya and Vijaya to be born as humans on earth and to leave their godly status.

A little while later Lord Vishnu arrived at the spot and apologized for Jaya and Vijaya’s behaviour as they were merely doing their duty. So as a compensation Brahma’s sons said that curse would be lifted when Jaya and Vijaya in human forms would meet their death at Lord Vishnu’s hands.

So Jaya and Vijaya were born as humans on Earth. They were named Hiranya­kashyap and Hiranyaksh. When they were born both the earth and the heaven shook violently. Indra went to Lord Vishnu and said, “At their birth itself, there is so much chaos. What will happen when they’ll grow up?”

“Don’t worry, Indra,” said Lord Vishnu. “I’ll kill them when the time comes and no harm will come to anybody.”

Many years went by and Hiranyaksha became a young man. He was a great devotee of Lord Brahma. He gave a lot of time in penance when Lord Brahma appeared and gave him a boon. According to the boon, no God, human, Daitya or Asura would be able to kill him. So Hiranyaksha started displaying his strength as he was assured of his immortality.

He turned his waist side to side and began churning the sea. Due to this, waves lashed the sea. Varun Dev got very scared on seeing such a scene. He started searching for a place to hide. But Hiranyaksh confronted him and challenged him. At this, Varun Dev accepted his defeat and declared that he could not defeat Hiranyaksha as he was the strongest of all. And then Hiranyaksha was filled with pride. He went on churning the sea waters and walked through the sea. Then he met Narad Muni. Hiranyaksh asked him,” “Is there anyone as strong as or stronger than me?” Narad Muni said, “Yes, Lord Vishnu is the strongest.” Hiranyaksha searched for Lord Vishnu everywhere but could not find him. Then he gathered the whole Earth into a round ball and went underwater to Pataal Lok to search for Lord Vishnu. All the Gods were worried. They got together and rushed to Lord Vishnu for help. They said, “Lord please save us. Hiranyaksh has taken Earth and disappeared.”

“Don’t worry. I know he has taken Earth to Pataal Lok. I’ll soon get Earth back at its position.”

Then Lord Vishnu took the form of a Varaha, a wild boar with two tusks. He went to Pataal Lok and challenged Hiranyaksha so they had a fierce fight. Hiranyaksha used many weapons to strike Varaha but they had no effect on him. Lastly, Hiranyaksha wound his strong, muscled arms round the wild boar’s neck to strangle him. At that very moment, Lord Vishnu left his Varaha form and appeared in his true self.



And then Vishnu directed his chakra at Hiranyaksha . The chakra separated his head from his body. Hiranyaksha died then and there. Then Lord Vishnu again took the Varaha form. He picked the Earth, which was like a ball, balanced on his two tusks and left Pataal Lok through the sea. He placed Earth at its original position and again appeared in his true form.

Further, the earth goddess Bhudevi falls in love with her rescuer Varaha. Vishnu - in his Varaha form - marries Bhudevi, making her one of the consorts of Vishnu. In one narrative, Vishnu and Bhudevi indulge in vigorous embraces and as a result, Bhudevi becomes fatigued and faints, sinking a little in the primordial ocean. Vishnu again acquires the form of Varaha and rescues her, reinstating her in her original position above the waters. Some scriptures state that Bhudevi gives birth to Varaha's son, an asura called Narakasura.

The scripture Varaha Purana is believed to be narrated by Vishnu to Bhudevi, as Varaha. The Purana is devoted more to the "myths and genealogies" connected to the worship of Vishnu.



Temples

The most prominent temple of Varaha is the Sri Varahaswami Temple in Tirumala, Andhra Pradesh. It is located on the shores of a temple pond, called the Swami Pushkarini, in Tirumala, near Tirupati; to the north of the Tirumala Venkateswara Temple (another temple of Vishnu in the form of Venkateswara). The region is called Adi-Varaha Kshestra, the abode of Varaha. The legend of the place is as follows: at the end of Satya Yuga (the first in the cycle of four aeons; the present one is the fourth aeon), devotees of Varaha requested him to stay on earth, so Varaha ordered his mount Garuda to bring his divine garden Kridachala from his abode Vaikuntha to Venkata hills, Tirumala. Venkateswara is described as having taken the permission of Varaha to reside in these hills, where his chief temple, Tirumala Venkateswara Temple, stands. Hence, pilgrims are prescribed to worship Varaha first and then Venkateswara. In the Atri Samhita (Samurtarchanadhikara), Varaha is described to be worshipped in three forms here: Adi Varaha, Pralaya Varaha and Yajna Varaha. The image in the sanctum is of Adi Varaha.

Another important temple is the Bhuvarahaswami Temple in Srimushnam town, to the northeast of Chidambaram, Tamil Nadu. It was built in the late 16th century by Krishnappa II, a Thanjavur Nayak ruler. The image of Varaha is considered a swayambhu (self manifested) image, one of the eight self-manifested Swayamvyakta Vaishnava kshetras. An inscription in the prakaram (circumambulating passage around the main shrine) quoting from the legend of the Srimushna Mahatmaya (a local legend) mentions the piety one derives in observing festivals during the 12 months of the year when the sun enters a particular zodiacal sign. This temple is venerated by Hindus and Muslims alike. Both communities take the utsava murti (festival image) in procession in the annual temple festival in the Tamil month of Masi (February–March). The deity is credited with many miracles and called Varaha saheb by Muslims.



Varaha shrines are also included in Divya Desams (a list of 108 abodes of Vishnu). They include Adi Varaha Perumal shrine Tirukkalvanoor, located in the Kamakshi Amman Temple complex, Kanchipuram and Thiruvidandai, 15 km from Mahabalipuram.

In Muradpur in West Bengal, worship is offered to an in-situ 2.5 metres (8 ft 2 in) zoomorphic image of Varaha (8th century), one of the earliest known images of Varaha. A 7th century anthropomorphic Varaha image of Apasadh is still worshipped in a relatively modern temple. Other temples dedicated to Varaha are located across India in the states of Andhra Pradesh, Haryana Pradesh at Baraha Kalan, Karnataka at Maravanthe and Kallahalli, Kerala, Madhya Pradesh, Odisha at Yajna Varaha Temple, and Lakhmi Varaha Temple, Rajasthan at Pushkar, Tamil Nadu and Uttar Pradesh.




Sunday, August 20, 2017

सोमवती अमावस्या

सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। ये वर्ष में लगभग एक अथवा दो ही बार पड़ती है। इस अमावस्या का हिन्दू धर्म में विशेष महत्त्व होता है। विवाहित स्त्रियों द्वारा इस दिन अपने पतियों के दीर्घायु कामना के लिए व्रत का विधान है। इस दिन मौन व्रत रहने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत की भी संज्ञा दी गयी है। अश्वत्थ यानि पीपल वृक्ष। इस दिन विवाहित स्त्रियों द्वारा पीपल के वृक्ष की दूध, जल, पुष्प, अक्षत, चन्दन इत्यादि से पूजा और वृक्ष के चारों ओर १०८ बार धागा लपेट कर परिक्रमा करने का विधान होता है।और कुछ अन्य परम्पराओं में भँवरी देने का भी विधान होता है। धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढाया जाता है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है। कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा। ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है।



कथा

सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। परंपरा है कि सोमवती अमावस्या के दिन इन कथाओं को विधिपूर्वक सुना जाता है। एक गरीब ब्रह्मण परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी। पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी। उस लड़की में समय के साथ सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था। लड़की सुन्दर, संस्कारवान एवं गुणवान भी थी, लेकिन गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू पधारे, जो कि कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए। कन्या को लम्बी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है। ब्राह्मण दम्पति ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए। साधू ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धूबी जाती की एक महिला अपने बेटे और बहू के साथ रहती है, जो की बहुत ही आचार- विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है। यदि यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है। साधू ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती जाती नहीं है। यह बात सुनकर ब्रह्मणि ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही।

कन्या तडके ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे करके अपने घर वापस आ जाती। सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो तडके ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता। बहू ने कहा कि माँजी मैंने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम ख़ुद ही ख़तम कर लेती हैं। मैं तो देर से उठती हूँ। इस पर दोनों सास बहू निगरानी करने करने लगी कि कौन है जो तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता हा। कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक एक कन्या मुँह अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है। जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं। तब कन्या ने साधू द्बारा कही गई साड़ी बात बताई। सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था। वह तैयार हो गई। सोना धोबिन के पति थोड़ा अस्वस्थ थे। उसमे अपनी बहू से अपने लौट आने तक घर पर ही रहने को कहा। सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति गया। उसे इस बात का पता चल गया। वह घर से निराजल ही चली थी, यह सोचकर की रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भँवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी। उस दिन सोमवती अमावस्या थी। ब्रह्मण के घर मिले पूए- पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से १०८ बार भँवरी देकर १०८ बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की और उसके बाद जल ग्रहण किया। ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में कम्पन होने लगा।

क्या करें इस दिन खास

प्रातः काल नित्यकर्म से निवृत होकर किसी ऐसे शिवालय में जाएं जहां शिव परिवार संग पीपल का पेड़ लगा हो। सर्वप्रथम गणपती का विधिवत पूजन करने के बाद पीपल के निमित तिल के तेल का दीपक जलाएं, सुगंधित धूप करें, पीपल पर हल्दी से तिलक करें, सफ़ेद फूल चढ़ाएं, बर्फी का भोग लगाएं। इसके बाद पीपल की जड़ में जल, खंड मिश्रित कच्ची दही की लस्सी और पंचामृत चढ़ाएं। इसके बाद हल्दी से रंगे कच्चे सूत की गांठ पीपल पर लगाकर दूसरे हाथ में धान, धनिया, पान, हल्दी, सिंदूर व साबुत सुपारी लेकर 108 बार सूत लपेटते हुए पीपल की परिक्रमा करें। परिक्रमा के बाद सारी सामाग्री पीपल पर चढ़ा दें अथवा किसी धोबन को भेंट करें। इसके बाद मंदिर में गौरी-शंकर का पूजन करके अखंड सौभाग्य का वरदान मांगे।

पीपल के पेड़ को शास्त्रों में अश्वत्थ कहा गया है और इसे श्री हरि विष्णु का स्वरूप माना जाता है। जब पिप्पलाद मुनि ने पीपल के पेड़ के नीचे तपस्या करके शनि देव को प्रसन्न किया तत्पश्चात इस पेड़ का नाम पीपल पड़ा। शास्त्रों में वर्णित है कि इस दिन पीपल के पेड़ की पूजा करने से पति की उम्र लम्बी होती है और उन पर आने वाले कष्ट टलते हैं। कोर्ट कचहरी और मुकदमें में विजय प्राप्त होती है, धन से संबंधित परेशानियों से राहत मिलती है एवं व्यावसायिक परेशानियों से छुटकारा मिलता है।


सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन भँवरी (परिक्रमा करना ) देता है, उसके सुख और सौभग्य में वृद्धि होती है। जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन १०८ वस्तुओं कि भँवरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश कि पूजा करता है, उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

ऐसी परम्परा है कि पहली सोमवती अमावस्या के दिन धान, पान, हल्दी, सिन्दूर और सुपाड़ी की भँवरी दी जाती है। उसके बाद की सोमवती अमावस्या को अपने सामर्थ्य के हिसाब से फल, मिठाई, सुहाग सामग्री, खाने कि सामग्री इत्यादि की भँवरी दी जाती है। भँवरी पर चढाया गया सामान किसी सुपात्र ब्रह्मण, ननद या भांजे को दिया जा सकता है। अपने गोत्र या अपने से निम्न गोत्र में वह दान नहीं देना चाहिए।

Saturday, August 19, 2017

शनि प्रदोष व्रत

प्रत्येक महीने की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत मनाया जाता है। इस बार प्रदोष व्रत शनिवार को पड़ने के कारण इसे शनि प्रदोष व्रत कहा गया है। प्रदोष व्रत हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण व्रतों में से एक है। इस दिन भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व होता है। इस बार शनि प्रदोष व्रत शनिवार, 19 अगस्त 2017 को है।



माना जाता है कि इस दिन पूजा-पाठ करने से व्यक्ति के सभी पाप धुल जाते है। इतना ही नहीं शनि प्रदोष के दिन भगवान शिव की भी पूजा करना चाहिए। इससे आपको साढ़े साती से भी निजात मिलता है। शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत करने वाले व्यक्ति को दो गायों के दान के समान पुण्य मिलता है।


शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि प्रदोष व्रत को रखने से आपको दो गायों को दान देने के समान पुण्य मिलता है। इस दिन व्रत रखने और शिव की आराधना करने पर भगवान की कृपा आप पर हमेशा रहती है। जिससे आपको मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत करने से आप और आपका परिवार हमेशा आरोग्य रहता है। साथ ही आप की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

प्रदोष व्रत की पूजा विधि

सबसे पहले इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर सभी नित्य कामों से निवृत्त होकर भगवान शिव का स्मरण करें। साथ ही इस व्रत का संकल्प करें। इस दिन भूल कर भी कोई आहार न लें। शाम को सूर्यास्त होने के एक घंटें पहले स्नान करके सफेद कपडे पहनें। इसके बाद ईशान कोण में किसी एकांत जगह पूजा करने की जगह बनाएं। इसके लिए सबसे पहले गंगाजल से उस जगह को शुद्ध करें फिर इसे गाय के गोबर से लिपे। इसके बाद पद्म पुष्प की आकृति को पांच रंगों से मिलाकर चौक को तैयार करें।

इसके बाद आप कुश के आसन में उत्तर-पूर्व की दिशा में बैठकर भगवान शिव की पूजा करें। भगवान शिव का जलाभिषेक करें साथ में ऊं नम: शिवाय: का जाप भी करते रहें। इसके बाद बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग व इलायची चढ़ाएं। शाम के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें।


शिवजी का षोडशोपचार पूजा करें, जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें। भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती करें। शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात्रि में जागरण करें।

शनि प्रदोष व्रत कथा

स्कंद पुराण के अनुसार प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र को लेकर भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती थी। एक दिन जब वह भिक्षा लेकर लौट रही थी तो उसे नदी किनारे एक सुन्दर बालक दिखाई दिया जो विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था। शत्रुओं ने उसके पिता को मारकर उसका राज्य हड़प लिया था। उसकी माता की मृत्यु भी अकाल हुई थी। ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण किया।

कुछ समय पश्चात ब्राह्मणी दोनों बालकों के साथ देवयोग से देव मंदिर गई। वहां उनकी भेंट ऋषि शाण्डिल्य से हुई। ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को बताया कि जो बालक उन्हें मिला है वह विदर्भदेश के राजा का पुत्र है जो युद्ध में मारे गए थे और उनकी माता को ग्राह ने अपना भोजन बना लिया था। ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी। ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी प्रदोष व्रत करना शुरू किया।

एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया किंतु राजकुमार धर्मगुप्त "अंशुमती" नाम की गंधर्व कन्या से बात करने लगे। गंधर्व कन्या और राजकुमार एक दूसरे पर मोहित हो गए, कन्या ने विवाह करने के लिए राजकुमार को अपने पिता से मिलवाने के लिए बुलाया। दूसरे दिन जब वह दुबारा गंधर्व कन्या से मिलने आया तो गंधर्व कन्या के पिता ने बताया कि वह विदर्भ देश का राजकुमार है। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।

इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुनः आधिपत्य प्राप्त किया। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था। स्कंदपुराण के अनुसार जो भक्त प्रदोषव्रत के दिन शिवपूजा के बाद एक्राग होकर प्रदोष व्रत कथा सुनता या पढ़ता है उसे सौ जन्मों तक कभी दरिद्रता नहीं होती।

Kaka Bhusundi

In Uttarkanda, the last chapter of Ramacharitamanas, we find the teachings on bhakti yoga delivered by Kaka Bhusundi, who was an enlightened sage in the body of a crow, to Garuda, the celestial eagle and vehicle of Lord Vishnu. Kaka Bhusundi is a great bhakta of Sri Rama and teaches all the feathered folk who flock around him about the path of devotion to Sri Rama. Kaka Bhusundi first relates the story of Sri Rama’s life, but it is more than just a story. What he is really conveying is the path of bhakti yoga.



Devotion to God is something we can never understand unless God comes himself in the form of a man. We can conceptualize about some abstract philosophical ideal, but that is not God. As human beings, we can only experience and relate to that God who comes to us in the same form as we are. We can understand our life and the people around us, but we cannot understand something very abstract which we have never experienced or known.

Therefore, the story of Sri Rama is the story of God who was born in the form of a man. This initiates the path of bhakti yoga and brings it into existence for us, because bhakti yoga is the love of God embodied, God born as a man, God made manifest, not the unmanifest God but the God that we can see, touch and relate to. This is the teaching given to Garuda when Kaka Bhusundi told the story of Sri Rama’s life. In this sense, it was more than a story; it was a form of darshan, a vision of God as a man.

After hearing the story of Sri Rama’s life, Garuda’s doubts were resolved and he asked Bhusundi, “But how did such a knowledgeable person as you come to inhabit the body of a crow?” Bhusundi replied, “I was not always in this form, as you see me now. Listen now to the story of how a vainglorious young man gradually becomes transformed into a devotee and then into a pure soul, who is completely merged in God.” So, Bhusundi tells Garuda the story of his own life, and this forms the second part of his teaching, which is a great inspiration, especially for those of us who seek the heights of spiritual life without understanding what this may entail.

Early Life of Kaka Bhusundi

Kaka Bhusundi was not always a crow. Originally he was born in Ayodhya, and as a young man he was very arrogant and proud. In his youth he became a devotee of Lord Shiva and every day he would go to the temple to pray. During this time he met a saint, who was a Brahmana and also a devotee of Lord Shiva, but at the same time full of respect for Sri Rama too. Even though Bhusundi was a young and arrogant fellow, the saint was very kind to him, giving him many teachings and also initiating him into Shiva’s mantra.

Although Bhusundi grew up in Ayodhya, he had a very strong aversion to Sri Rama. Whenever he saw servants or devotees of Sri Rama, he would get very angry and speak rudely to them and about them. The kind saint, who was trying to help and teach him, would daily reproach him for this and ask him not to behave in this way. “Look,” he would say, “the fruit of worshipping Shiva is only faith and devotion to Sri Rama. All the practices you do, all the efforts you make towards attaining the grace of Shiva, will only lead you to the feet of Sri Rama.” However, Bhusundi would become all the more angry and sometimes even shout at his saintly preceptor.

This went on for some time, but the preceptor never reacted. He continually tried to correct Bhusundi, who only wanted to worship Shiva, but in a very egotistical way. One day Bhusundi was doing japa in Lord Shiva’s temple, all the while thinking of himself as a very great meditator, as we sometimes think ourselves to be. He thought he understood the way better than his kind preceptor who had guided and initiated him. I will only follow Lord Shiva, he thought to himself, because Sri Rama is inferior, even repulsive. So, when his preceptor walked into the temple, Bhusundi went right on with his japa and meditation, ignoring him totally as if he wasn’t even there.

Remember that Bhusundi was praying to Lord Shiva, and the saint was also a devotee of Lord Shiva. So when Lord Shiva saw Bhusundi’s behaviour, he spoke aloud in the temple, “You stupid fool! I’ve had enough of your arrogance. Now I’m going to curse you roundly, and you’ll not escape from this curse!” When the preceptor heard that, he became very worried, and young Bhusundi also started to tremble in his seat. Lord Shiva continued: “As you were too lazy and dull-witted to stand up and offer your preceptor due respect when he entered, I’m going to turn you into a serpent. You will henceforth become a python and dwell in the hollow of a tree!” When Lord Shiva spoke thus, the preceptor was overcome with fear and compassion for his errant and ignorant disciple. So he prayed to Lord Shiva, singing a beautiful hymn (Namami shamishana nirvanaroopam, which is in Uttarkanda 107) on behalf of Bhusundi, to mitigate the curse.

Lord Shiva was pleased, because the Lord is always pleased when his devotee is sincere, kind and forgiving. So he said to the preceptor, “Alright, I will grant you any boon.” The preceptor replied, “Well, first give me the boon of always being devoted to your feet. But second, kindly give me another boon!” Shiva agreed, and then the preceptor said, “Forgive Bhusundi, the poor ignorant fellow is just lost in illusion and doesn’t know any better.”

Lord Shiva replied, “My words can never be in vain, but I will try to help him. Even though this curse must come true, it will eventually become a source of blessing for him. He will have to take one thousand sub-human births and live in all the different lower forms, but I will spare his suffering in each birth. He will neither suffer the agony of birth and death nor will he lose the awareness of all his past births. And gradually, because he was born in Ayodhya, and because he worshipped me, he will achieve devotion for Sri Rama.”

Rebirth of Kaka Bhusundi

So it happened that immediately upon leaving the temple, Bhusundi went into the forest, where he dropped his body and started the process of transmigration. He was born as a serpent and then took birth in a thousand other sub-human forms. Each form he assumed dropped away with ease, just as a man casts off old clothes and dons new ones, and his understanding never left him. Finally, at the end of all these transmigrations, he had acquired a deep love for Sri Rama and was born as a Brahmana.
While growing up, Bhusundi was only interested in hearing Sri Lord Rama and enacting his lilas. Sometimes his father would try to educate him, but he was never interested in secular things. He only wanted to know about Sri Rama. Upon reaching maturity, he went to live in the forest. There he moved continually from hermitage to hermitage, asking the different saints, rishis and hermits to tell him about the life of Sri Rama and about his divine qualities. He would listen to these stories and feel happy, and then he would move on again to another hermitage.

All the worldly desires had left him and only one longing grew within his heart – to behold the lotus feet of Sri Rama. The view of an impersonal God, which many of the sages held, did not appeal to him at all, but love for the embodied Lord filled his heart more and more. So he went about the forest singing the praises of Sri Rama with a love which became stronger every moment. Finally he came to the sage Lomasa, who was renowned for his great learning, and asked for guidance on how the embodied Lord should be worshipped.

The great sage recounted a few of Sri Rama’s virtues, and then launched into a long discourse about the glories of the unmanifest supreme spirit, thinking Bhusundi fit to receive such knowledge. But the truth that the individual soul is identical with the formless and attribute-less universal Brahman did not appeal to Bhusundi’s heart. Bowing to the sage, he again asked, “Kindly tell me how to worship the embodied Lord. My mind takes delight in Sri Rama, just as a fish loves to be in water and cannot live outside it. Therefore, O great sage, teach me the method whereby I may be able to see the Lord of Raghus with my own eyes. After seeing the Lord, I will then listen to your discourse on the attribute-less Brahman.”

The sage once again recited the story of Sri Rama, but demolished the doctrine that the Supreme appears in an embodied form, and re-established the proposition that the Supreme is ever without attributes. Bhusundi then reiterated his view with great obstinacy, and so the two entered into a heated discussion. The impassioned sage expounded on the formless God again and again, while Bhusundi responded with questions which advanced his own argument, without listening respectfully to the wisdom of the great sage.

Finally, the sage became infuriated with Bhusundi and spoke the following words, “You refuse to accept the wisdom I am teaching you, and indulge in endless arguments and counter-arguments. You are extremely self-opinionated and, like a crow, look upon everything with distrust. Therefore, you shall at once take the form of a crow.” Bhusundi bowed to the curse pronounced by the sage without any feeling of fear or animosity, and was immediately transformed into a crow. Taking leave of the sage and fixing his thoughts on Sri Rama, Bhusundi joyfully took flight.

When the Lord came to know that his devotee Bhusundi had just received another curse, he confronted the sage and asked him to rectify this mistake. Lomasa was amazed at the extraordinary forbearance and faith shown by Bhusundi and politely called him back, repenting again and again for his harsh action. The sage consoled Bhusundi in every way and then imparted to him the mantra of Sri Rama and the method of meditation on Sri Rama as a child, which pleased him very much. He also recited the entire Ramacharitamanas to Bhusundi and gave him the blessing that devotion to Sri Rama would ever abide in his heart without interruption. At that moment a celestial voice was heard from the heavens, “May your blessing come true, O enlightened sage, for he is my true devotee in thought, word and deed.”

Bhusundi was overjoyed to hear the Lord’s benediction and all his doubts immediately vanished. Asking the sage for permission to depart, Bhusundi went away to his own hermitage, where he continued to live in the form of a crow for twenty-seven cycles of creation. There he remains ever engaged in singing the praises of Sri Rama while the enlightened birds gather around him to listen. Each time the Lord assumes the form of a man in the city of Ayodhya, for the sake of his devotees, Bhusundi goes there to enjoy the spectacle of his childish sports. Again enshrining the image of the child Rama in his heart, he returns to his hermitage.

This was the story Bhusundi imparted to Garuda, the king of birds, when asked how such an enlightened soul came to inhabit the body of a crow. When Garuda asked again why he continued to live in such a lowly form when he could easily take any other, Bhusundi replied, “I love this body only because it was in this form that uninterrupted devotion to Sri Rama sprang up in my heart. I was blessed by the Lord in this body and all my doubts vanished.” Bhusundi upheld the path of devotion for which the great sage cursed him to take the form of a crow. But eventually he obtained the boon which he sought, and which is difficult even for sages to obtain. This is the power of bhakti.

Kaka Bhusundi - Guru Mahima

The greatness of the Guru – Guru Mahima is taught and emphasized in the Uttarkanda of Tulsi Ramayana – Sri Ramacharitamanas. In the Uttarkanda, the last chapter of Sri Ramacharitamanas, Tulsidas speaks about the Mahima or Importance of the Guru and Bhaktiyoga through the teachings of Kaka Bhusundi. The importance of the Guru and the respect that should be given to him are given to us through the words of Lord Shiva.

Each guru was once a disciple and then became a Guru. The original Guru who had no Guru is Sri Dakshinamurthy – Lord Shiva. The importance and status of a Guru are highlighted by Lord Shiva in the instance given by Kaka Bhusundi.  Devotion to God and what  it entails cannot be understood by us unless it is taught to us by God who is the very source of Love. It is very difficult to understand God as an abstract philosophy. Only those who have experienced and merged with God know the way and the beauty and purity of God. Only such people can teach us how to walk the path of God. Such persons are called Gurus.

The lesson for us to learn from this narration is that the Guru is always compassionate and forgives those who insult him. But God will never forgive those who insult the Guru and such people will undergo millions of lives in lower forms and suffer endlessly. Because of his Guru, Bhusundi achieved deep bhakti of Sri Ram but had to undergo the sufferings of the curse of Lord Shiva. Let us look into ourselves and see the countless number of times our egos proclaimed that we know better than the Guru and judge him and find him wanting. Let us recall the various instances where we have been disrespectful to the Guru because of our ego. Let us repent and not do such things again. Only Guru can intervene and protect us from our own misdeeds and failures due to our ego.

Dialogue between Bhusundi and Garuda

Bhusundi gave Garuda his life history spanning many thousands of births and how he finally evolved into a spiritual being with utmost love for Sri Rama. Garuda seeing the high levels of knowledge, wisdom, experience and bhakti in Bhusundi decided to ask him some pertinent questions on the doubts he had about jnana and bhakti,  the relation between them  and also the differences between them.

Bhusundi replied that there was no difference between jnana(knowledge/wisdom) and bhakti. Jnana was one of the paths of reaching God and so was bhakti. Both of them were equally effective in steering the soul in the right direction towards God. Where a person was full of jnana, bhakti would inevitably reside in his heart and where bhakti was manifest in full, wisdom or jnana would manifest in the person. For example, we can see this in the instance of Sri Adi Shankara. He was a great jnani and later on when jnana peaked in him, bhakti flooded him and he wrote many beautiful compositions on the Supreme Shakti which was full of bhakti. Great saints like Tukaram, Meerabai and others walked the path of bhakti and when they were completely drowned in bhakti, they rose to the heights of jnana or wisdom. There is a close and intimate connection between bhakti and jnana and when one quality exists in full force, the other one will also manifest in all its majesty.

Bhusundi the crow compared jnana and bhakti with male and female qualities. Jnana- wisdom, dispassion, yoga and realisation are masculine. Maya and Bhakti are feminine. Even a strong and resolute man will succumb to the charms of a woman unless he is extremely determined and goal oriented. A woman will never succumb to another woman’s charms. Maya never succumbs to the charms of Bhakti, and where Bhakti exists, Maya will not be present. Bhakti is a royal princess and Maya is called a mere dancing girl. Bhakti is beloved to Sri Rama and where there is no Bhakti, Maya presides. When a man develops Bhakti, Maya cannot touch him. When a man is enmeshed in worldly attractions or Maya, Bhakti will not come near him. Maya is terribly jealous of Bhakti as she will not come near a man who has developed strong devotion in his heart as she cannot influence him.

The strong relation between bhakti and jnana will always exist and they do not exist apart from each other. One leads to the other. Understanding this, one must follow the path in which he has ruchi or taste. Only the path of approach is different in jnana and bhakti and on the way they merge into each other and flow in a strong united current towards the goal of enlightenment. The great Kaka Bhusundi is said to be alive even now, chanting away the Rama Nama and speaking endless of the glory of bhakti and Sri Rama. When we do the japa of SitaRam and meditate, we flow with bhakti and end up with jnana.

Friday, August 18, 2017

शनि प्रदोष व्रत - 19 अगस्त को करें ये काम

शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या से बचने के लिए और शनि की कृपा पाने के लिए ये व्रत बहुत ही जरूरी माना जाता है। इस दिन भगवान शिव के साथ शनि की पूजा करने का विशेष फल मिलता है। जिस व्यक्ति के कुंडली में साढ़ेसाती ढैय्या लगा रहता है। उन्हें हर काम में असफलता प्राप्त होती है। कई बीमारियों का सामना करना पड़ता है।



शनिवार और मंगलवार हर व्यक्ति के लिए बहुत खास होते हैं, क्योंकि इन दोनों दिन पूजा-अर्चना करने का विशेष लाभ मिलता है। मंगलवार का दिन हनुमानजी और मंगल देवता की विशेष पूजा का दिन है तो शनिवार शनि और बजरंगबली की आराधना का दिन है।

अगर आपकी कुंडली में भी साढ़ेसाती ढैय्या है या फिर हर काम में सफलता प्राप्त हो रही है, तो शनि प्रदोष व्रत वाले दिन इन उपायों को करें। आपको जरुर लाभ मिलेगा।


  • नौकरी में जल्द ही पदोन्नति पाने के लिए या अच्छी नौकरी पाने के लिये आज के दिन कांसे की कटोरी में तिल का तेल डाले,  उसमें अपना चेहरा देखें और फिर उसे शनिदेव का दान लेने वाले व्यक्ति, यानी डाकोत को दान कर दें। इससे आपकी तरक्की बहुत जल्द होगी।
  • घर और बिजनेस में कभी पैसों की कमी न रहे, इसके लिये आज के दिन काले कुत्ते को तेल से चुपड़ी हुई रोटी खिलाएं और गुड़ भी खिलाएं। इससे हमेशा आपकी बरकत ही बरकत होगी। यह उपाय आप हर शनिवार को कर सकते हैं।
  • अगर आपको अपने बच्चे की पढ़ाई को लेकर हमेशा चिंता बनी रहती है, अगर आपका बच्चा पढ़ाई में कमजोर है, तो आज के दिन सुबह स्नान के बाद एक काले कपड़े में थोड़े-से काले उड़द, सवा किलो अनाज, चाहें तो आप सवा किलो गेहूं भी ले सकते हैं। साथ ही दो बूंदी के लड्डू, कोयला व लोहे की दो कील लपेटकर बहते साफ पानी में प्रवाहित कर दें।
  • प्रदोष व्रत में अन्न नहीं खाया जाता। शनि प्रदोष में शिव जी की पूजा का भी बहुत महत्व है। आज के दिन सबसे पहले शिव मंदिर में जाकर सबसे पहले पंचामृत और गंगाजल से शिव जी को स्नान कराएं और फिर जल से स्नान कराएं। इसके बाद बेल पत्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची आदि से भगवान का पूजन करें और हर बार एक चीज़ चढ़ाते हुए 'ऊं नमः शिवाय' का जाप करना न भूलें। इस दिन भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग जरूर लगाएं और घी का दीपक जलाएं। शिव जी की पूजा के बाद शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और इसी तरह से शाम के समय भी भगवान शिव की पूजा करें।
  • अगर आप कर्ज से परेशान हैं और आपकी आर्थिक स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं चल रही है तो आज के दिन काली गाय को बूंदी के लड्डू खिलाएं और गाय के माथे पर कुमकुम का तिलक लगाकर पूजा करें। प्रदोष व्रत से करके यह उपाय आप हर शनिवार को कर सकते हैं।
  • रोगों से छुटकारा पाने के लिये आज के दिन हो सके तो शनि यंत्र की प्रतिष्ठा करें और उसके सामने सरसों के तेल का दीपक जलाएं। इसके बाद नीले या काले रंग का कोई फूल चढ़ाएं और यंत्र के सामने बैठकर 'ऊं शं शनैश्चराय नम:' मंत्र का 21 बार जाप करें।
  • परिवार को निगेटिव एनर्जी से बचाने के लिए इस मंत्र का जाप करें-

ऊं अघोरेभ्यो अथ घोरेभ्यो, घोर घोरतरेभ्य:
सर्वेभ्यो सर्व शर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्र रूपेभ्य:

Thursday, August 17, 2017

अजा एकादशी

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। भाद्रपद कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम अजा है। यह सब प्रकार के समस्त पापों का नाश करने वाली है। जो मनुष्य इस दिन भगवान ऋषिकेश की पूजा करना चाहिए।



भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी मनाई जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि यह एकादशी बहुत ही पुण्यदायी है। इसदिन विधि-विधान के साथ पूजा-पाठ करने से हर पाप की नाश होती है।

यह व्रत ग्रहस्थ के लिए करना जरूरी हो और काम्य व्रत का मतलब है। जो किसी वांछित वस्तु की प्राप्ति, यानी कि जो ऐश्वर्य, संतति, स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति के लिये किया जाए। साथ ही इस बात का ध्यान रखें कि एकादशी व्रत का पारण चावल से नहीं किया जाता। एकादशी से एक दिन पहले से ही मदिरा आदि के सेवन पर निषेद्ध लगा दिया जाता है।

काल निर्णय के पृष्ठ 257 के अनुसार 8 वर्ष से अधिक और 80 वर्ष से कम हर व्यक्ति को एकादशी का व्रत करना चाहिए और एकादशी पर पका हुआ भोजन नहीं करना चाहिए। फल, मूल, तिल, दूध, जल, घी, पंचद्रव्य और वायु का सेवन करके यह व्रत अवश्य करना चाहिए। जानिए इस क्या उपाय करने से घर में सुख-शांति आती है।


  • एकादशी की शाम तुलसी के सामने गाय के घी का दीपक जलाएं और 'ऊं वासुदेवाय नमः' मंत्र को बोलते हुए तुलसी की 11 परिक्रमा करें। ऐसा करने से आपके घर में सुख-शांति और हर संकट से छुटकारा मिलेगा।
  • इस दिन भगवान विष्ण को पीले रंग के फूल जरुर अर्पित करें। इससे आपकी हर मनोकामना पूर्ण होगी।
  • भगवान विष्णु की पूजा करते समय खीर का भोग लगाएं। साथ ही इस बात का ध्यान रखें कि खीर में तुलसी की पत्तियां जरुर डालें।
  • इस दिन पीले रंग के फल, कपडे व अनाज भगवान विष्णु को अर्पित करें। साथ ही गरीबों को भी दान दें।
  • एकादशी की सुबह स्नान आदि करने के बाद भगवान विष्णु की प्रतिमा का केसर मिले दूध से अभिषेक करें। एकादशी की सुबह स्नान आदि करने के बाद श्रीमद्भागवत कथा का पाठ करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते है।
  • इस दिन तुलसी की माला से 'ऊं नमो वासुदेवाय नमः' का जाप करें। शुभ फल मिलेगा।
कथा


कुंतीपुत्र युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! भाद्रपद कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम अजा है। यह सब प्रकार के समस्त पापों का नाश करने वाली है। जो मनुष्य इस दिन भगवान ऋषिकेश की पूजा करता है उसको वैकुंठ की प्राप्ति अवश्य होती है। अब आप इसकी कथा सुनिए।

प्राचीनकाल में हरिशचंद्र नामक एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था। उसने किसी कर्म के वशीभूत होकर अपना सारा राज्य व धन त्याग दिया, साथ ही अपनी स्त्री, पुत्र तथा स्वयं को बेच दिया।

वह राजा चांडाल का दास बनकर सत्य को धारण करता हुआ मृतकों का वस्त्र ग्रहण करता रहा। मगर किसी प्रकार से सत्य से विचलित नहीं हुआ। कई बार राजा चिंता के समुद्र में डूबकर अपने मन में विचार करने लगता कि मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, जिससे मेरा उद्धार हो।

इस प्रकार राजा को कई वर्ष बीत गए। एक दिन राजा इसी चिंता में बैठा हुआ था कि गौतम ऋषि आ गए। राजा ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और अपनी सारी दु:खभरी कहानी कह सुनाई। यह बात सुनकर गौतम ऋषि कहने लगे कि राजन तुम्हारे भाग्य से आज से सात दिन बाद भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अजा नाम की एकादशी आएगी, तुम विधिपूर्वक उसका व्रत करो।

गौतम ऋषि ने कहा कि इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे। इस प्रकार राजा से कहकर गौतम ऋषि उसी समय अंतर्ध्यान हो गए। राजा ने उनके कथनानुसार एकादशी आने पर विधिपूर्वक व्रत व जागरण किया। उस व्रत के प्रभाव से राजा के समस्त पाप नष्ट हो गए।

इसी दिन इनके पुत्र को एक सांप ने काट लिया और मरे हुए पुत्र को लेकर इनकी पत्नी श्मशान में दाह संस्कार के लिए आई। राजा हरिश्चन्द्र ने सत्यधर्म का पालन करते हुए पत्नी से भी पुत्र के दाह संस्कार हेतु कर मांगा। इनकी पत्नी के पास कर चुकाने के लिए धन नहीं था इसलिए उसने अपनी सारी का आधा हिस्सा फाड़कर राजा का दे दिया।

राजा ने जैसे ही सारी का टुकड़ा अपने हाथ में लिया आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी। देवगण राजा हरिश्चन्द्र की जयजयकार करने लगे। इन्द्र ने कहा कि हे राजन् आप सत्यनिष्ठ व्रत की परीक्षा में सफल हुए। आप अपना राज्य स्वीकार कीजिए।

स्वर्ग से बाजे बजने लगे और पुष्पों की वर्षा होने लगी। उसने अपने मृतक पुत्र को जीवित और अपनी स्त्री को वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त देखा। व्रत के प्रभाव से राजा को पुन: राज्य मिल गया। अंत में वह अपने परिवार सहित स्वर्ग को गया।

अजा एकादशी व्रत विधि

जिस अजा एकादशी के व्रत से राजा हरिश्चन्द्र के पूर्व जन्म के पाप कट गए और खोया हुए राज्य हुआ पुनः प्राप्त हुआ वह अजा एकादशी व्रत इस वर्ष 1 सितम्बर को है। जो व्यक्ति इस व्रत को रखना चाहते हैं उन्हें दशमी तिथि को सात्विक भोजन करना चाहिए ताकि व्रत के दौरान मन शुद्घ रहे।

एकादशी के दिन सुबह सूर्योदय के समय स्नान ध्यान करके भगवान विष्णु के सामने घी का दीपक जलाकर, फलों तथा फूलों से भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। भगवान की पूजा के बाद विष्णु सहस्रनाम अथवा गीता का पाठ करना चाहिए।

व्रती के लिए दिन में निराहार एवं निर्जल रहने का विधान है। लेकिन शास्त्र यह भी कहता है कि बीमार और बच्चे फलाहार कर सकते हैं।

सामान्य स्थिति में रात्रि में भगवान की पूजा के बाद जल और फल ग्रहण कर सकते हैं। इस व्रत में रात्रि जागरण करने का बड़ा महत्व है। द्वादशी तिथि के दिन प्रातः ब्राह्मण को भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए। यह ध्यान रखें कि द्वादशी के दिन बैंगन नहीं खाएं।

अजा एकादशी का पुण्य

पुराणों में बताया गया है कि जो व्यक्ति श्रद्घापूर्वक अजा एकादशी का व्रत रखता है उसके पूर्व जन्म के पाप कट जाते हैं। इस जन्म में सुख-समृद्घि की प्राप्ति होती है। अजा एकादशी के व्रत से अश्वमेघ यज्ञ करने के समान पुण्य की प्राप्ति होती है। मृत्यु के पश्चात व्यक्ति उत्तम लोक में स्थान प्राप्त करता है।

Sunday, August 13, 2017

श्री कृष्णजन्माष्टमी

श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भादों के महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।



श्रीकृष्ण ने भगवान विष्णु के 8वें अवतार के रूप में रोहिणी नक्षत्र के वृष लग्न में जन्म लिया था। भादों का माह भी, सावन की तरह ही पवित्र माना जाता है। इस माह में कुछ विशेष पर्व पड़ते हैं जिनका अपना-अपना अलग महत्त्व होता है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जात है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।



उपवास 

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए।मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है।

मोहरात्रि

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्तिहटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।

व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासीउसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनिबजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है

अपनी मनोकामना को पूरा करने के लिए जन्माष्टमी के दिन कुछ उपाय करने से शुभ माना जाता है। इस दिन भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने से माता लक्ष्मी भी प्रसन्न हो जाती हैं।धन प्राप्त करने के लिए जन्माष्टमी के दिन सुबह स्नान करने के बाद राधा-कृष्ण मंदिर में जाकर भगवान कृष्ण को पीले माला अर्पित करना चाहिए।जन्माष्टमी के दिन दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर भगवान कृष्ण का अभिषेक करें। इस उपाय को करने से भगवान कृष्ण के साथ माता लक्ष्मी भी प्रसन्न होती है और मन की मुराद पूरी होती है।भगवान श्रीकृष्ण की विशेष कृपा पाने के लिए सफेद मिठाई, साबुदाने या फिर खीर बनाकर भोग लगाएं और उसमें मिश्री और तुलसी के पत्ते डालें। इससे भगवान श्रीकृष्ण जल्दी ही प्रसन्न हो जाते हैं।किसी भी काम में कभी कोई बाधा न आए तो इसके लिए जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण मंदिर में जटा वाला नारियल और 11 बादाम चढ़ाएं।नौकरी में तरक्की के लिए जन्माष्टमी के दिन खीर बनाकर कन्याऔं को खिलाएं। ऐसा करने से भगवान श्री कृष्ण की विशेष कृपा प्राप्त होती है।

देवताओं में भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अकेले ऐसे अवतार हैं जिनके जीवन के हर पड़ाव के अलग रंग दिखाई देते हैं। उनका बचपन लीलाओं से भरा पड़ा है। उनकी जवानी रासलीलाओं की कहानी कहती है, एक राजा और मित्र के रूप में वे भगवद् भक्त और गरीबों के दुखहर्ता बनते हैं तो युद्ध में कुशल नितिज्ञ। महाभारत में गीता के उपदेश से कर्तव्यनिष्ठा का जो पाठ भगवान श्री कृष्ण ने पढ़ाया है आज भी उसका अध्ययन करने पर हर बार नये अर्थ निकल कर सामने आते हैं। भगवान श्री कृष्ण के जन्म लेने से लेकर उनकी मृत्यु तक अनेक रोमांचक कहानियां है। इन्ही श्री कृष्ण के जन्मदिन को हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले और भगवान श्री कृष्ण को अपना आराध्य मानने वाले जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन भगवान श्री कृष्ण की कृपा पाने के लिये भक्तजन उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण की पूजा अर्चना करते हैं।

जन्माष्टमी व्रत व पूजा विधि 
                               
जन्माष्टमी की पूर्व रात्रि हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर बैठें। इसके बाद हाथ में जल लेकर संकल्प करें।

अब मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए प्रसूति-गृह  का निर्माण करें।  तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।

मूर्ति या प्रतिमा में बालकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी अथवा लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों। या ऐसी कृष्ण के जीवन के किसी भी अहम वृतांत का भाव हो।

तत्पश्चात विधि-विधान से पूजन करें और प्रभु कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त करें।

व्रत अगले दिन सूर्योदय के पश्चात ही तोड़ा जाना चाहिए। इसका ध्यान रखना चाहिए कि व्रत अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने के पश्चात ही तोड़ा जाएं। किन्तु यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्यास्त से पहले समाप्त ना हो, तो किसी एक के समाप्त होने के पश्चात व्रत तोड़े। किन्तु यदि यह सूर्यास्त तक भी संभव ना हो, तो दिन में व्रत ना तोड़े और अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में से किसी भी एक के समाप्त होने की प्रतीक्षा करें या निशिता समय में व्रत तोड़े। ऐसी स्थिति में दो दिन तक व्रत न कर पाने में असमर्थ, सूर्योदय के पश्चात कभी भी व्रत तोड़ सकते हैं।

जन्माष्टमी व्रत तिथि व शुभ मुहूर्त

जन्माष्टमी व्रत तिथि - 14 अगस्त 2017
निशिथ पूजा– 00:03 से 00:47 (15 अगस्त 2017)
पारण– 17:39 (15 अगस्त 2017) के बाद
रोहिणी समाप्त - रोहिणी रहित जन्माष्टमी
अष्टमी तिथि आरंभ – 19:45 (14 अगस्त 2017)
अष्टमी तिथि समाप्त – 17:39 (15 अगस्त 2017)


ऐसे  करें पूजा

भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को आधी रात में श्री कृष्ण का जन्म हुआ था इसलिए इसी दिन यह व्रत करना चाहिए। इस दिन आप पूरे दिन व्रत रखें और भगवान हरि की पूजा मंत्रों से करके रोहिणी नक्षत्र के अंत में पारण करें। अर्द्ध रात्रि में जब आज श्री कृष्ण की पूजा करें तो उन्हे सबसे पहलें स्नान कराए। स्नान कराते वक्त इस मंत्र का ध्यान करें-
"ऊं यज्ञाय योगपतये योगेश्रराय योग सम्भावय गोविंदाय नमो नम:"

इसके बाद श्री हरि की पूजा इस मंत्र के साथ करनी चाहिए
"ऊं यज्ञाय यज्ञेराय यज्ञपतये यज्ञ सम्भवाय गोविंददाय नमों नम:"

इसके बाद श्री कृष्ण के पालने में विराजमान करा कर इस मंत्र के साथ सुलाना चाहिए-
"विश्राय विश्रेक्षाय विश्रपले विश्र सम्भावाय गोविंदाय नमों नम:"

जब आप श्री परि को शयन करा चुके हो इसके बाद एक पूजा का चौक और मंडप बनाए और श्रीकृष्ण के साथ रोहिणी और चंद्रमा की भी पूजा करें। उसके बाद शंख में चंदन युक्त जल लेकर अपने घुटनों के बल बैठकर चंद्रमा का अर्द्ध इस मंत्र के साथ करें।

श्री रोदार्णवसम्भुत अनिनेत्रसमुद्धव।
ग्रहाणार्ध्य शशाळेश रोहिणा सहिते मम्।।

इसका मतलब हुआ कि हे सागर से उत्पन्न देव हे अत्रिमुनि के नेत्र से समुभ्छुत हे चंद्र दे!  रोहिणी देवी के साथ मेरे द्वारा दि गए अर्द्ध को आप स्वीकार करें।  इसके बाद नंदननंतर वर्त को महा लक्ष्मी, वसुदेव, नंद, बलराम तथा यशोदा को फल के साथ अर्द्ध दे और प्रार्थना करें कि हे देव जो अनन्त, वामन. शौरि बैकुंठ नाथ पुरुषोत्म, वासुदेव, श्रृषिकेश, माघव, वराह, नरसिंह, दैत्यसूदन, गोविंद, नारायण, अच्युत, त्रिलोकेश, पीताम्बरधारी, नारा.ण चतुर्भुज, शंख चक्र गदाधर, वनमाता से विभूषित नाम लेकर कहे कि जिसे देवकी से बासुदेव ने उत्पन्न किया है जो संसार , ब्राह्मणो की रक्षा क् लिए अवतरित हुए है। उस ब्रह्मारूप भगवान श्री कृष्ण को मै नमन करती हूं।

इस तरह भगवान की पूजा के बाद घी-धूप से उनकी आरती करते हुए जयकारा लगाना चाहिए औऱ प्रसाद ग्रहण करनें का बाद ही जाना चाहिए।


Thursday, August 10, 2017

संकष्टी चर्तुथी

आज संकष्टी श्री गणेश चतुर्थी व्रत है। यह चतुर्थी बहुला चतुर्थी या बहुला चौथ के नाम से भी चर्चित है। वैसे तो संकष्टी श्री गणेश चतुर्थी का व्रत हर माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को आता है, लेकिन साल में माघ, श्रावण, मार्गशीर्ष और भाद्रपद के महीने में संकष्टी श्री गणेश चतुर्थी के व्रत का विशेष महत्व है। इस दिन गणपति के एकदंत रूप की पूजा का विधान है।



भादो मास की इस चतुर्थी का व्रत रखने से सब तरह के संकटों से छुटकारा मिलता है और आपकी इच्छा पूरी होती हैं। साथ ही संतान सुख की प्राप्ति और उसकी लंबी आयु की कामना के लिए माताओं को यह व्रत अवश्य रखना चाहिए।

शुभ मुहूर्त

चुर्थी तिथि कल रात 11 बजकर 27 मिनट से लग गई है। जो कि आज रात 10 बजकर 35 मिनट तक रहेगी।

पूजा विधि

गणेश जी की मिट्टी की मूर्ती, कलश, चंदन, रोली, अबीर, धूपबत्ती, सिंदूर, कपूर, फल-फूल, 108 दूब, घी का दीपक, पान-सुपारी, पंचामृत, बेसन के लड्‌डू का प्रसाद, चौक पूरने के लिए आटा, चावल, गंगा जल, इत्र तथा हवन सामग्री।  इस दिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्नान आदि के बाद दाएं हाथ में फूल, अक्षत और जल लेकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इस व्रत में पूरा दिन बिना अन्न के रहने का विधान है और शाम के समय गणेश जी की विधि-विधान से पूजा करने के बाद चन्द्रमा के दर्शन करने पर ही व्रत तोड़ा जाता है।

शाम के समय फिर से नहा-धोकर, साफ कपड़े पहनकर एक साफ स्थान पर या मंदिर में ही आटे से चौक पूरकर गणेश जी की मिट्टी से बनी मूर्ति को मिट्टी के कलश पर स्थापित करें और भगवान को नये वस्त्र चढ़ाएं। उसके बाद धूप-दीप, गंध, फूल, अक्षत, रोली आदि से गणेश जी का पूजन करें और बेसन के लड्डूओं या मोदक का भोग लगाएं।

गणेश पूजा में एक बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि गणेश जी को कभी भी तुलसी पत्र ना चढ़ाएं। इस तरह गणेश भगवान की पूजा के बाद चन्द्रमा के उगने पर उन्हें अक्षत, जल और भोग से अर्घ्य दें।

स्मृति कौस्तुभ के पृष्ठ 171 से 177, व्रतरत्नाकर के पृष्ठ 120 से 127 और धर्मसिन्धु के पृष्ठ 74 के अनुसार- चतुर्थी के दिन चन्द्रोदय अर्थात् सूर्यास्त के बाद 8 घटिकाओं के समय गणेश-प्रतिमा पूजा, कलश-स्थापना, 16 उपचार, 1008, 108, 28 या 8 मोदकों का निर्माण, दिन भर उपवास या चन्द्रोदय होने तक भोजन ग्रहण न करना, जीवन भर या 21 वर्षों तक या एक वर्ष तक व्रत, दान तथा 21 ब्राहम्णों को भोजन कराना चाहिए। कहा जाता है कि तारकासुर को हराने के लिए शिव जी ने भी इस व्रत को किया था।  

इस दिन गाय और बछड़ा पूजन का भी विशेष महत्व है। आज शाम के समय गाय और उसके बछड़े की पूजा जरूर करें और उन्हें जौ व सत्तू का भोग लगाएं। व्रत के पारण में भी यही भोग लिया जाता है और चन्द्रदेव को भी इसी भोग का अर्घ्य दिया जाता है। माना जाता है कि इस दिन गेहूं एवं चावल से बनी चीज़ों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। साथ ही दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन करना भी वर्जित है। इस दिन गाय के दूध पर केवल उसके बच्चे, यानी बछड़े का ही अधिकार होता है।

स्थान आधारित संकष्टी चतुर्थी के दिन

यह जानना महत्वपूर्ण है कि संकष्टी चतुर्थी के उपवास का दिन दो शहरों के लिए अलग-अलग हो सकता है। यह जरुरी नहीं है कि दोनों शहर अलग-अलग देशों में हों क्योंकि यह बात भारत वर्ष के दो शहरों के लिए भी मान्य है। संकष्टी चतुर्थी के लिए उपवास का दिन चन्द्रोदय पर निर्धारित होता है। जिस दिन चतुर्थी तिथि के दौरान चन्द्र उदय होता है उस दिन ही संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखा जाता है। इसीलिए कभी कभी संकष्टी चतुर्थी का व्रत, चतुर्थी तिथि से एक दिन पूर्व, तृतीया तिथि के दिन पड़ जाता है।

क्योंकि चन्द्र उदय का समय सभी शहरों के लिए अलग-अलग होता है इसीलिए संकष्टी चतुर्थी के व्रत की तालिका का निर्माण शहर की भूगोलिक स्थिति को लेकर करना अत्यधिक जरुरी है।