Monday, July 31, 2017

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रमुख शहर इंदौर से ७७ किमी की दुरी पर स्थित है .हिंदू मान्यता के अनुसार ज्योतिर्लिंग वे स्थान कहलाते हैं जहाँ पर भगवान शिव प्रकट हुए थे एवं ज्योति रूप में स्थापित हैं।
 
श्री ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ऐसा एकमात्र ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तर तट पर स्थित है.यहाँ भगवान शिव ओम्कार स्वरुप में प्रकट हुए हैं. एवं ऐसा माना जाता है की भगवान शिव प्रतिदिन तीनो लोकों में भ्रमण के पश्चात यहाँ आकर विश्राम करते हैं. अतएव यहाँ प्रतिदिन भगवान शिव की शयन आरती की जाती है, एवं भक्तगण एवं तीर्थयात्री विशेष रूप से शयन दर्शन के लिए यहाँ आते हैं।



द्वादश ज्योतिर्लिंग में चौथा ओम्कारेश्वर है | जिस ओमकार का उच्चारण सर्वप्रथम स्रष्टिकरता विधाता प्रजापति पितामह ब्रह्मा के मुख से हुआ | वेद का पाठ सर्वप्रथम ॐ के बिना नहीं होता है | पुराणों में संकद पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में ओम्कारेश्वर शेत्र की महिमा उल्लेख है | ओम्कारेश्वर में ६८ तीर्थ है | यहाँ ३३ करोड़ देवता विराजमान है | परम तपस्थली दिव्या रूप में यहाँ पर १०८ प्रभावशाली शिवलिंग है | ८४ योजन का विस्तार करने वाली माँ नर्मदा का विराट स्वरुप है | इस प्रणव ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से समस्त पाप भस्म हो जाते है ।

  कावेरिका नार्मद्यो: पवित्र समागमे सज्जन तारणाय | 
सदैव मंधातत्रपुरे वसंतम ,ओमकारमीशम् शिवयेकमीडे ||

अर्थ:- कावेरी एवं नर्मदा नदी के पवित्र संगम पर सज्जनों के तारण के लिए, सदा ही मान्धाता की नगरी में विराजमान श्री ओंकारेश्वर जो स्वयंभू हैं वही ज्योतिर्लिंग है।      

-आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित

ॐकारेश्वर एक हिन्दू मंदिर है। यह मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगओं में से एक है। यह यहां के मोरटक्का गांव से लगभग 12 मील (20 कि॰मी॰) दूर बसा है। यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है। यहां दो मंदिर स्थित हैं।

ॐकारेश्वर
अमरेश्वर

ॐकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी से स्वतः ही हुआ है। यह नदी भारत की पवित्रतम नदियों में से एक है और अब इस पर विश्व का सर्वाधिक बड़ा बांध परियोजना का निर्माण हो रहा है।



जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है।

इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं तथा 2 ज्योतिस्वरूप लिंगों सहित 108 प्रभावशाली शिवलिंग हैं। मध्यप्रदेश में देश के प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग विराजमान हैं। एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ममलेश्वर (अमलेश्वर) के रूप में विराजमान हैं।

देवी अहिल्याबाई होलकर की ओर से यहाँ नित्य मृत्तिका के 18 सहस्र शिवलिंग तैयार कर उनका पूजन करने के पश्चात उन्हें नर्मदा में विसर्जित कर दिया जाता है। ओंकारेश्वर नगरी का मूल नाम 'मान्धाता' है। राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया। तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी। जिस ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है। इस ओंकार का भौतिक विग्रह ओंकार क्षेत्र है। इसमें 68 तीर्थ हैं। यहाँ 33 करोड़ देवता परिवार सहित निवास करते हैं।



इस मंदिर में शिव भक्त कुबेर ने तपस्या की थी तथा शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसे शिव ने देवताओ का धनपति बनाया था I कुबेर के स्नान के लिए शिवजी ने अपनी जटा के बाल से कावेरी नदी उत्पन्न की थी I यह नदी कुबेर मंदिर के बाजू से बहकर नर्मदाजी में मिलती है, जिसे छोटी परिक्रमा में जाने वाले भक्तो ने प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा है, यही कावेरी ओमकार पर्वत का चक्कर लगते हुए संगम पर वापस नर्मदाजी से मिलती हैं, इसे ही नर्मदा कावेरी का संगम कहते है I # धनतेरस पूजन # इस मंदिर पर प्रतिवर्ष दिवाली की बारस की रात को ज्वार चढाने का विशेष महत्त्व है इस रात्रि को जागरण होता है तथा धनतेरस की सुबह ४ बजे से अभिषेक पूजन होता हैं इसके पश्चात् कुबेर महालक्ष्मी का महायज्ञ, हवन, (जिसमे कई जोड़े बैठते हैं, धनतेरस की सुबह कुबेर महालक्ष्मी महायज्ञ नर्मदाजी का तट और ओम्कारेश्वर जैसे स्थान पर होना विशेष फलदायी होता हैं) भंडारा होता है लक्ष्मी वृद्धि पेकेट (सिद्धि) वितरण होता है, जिसे घर पर ले जाकर दीपावली की अमावस को विधि अनुसार धन रखने की जगह पर रखना होता हैं, जिससे घर में प्रचुर धन के साथ सुख शांति आती हैं I इस अवसर पर हजारों भक्त दूर दूर से आते है व् कुबेर का भंडार प्राप्त कर प्रचुर धन के साथ सुख शांति पाते हैं I नवनिर्मित मंदिर प्राचीन मंदिर ओम्कारेश्वर बांध में जलमग्न हो जाने के कारण भक्त श्री चैतरामजी चौधरी, ग्राम - कातोरा (गुर्जर दादा) के अथक प्रयास से नवीन मंदिर का निर्माण बांध के व् ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के बीच नर्मदाजी के किनारे २००६-०७ बनाया गया हैं ।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ज्योतिर्लिंग को शिव महापुराण में ‘परमेश्वर लिंग’ कहा गया है। यह परमेश्वर लिंग इस तीर्थ में कैसे प्रकट हुआ अथवा इसकी स्थापना कैसे हुई, इस सम्बन्ध में शिव पुराण की कथा इस प्रकार है।



शिव पुराण में वर्णित कथा-

एक बार मुनिश्रेष्ठ नारद ऋषि घूमते हुए गिरिराज विन्ध्य पर पहुँच गये। विन्ध्य ने बड़े आदर-सम्मान के साथ उनकी विधिवत पूजा की। ‘मैं सर्वगुण सम्पन्न हूँ, मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है, किसी वस्तु की कमी नहीं है’- इस प्रकार के भाव को मन में लिये विन्ध्याचल नारद जी के समक्ष खड़ा हो गया। अहंकारनाशक श्री नारद जी विन्ध्याचल की अभिमान से भरी बातें सुनकर लम्बी साँस खींचते हुए चुपचाप खड़े रहे। उसके बाद विन्ध्यपर्वत ने पूछा- ‘आपको मेरे पास कौन-सी कमी दिखाई दी? आपने किस कमी को देखकर लम्बी साँस खींची?’

नारद जी ने विन्ध्याचल को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उस पर्वत के शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों तक पहुँचा हुआ है। मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर के भाग वहाँ तक कभी नहीं पहुँच पाएंगे। इस प्रकार कहकर नारद जी वहां से चले गए। उनकी बात सुनकर विन्ध्याचल को बहुत पछतावा हुआ। वह दु:खी होकर मन ही मन शोक करने लगा। उसने निश्चय किया कि अब वह विश्वनाथ भगवान सदाशिव की आराधना और तपस्या करेगा। इस प्रकार विचार करने के बाद वह भगवान शंकर जी की सेवा में चला गया। जहाँ पर साक्षात ओंकार विद्यमान हैं। उस स्थान पर पहुँचकर उसने प्रसन्नता और प्रेमपूर्वक शिव की पार्थिव मूर्ति (मिट्टी की शिवलिंग) बनाई और छ: महीने तक लगातार उसके पूजन में तन्मय रहा।

वह शम्भू की आराधना-पूजा के बाद निरन्तर उनके ध्यान में तल्लीन हो गया और अपने स्थान से इधर-उधर नहीं हुआ। उसकी कठोर तपस्या को देखकर भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचल को अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर दिखाया, जिसका दर्शन बड़े – बड़े योगियों के लिए भी अत्यन्त दुर्लभ होता है। सदाशिव भगवान प्रसन्नतापूर्वक विन्ध्याचल से बोले- ‘विन्ध्य! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं अपने भक्तों को उनका अभीष्ट वर प्रदान करता हूँ। इसलिए तुम वर माँगो।’ विन्ध्य ने कहा- ‘देवेश्वर महेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो भक्तवत्सल! हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली वह अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें!’ विन्ध्यपर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने उससे कहा कि- ‘पर्वतराज! मैं तुम्हें वह उत्तम वर (बुद्धि) प्रदान करता हूँ। तुम जिस प्रकार का काम करना चाहो, वैसा कर सकते हो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’

भगवान शिव ने जब विन्ध्य को उत्तम वर दे दिया, उसी समय देवगण तथा शुद्ध बुद्धि और निर्मल चित्त वाले कुछ ऋषिगण भी वहाँ आ गये। उन्होंने भी भगवान शंकर जी की विधिवत पूजा की और उनकी स्तुति करने के बाद उनसे कहा- ‘प्रभो! आप हमेशा के लिए यहाँ स्थिर होकर निवास करें।’ देवताओं की बात से महेश्वर भगवान शिव को बड़ी प्रसन्नता हुई। लोकों को सुख पहुँचाने वाले परमेशवर शिव ने उन ऋषियों तथा देवताओं की बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।

वहाँ स्थित एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। प्रणव के अन्तर्गत जो सदाशिव विद्यमान हुए, उन्हें ‘ओंकार’ नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार पार्थिव मूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, वह ‘परमेश्वर लिंग’ के नाम से विख्यात हुई। परमेश्वर लिंग को ही ‘अमलेश्वर’ भी कहा जाता है। इस प्रकार भक्तजनों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले ‘ओंकारेश्वर’ और ‘परमेश्वर’ नाम से शिव के ये ज्योतिर्लिंग जगत में प्रसिद्ध हुए।



नर्मदा क्षेत्र में ओंकारेश्वर सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। शास्त्र मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री देश के भले ही सारे तीर्थ कर ले किन्तु जब तक वह ओंकारेश्वर आकर किए गए तीर्थों का जल लाकर यहाँ नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे माने जाते हैं। ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में 15 दिन का स्नान तथा गंगाजी में 7 दिन का स्नान जो फल प्रदान करता है, उतना पुण्यफल नर्मदाजी के दर्शन मात्र से प्राप्त हो जाता है।

ओंकारेश्वर तीर्थ क्षेत्र में चौबीस अवतार, माता घाट (सेलानी), सीता वाटिका, धावड़ी कुंड, मार्कण्डेय शिला, मार्कण्डेय संन्यास आश्रम, अन्नपूर्णाश्रम, विज्ञान शाला, बड़े हनुमान, खेड़ापति हनुमान, ओंकार मठ, माता आनंदमयी आश्रम, ऋणमुक्तेश्वर महादेव, गायत्री माता मंदिर, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, आड़े हनुमान, माता वैष्णोदेवी मंदिर, चाँद-सूरज दरवाजे, वीरखला, विष्णु मंदिर, ब्रह्मेश्वर मंदिर, सेगाँव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, नरसिंह टेकरी, कुबेरेश्वर महादेव, चन्द्रमोलेश्वर महादेव के मंदिर भी दर्शनीय हैं।

नर्मदा किनारे जो बस्ती है उसे विष्णुपुरी कहते हैं। यहाँ नर्मदाजी पर पक्का घाट है। सेतु (अथवा नौका) द्वारा नर्मदाजी को पार करके यात्री मान्धाता द्वीपमें पहुँचता है। उस ओर भी पक्का घाट है। यहाँ घाट के पास नर्मदाजी में कोटितीर्थ या चक्रतीर्थ माना जाता है । यहीं स्नान करके यात्री सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऑकारेश्वर-मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। मन्दिर तट पर ही कुछ ऊँचाई पर है।

मन्दिर के अहाते में पञ्चमुख गणेशजी की मूर्ति है। प्रथम तल पर ओंकारेश्वर लिंग विराजमान हैं। श्रीओंकारेश्वर का लिङ्ग अनगढ़ है। यह लिङ्ग मन्दिर के ठीक शिखर के नीचे न होकर एक ओर हटकर है। लिङ्ग के चारों ओर जल भरा रहता है। मन्दिर का द्वार छोटा है। ऐसा लगता है जैसे गुफा में जा रहे हों। पास में ही पार्वतीजी की मूर्ति है। ओंकारेश्वर मन्दिर में सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंजिल पर जाने पर महाकालेश्वर लिङ्ग के दर्शन होते हैं। यह लिङ्ग शिखर के नीचे है। तीसरी मंजिल पर सिद्धनाथ लिङ्ग है। यह भी शिखर के नीचे है। चौथी मंजिल पर गुप्तेश्वर लिङ्ग है। पांचवीं मंजिल पर ध्वजेश्वर लिङ्ग है।


Thursday, July 27, 2017

Garuda Panchami

Garuda Panchami is a festival celebrated to commemorate the birth of Garuda, an ardent devotee and the bird carrier of Lord Vishnu. The fifth day of the waxing moon in the month of Shravana, is celebrated as Garuda Panchami. Garuda is the son of Vinata and Kashyapa Muni and lives on the planet known as Salmalidvipa where he is constantly offering prayers to Lord Vishnu.




garudo bhagavan stotra-stobhash chandomayah prabhuh
rakshatv ashesha-kricchrebhyo vishvaksenah sva-namabhih

Lord Garuda, the carrier of Lord Vishnu, is the most worshipable lord, for he is as powerful as the Supreme Lord Himself. He is the personified Vedas and is worshiped by selected verses. May he protect us from all dangerous conditions, and may Lord Vishwaksena, the Personality of Godhead, also protect us from all dangers by His holy names.

Lord Krishna says in the Bhagavad-gita – vainateyash ca pakshinam, “Among the birds, I am Garuda.” Garuda carries Lord Vishnu on his back always and therefore he is considered as the transcendental prince of all carriers.

In the Vedic literature it is stated that the two wings of the transcendental bird Garuda, are two divisions of the Sama Veda known as brihat and rathantara. When Garuda flaps his wings, one can hear the chanting of the hymns from Sama Veda. Garuda is engaged in eternal service to Lord Vishnu in Vaikuntha. Every temple of Lord Vishnu has a Deity of Sri Garuda sitting in front of the Lord with folded hands.

Garuda is also known by the names: Pakshiraja, Vainateya, Suparna, Garuthman, Periya Tiruvadi, Vinatasuta, Vishnuvahana, Nagantaka and Kashyapeya.

Legend has it that the day remembers Garuda’s love and devotion for his mother Vinita. Thus the day celebrates mother – son relationship. In some regions, married women observe it for a happy married life.

Garuda Panchami Puja is mainly observed by certain Hindu communities in Andhra Pradesh, Telengana, Karnataka, Gujarat and Maharashtra.  On this day Lord Garuda is worshipped along with Nagadevatha (Sesha Devaru). Devotees believe this day to be Garuda Jayanthi the day on which Garuda was born. On this day special celebrations are held at the holy Tirumala temple where Malayappa Swamy (Lord Venkateshwara) is taken out in procession on Garuda Vahana. Garudaadri is one of the seven hills among the Tirumala hills named after Garuda.

Said to be an embodiment of Vedas (Veda Swaroopi) Garuda is prominently eulogized in Puranas for his knowledge, strength and power. With the head and wings of an Eagle, with a strong nose and body of a human, Garuda is regarded as the King of birds (Pakshiraja). We find his reference in several Puranas.

Garuda Purana is one of the Ashtadasa Puranas; exclusively dedicated in the name of Garuda. This shows Garuda’s prominence in Hindu philosophy. Garuda Purana is regarded as a Saattvik Purana.

Garuda was born to Kashyapa Prajapathi and his wife Vinitha. Anoora the Rathasaarathi (charioteer) of Surya the Sun God is his brother. Serpents are his Gnathis (step brothers) born to Kadhru another wife of Sage Kashyapa and sister of Vinitha.

Garuda stands for the majestic Eagle, soaring high in the air, sharp and agile. The mighty bird, Garuda is also known by other names viz. Garuthmantha, Vynatheya, Suparna, Naagaanthaka, Pakshiraja and Vinathasutha.

Garuda is the Divine Vehicle or Vaahana (chief mount) of Lord Vishnu carrying him on his shoulders and thus Lord Vishnu is called as Garudavahana. An ardent devotee of Lord Vishnu, Garuda always resides in Sri Vaikunta engaged in eternal service to Lord SriManNarayana.

Panchamukha Aanjaneya Swamy (five headed Hanuman) is depicted as having Garuda as one of the five faces facing west.

Tuesday, July 25, 2017

Nag Panchami

Nag Panchami is a traditional worship of snakes or serpents observed by Hindus throughout India and also in Nepal. The worship is offered on the fifth day of bright half of Lunar month of Shravan (July/August), according to the Hindu calendar. The abode of snakes is believed to be patal lok, (the seven realms of the universe located below the earth) and lowest of them is also called Naga-loka, the region of the Nagas, as part of the creation force and their blessings are sought for the welfare of the family.Serpent deity made of silver, stone or wood or the painting of snakes on the wall are given a bath with milk and then revered.



According to Hindu puranic literature, Kashyapa, son of Lord Brahma, the creator had four consorts and the third wife was Kadroowho belonged to the Naga race of the Pitru Loka and she gave birth to the Nagas; among the other three, the first wife gave birth toDevas, the second to Garuda and the fourth to Daityas.

In the Mahabharata epic story, Astika, the Brahmin son of Jaratkarus, who stopped the Sarpa Satra of Janamejaya, king of the Kuru empire which lasted for 12 years is well documented. This yagna was performed by Janamejaya to decimate the race of all snakes, to avenge for the death of his father Parikshit due to snake bite of Takshaka, the king of snakes. The day that the yagna (fire sacrifice) was stopped, due to the intervention of the Astika, was on the Shukla Paksha Panchami day in the month of Shravan when Takshaka, the king of snakes and his remaining race at that time were saved from decimation by the Sarpa Satra yagna. Since that day, the festival is observed as Nag Panchami.
There are many legends in Hindu mythology and folklore narrated to the importance of worship of snakes, such as in the Mahabharata. Indian mythological scriptures such as Agni Purana, Skanda Purana, Narada Purana and Mahabharata give details of history of snakes extolling worship of snakes.



In the Mahabharata epic, Janamejeya, the son of King Parikshit of Kuru dynasty was performing a snake sacrifice known as Sarpa Satra, to avenge for the death of his father from a snake bite by the snake king called Taksaka. A sacrificial fireplace had been specially erected and the fire sacrifice to kill all snakes in the world was started by a galaxy of learned Brahmin sages. The sacrifice performed in the presence of Janamejaya was so powerful that it was causing all snakes to fall into the Yagna kunda (sacrificial fire pit). When the priests found that only Takshaka who had bitten and killed Parisksihit had escaped to the nether world of Indra seeking his protection, the sages increased the tempo of reciting the mantras (spells) to drag Takshaka and also Indra to the sacrificial fire. Takshaka had coiled himself around Indra’s cot but the force of the sacrificial yagna was so powerful that even Indra along with Takshaka were dragged towards the fire. This scared the gods who then appealed to Manasadevi to intervene and resolve the crisis. She then requested her son Astika to go to the site of the yagna and appeal to Janamejaya to stop the Sarpa Satra yagna. Astika impressed Janamejaya with his knowledge of all the Sastras (scriptures) who granted him to seek a boon. It was then that Astika requested Janamejeya to stop the Sarpa Satra. Since the king was never known to refuse a boon given to a Brahmin, he relented, in spite of protects by the rishis performing the yagna. The yagna was then stopped and thus the life of Indra and Takshaka and his other serpent race were spared. This day, according to the Hindu Calendar, happened to be Nadivardhini Panchami (fifth day of bright fortnight of the lunar month of Shravan during the monsoon season) and since then the day is a festival day of the Nagas as their life was spared on this day. Indra also went to Manasadevi and worshipped her.
According to Garuda Purana offering prayers to snake on this day is auspicious and will usher good tidings in one’s life. This is to be followed by feeding Brahmins. Interestingly it is also termed as Garuda Panchami– as Garuda or the royal eagle is the natural enemy of the Snakes and serpents, worshiping Garuda on this day also grants a protective shield against all snake related malefic conditions in ones natal chart.



Another associated legend claims that the celebration of Naga Panchami is the victory of Lord Krishna over the mythical Kaliya, a monstrous black serpent that was killed by Krishna in the Yamuna river. Kalia had terrorized the villagers and Krishna was assigned to tame him. It is believed that the tussle that happened between Krishna and Kalia- the serpent is so famous that when Krishna emerged winner, he stood on the hood of the snake and the Snake acquired the feet impressions of the Lord as a mark of servility. The story is called as the “Kaliya Mardan” It is also believed that seeing the footprints of Lord Krishna- the Avataar of Lord Vishnu, Garuda(the eagle) who is the natural enemy of the serpent, does not harm it. There is an interesting story of why the Eagle and the Snakes are mortal natural enemies.

Apart from the scriptural mention about snakes and the festival, there are also many folk tales. On such tale is of a farmer living in a village. He had two sons and one of whom killed three snakes during ploughing operations. The mother of the snake took revenge on the same night by biting the farmer, his wife and two children and they all died. Next day the farmer’s only surviving daughter, distraught and grieved by the death of her parents and brothers, pleaded before the mother snake with an offering of a bowl of milk and requested for forgiveness and to restore the life of her parents and brothers. Pleased with this offering the snake pardoned them and restored the farmer and his family to life.

In folklore, snakes also refer to the rainy season - the varsha ritu in Sanskrit. They are also depicted as deities of ponds and rivers and are said to be the embodiment of water as they spring out of their holes, like a spring of water.

Nag Panchami Puja

Nag Panchami Puja Muhurat = 07:01 to 08:31
Duration = 1 Hour 30 Mins
Panchami Tithi Begins = 07:01 on 27/Jul/2017
Panchami Tithi Ends = 06:38 on 28/Jul/2017

(Time varies from city to city)

Rituals observed this day:

1. People go to temples and snake pits in temples to worship the Nagas.
2. People fast on the Panchami day and take food only in the evening.
3. By praying the Naga Devatas one is freed from the fear of snakes and serpents and it is also believed to protect us from all evils.
4. The person who performs worship of the serpents on Naga Panchami day should not dig the ground for farming or for any other reason.
5. It definitely rains on this day as it is believed that the gods shower their blessings in the form of rain on the hood of the snake.
6. Ant hills and snake pits are worshipped by offering milk, a pinch of turmeric and kumkum.
7. Do not harm any rodents or snakes and the like as they are visible to us during this time as their homes are flooded with water.
8. Perform the Naga archana or Puja in your local temples to get relief from Naga Dosha.
9. No Hindu home may fry anything on the day of Nag Panchami. Only boiled and steamed food is preferred to be eaten.

Sunday, July 23, 2017

सावन के पवित्र महिनें में ये काम बिल्कुल न करें

सावन का महीना पूरी तरह से भगवान शिव को समर्पित रहता है। इस माह में विधि पूर्वक शिवजी की आराधना करने से, मनुष्य को शुभ फल भी प्राप्त होते हैं, लेकिन हिंदू रिवाजों में जहां इस महीने हर दिन नये तरीके से पूजा की जाती है वहीं इस महीने के दौरान बहुत सारी चीजें वर्जित भी होती है।



धार्मिक मान्‍यताओ के अनुसार इस माह का संबंध शिव से जोड़ा गया है,इसलिए इसका महत्‍व और अधिक बढ़ जाता है। सावन के पूरे महीने आने वाले सभी सोमवार का विशेष महत्‍व बताया जाता है। ऐसी मान्‍यता है का सोमवार को ही देवी पार्वती ने शिव को पाने के लिए विशेष व्रत रखा था इसलिए ऐसी मान्‍यता है कि उपासक अगर सावन मास में सोमवार को शिव का व्रत रखते हुए सोमवार को उपवास रखते हैं तो शिव प्रसन्‍न होते हैं और वां‍छित फल मिलता है।

माना जाता है कि इस पवित्र माह में ऐसे कई काम है जो नहीं करना चाहइए। जिससे की भगवान शिव के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की कृपा आपके ऊपर बनी रहें। इसलिए सावन के पवित्र महिनें में ये काम बिल्कुल न करें। जिसके कारण आपके ऊपर शिव की कृपा बनी रहें। जानिए कौन से कान नहीं करने चाहिए, साथ ही इसका कारण।

शिवलिंग पर न चढ़ाएं हल्दी

शिवजी की पूजा करते समय ध्यान रखें कि शिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ानी चाहिए। हल्दी जलाधारी पर चढ़ानी चाहिए। हल्दी स्त्री से संबंधित वस्तु है। शिवलिंग पुरुष तत्व से संबंधित है और ये शिवजी का प्रतीक है। इस कारण शिवलिंग पर नहीं, बल्कि जलाधारी पर हल्दी चढ़ानी चाहिए। जलाधारी स्त्री तत्व से संबंधित है और ये माता पार्वती की प्रतीक है।

दूध के सेवन से रखें परहेज

सावन में संभव हो तो दूध का सेवन न करें। यही बात बताने के लिए सावन में शिव जी का दूध से अभिषेक करने की परंपरा शुरू हुई होगी। वैज्ञानिक मत के अनुसार इन दिनों दूध वात बढ़ाने का काम करता है। अगर दूध का सेवन करना हो तब खूब उबालकर प्रयोग में लाएं। कच्चा दूध प्रयोग में नहीं लाएं। सावन में दूध से दही बनाकर सेवन कर सकते हैं। लेकिन भाद्र मास में दही से परहेज रखना चाहिए क्योंकि भाद्र मास में दही सेहत के लिए हानिकारक होता है।

सावन में हरी पत्तेदार सब्जी खाना है वर्जित

स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सावन में कुछ चीजों को खाना वर्जित बताया गया है। ऐसी चीजों में पहला नाम साग का आता है। जबकि साग को सेहत के लिए गुणकारी माना गया है। लेकिन सावन में साग में वात बढ़ाने वाले तत्व की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए साग गुणकारी नहीं रह जाता है। दूसरा कारण यह भी है कि इन दिनों कीट पतंगों की संख्या बढ़ जाती है और साग के साथ घास-फूस भी उग आते हैं जो सेहत के लिए हानिकाक होते हैं।

बुरे विचारों से बचें

सावन माह में किसी भी प्रकार के बुरे विचार से बचना चाहिए। इस प्रकार के विचारों से बचना चाहिए, अन्यथा शिवजी की पूजा में मन नहीं लग पाएगा। मन बेकार की बातों में ही उलझा रहेगा। शास्त्रों में स्त्रियों के लिए गलत बातें सोचना महापाप बताया गया है।

इन लोगों का अपमान न करें

सावन माह में इस बात का ध्यान रखें कि बुजुर्ग व्यक्ति, गुरु, भाई-बहन, जीवन साथी, माता-पिता, मित्र और ज्ञानी लोगों का अपमान न करें। शिवजी ऐसे लोगों से प्रसन्न नहीं होते हैं जो यहां बताए गए लोगों का अपमान करते हैं। ये सभी लोग हर स्थिति में सम्मान के पात्र हैं, हमेशा इनका सम्मान करें।

सावन में बैंगन खाना भी वर्जित

सावन में बैंगन भी ऐसी सब्जी है जिसे खाना वर्जित माना गया है। इसका धार्मिक कारण यह है कि बैंगन को शास्त्रों में अशुद्ध कहा गया है। यही वजह है कि कार्तिक महीने में भी कार्तिक मास का व्रत रखने वाले व्यक्ति बैंगन नहीं खाते हैं। वैज्ञानिक कारण यह है कि सावन में बैंगन में कीड़े अधिक लगते हैं। ऐसे में बैंगन का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

सुबह देर तक नहीं सोना चाहिए

जल्दी जागें और स्नान आदि कार्यों के बाद शिवजी की पूजा करें। यदि देर तक सोते रहेंगे तो इससे आलस्य बढ़ेगा। सुबह जल्दी उठने से वातावरण से स्वास्थ्य लाभ भी मिलते हैं। सुबह के समय मन शांत रहता है और इस वजह से पूजा पूरी एकाग्रता से हो पाती है। एकाग्रता से की गई पूजा बहुत जल्दी शुभ फल प्रदान करती है।

मांसाहार से बचें

सावन के महीने में इंसान को मांस के सेवन से दूर रहने को कहा जाता है, इसके पीछे बहुत सारे धार्मिक कारण हैं लेकिन इसका वैज्ञानिकों की ओर से केवल एक ही सटिक वजह बयाती गयी है और वो यह कि यह मौसम बारिश का होता है, इस दौरान वातावरण में काफी कीड़े-मकोड़े सक्रिय हो जाते हैं जो कि जानवरों के शरीर पर भी पाये जाते हैं, जिनका सेवन करना बीमारियों को दावत देना होता है।

इस कारण कहा जाता है कि सावन के दौरान इंसान को मांस-मच्छी नहीं खाना चाहिए। सावन के महीने को प्रेम और प्रजनन का महीना कहा जाता है। इस महीने में मछलियां और पशु, पक्षी सभी में गर्भाधान की संभावना होती है। किसी भी गर्भवती मादा की हत्या हिन्दू धर्म में पाप है तो वैज्ञानिकों के अनुसार प्रेग्नेंट जीव को खाने से इंसान को कुछ हार्मोंनल समस्याएं भी हो सकती हैं।

पति-पत्नी ध्यान रखें ये बातें

व्यक्तियों को कहा जाता है कि वो इस दौरान ब्रहमचर्य का पालन करें और शारीरिक सुख ना भोंगे क्योंकि इस दौरान गर्भधारण की संभावना भी होती है। वैज्ञानिक भी इस पीरयड को बच्चे के लिए सही नहीं मानते हैं क्योंकि इस दौरान लड़कियां और महिलाएं काफी पूजा-पाठ और व्रत करती हैं जिसके कारण उनकी सेहत पर असर पड़ता है, वो आंतरिक रूप से मजबूत नहीं हो पाती हैं।

ऐसे में अगर वो गर्भधारण करती हैं तो होने वाला बच्चा काफी कमजोर हो सकता है इसलिए कहा जाता है कि सावन के महीने के दौरान पति-पत्नि वैवाहिक सुख ना लें। वैसे धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि सावन में सहवास करने से लोक ही नहीं परलोक भी बिगड़ जाता है।

शराब से रहें दूर

सावन के पूरे महीने में कहा जाता है कि इंसान को मदिरा पान नहीं करना चाहिए जिसके पीछे वैज्ञानिकों ने कहा है कि शराब पीने से इंसान के शरीर का तापमान काफी बढ़ जाता है जो बारिश के मौसम में उसके लिए उष्मा का काम करता है और उसके शरीर पर दुष्प्रभाव डालता है, गर्मी और उमस की वजह से शराब पीने वाले इंसान को पाचन, हार्ट की बीमारियों, शारीरिक दर्द, बुखार जैसी बीमारियों से जूझना पड़ सकता है इसलिए बेहतर होगा कि लोग इस एक महीने में दारू ना पियें।

Tuesday, July 18, 2017

श्रावण मास का महत्व

श्रावण मास को मासोत्तम मास कहा जाता है. यह माह अपने हर एक दिन में एक नया सवेरा दिखाता इसके साथ जुडे़ समस्त दिन धार्मिक रंग और आस्था में डूबे होते हैं. शास्त्रों में सावन के महात्म्य पर विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है. श्रावण मास अपना एक विशिष्ट महत्व रखता है. श्रवण नक्षत्र तथा सोमवार से भगवान शिव शंकर का गहरा संबंध है. इस मास का प्रत्येक दिन पूर्णता लिए हुए होता है. धर्म और आस्था का अटूट गठजोड़ हमें इस माह में दिखाई देता है इस माह की प्रत्येक तिथि किसी न किसी धार्मिक महत्व के साथ जुडी़ हुई होती है. इसका हर दिन व्रत और पूजा पाठ के लिए महत्वपूर्ण रहता है.



हिंदु पंचांग के अनुसार सभी मासों को किसी न किसी देवता के साथ संबंधित देखा जा सकता है उसी प्रकार  श्रावण मास को भगवान शिव जी के साथ देखा जाता है इस समय शिव आराधना का विशेष महत्व होता है. यह माह आशाओं की पुर्ति का समय होता है जिस प्रकार प्रकृति ग्रीष्म के थपेडों को सहती उई सावन की बौछारों से अपनी प्यास बुझाती हुई असीम तृप्ति एवं आनंद को पाती है उसी प्रकार प्राणियों की इच्छाओं को सूनेपन को दूर करने हेतु यह माह भक्ति और पूर्ति का अनुठा संगम दिखाता है ओर सभी की अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश करता है.

शिव का प्रिय महीना

सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- "जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।"

इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा के अनुसार, मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।

भगवान शिव को सावन का महीना प्रिय होने का अन्य कारण यह भी है कि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत आर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।

पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम 'नीलकंठ महादेव' पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। 'शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।

शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे 'चौमासा' भी कहा जाता है; तत्पश्चात सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।

शिव की पूजा

सावन मास में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन 'रुद्राभिषेक' किया जा सकता है, जबकि अन्य माह में शिववास का मुहूर्त देखना पड़ता है। भगवान शिव के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल तथा गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है।



शिवलिंग पर बेलपत्र तथा शमीपत्र चढा़ने का वर्णन पुराणों में भी किया गया है। बेलपत्र भोलेनाथ को प्रसन्न करने के शिवलिंग पर चढा़या जाता है। कहा जाता है कि 'आक' का एक फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सोने के दान के बराबर फल मिलता है। हज़ार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों को चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से दान का पुण्य मिल जाता है। हज़ार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी होते हैं। हज़ार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हज़ार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हज़ार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हज़ार शमी के पत्तों के बराकर एक नीलकमल, हज़ार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हज़ार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

बेलपत्र

भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका उन्हें 'बेलपत्र' अर्पित करना है। बेलपत्र के पीछे भी एक पौराणिक कथा का महत्त्व है। इस कथा के अनुसार- "भील नाम का एक डाकू था। यह डाकू अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटता था। एक बार सावन माह में यह डाकू राहगीरों को लूटने के उद्देश्य से जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। एक दिन-रात पूरा बीत जाने पर भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। जिस पेड़ पर वह डाकू छिपा था, वह बेल का पेड़ था। रात-दिन पूरा बीतने पर वह परेशान होकर बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। उसी पेड़ के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था। जो पत्ते वह डाकू तोडकर नीचे फेंख रहा था, वह अनजाने में शिवलिंग पर ही गिर रहे थे। लगातार बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अचानक डाकू के सामने प्रकट हो गए और डाकू को वरदान माँगने को कहा। उस दिन से बिल्व-पत्र का महत्ता और बढ़ गया।

जलाभिषेक के साथ पूजन  

भगवान शिव इसी माह में अपनी अनेक लीलाएं रचते हैं. इस महीनें में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, पंचाक्षर मंत्र इत्यादि शिव मंत्रों का जाप शुभ फलों में वृद्धि करने वाला होता है. पूर्णिमा तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने पर श्रावण माह का स्वरुप प्रकाशित होता है. श्रावण माह के समय भक्त शिवालय में स्थापित, प्राण-प्रतिष्ठित शिवलिंग या धातु से निर्मित लिंग का गंगाजल व दुग्ध से रुद्राभिषेक कराते हैं. शिवलिंग का रुद्राभिषेक भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है. इन दिनों शिवलिंग पर गंगा जल द्वारा अभिषेक करने से भगवान शिव अतिप्रसन्न होते हैं.

शिवलिंग का अभिषेक महाफलदायी माना गया है. इन दिनों अनेक प्रकार से  शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है जो भिन्न भिन्न फलों को प्रदान करने वाला होता है. जैसे कि जल से वर्षा और शितलता कि प्राप्ति होती है. दूग्धा अभिषेक एवं घृत से अभिषेक करने पर योग्य संतान कि प्राप्ति होती है. ईख के रस से धन संपदा की प्राप्ति होती है. कुशोदक से समस्त व्याधि शांत होती है. दधि से पशु धन की प्राप्ति होती है ओर शहद से शिवलिंग पर अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है.

शिवलिंग पर जलाभिषेक का महत्व 

इस श्रावण मास में शिव भक्त ज्योतिर्लिंगों का दर्शन एवं जलाभिषेक करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त करता है तथा शिवलोक को पाता है.  शिव का श्रावण में जलाभिषेक के संदर्भ में एक कथा बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार जब देवों ओर राक्षसों ने मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन किया तो उस मंथन समय समुद्र में से अनेक पदार्थ उत्पन्न हुए और अमृत कलश से पूर्व कालकूट विष भी निकला उसकी भयंकर ज्वाला से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा इस संकट से व्यथित समस्त जन भगवान शिव के पास पहुंचे और उनके समक्ष प्राथना करने लगे, तब सभी की प्रार्थना पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने हेतु उस विष को अपने कंठ में उतार लिया और उसे वहीं अपने कंठ में अवरूद्ध कर लिया.

जिससे उनका कंठ नीला हो गया समुद्र मंथन से निकले उस हलाहल के पान से भगवान शिव भी तपन को सहा अत:  मान्यता है कि वह समय श्रावण मास का समय था और उस तपन को शांत करने हेतु देवताओं ने गंगाजल से भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक आरंभ किया, तभी से यह प्रथा आज भी चली आ रही है प्रभु का जलाभिषेक करके समस्त भक्त उनकी कृपा को पाते हैं और उन्हीं के रस में विभोर होकर जीवन के अमृत को अपने भीतर प्रवाहित करने का प्रयास करते हैं.

सावन सोमवार के व्रत

श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव के निमित्त व्रत किए जाते हैं। इस मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। यह व्रत भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाते हैं। व्रत में भगवान शिव का पूजन करके एक समय ही भोजन किया जाता है। व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान कर 'शिव पंचाक्षर मन्त्र' का जप करते हुए पूजन करना चाहिए।

सावन के महीने में सोमवार महत्वपूर्ण होता है। सोमवार का अंक 2 होता है, जो चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करता है। चन्द्रमा मन का संकेतक है और वह भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान है। 'चंद्रमा मनसो जात:' यानी 'चंद्रमा मन का मालिक है' और उसके नियंत्रण और नियमण में उसका अहम योगदान है। यानी भगवान शंकर मस्तक पर चंद्रमा को नियंत्रित कर उक्त साधक या भक्त के मन को एकाग्रचित कर उसे अविद्या रूपी माया के मोहपाश से मुक्त कर देते हैं। भगवान शंकर की कृपा से भक्त त्रिगुणातीत भाव को प्राप्त करता है और यही उसके जन्म-मरण से मुक्ति का मुख्य आधार सिद्ध होता है।

काँवर

ऐसी मान्यता है कि भारत की पवित्र नदियों के जल से अभिषेक किए जाने से शिव प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। 'काँवर' संस्कृत भाषा के शब्द 'कांवांरथी' से बना है। यह एक प्रकार की बहंगी है, जो बाँस की फट्टी से बनाई जाती है। 'काँवर' तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में 'बोल बम' का नारा, मन में 'बाबा एक सहारा।' माना जाता है कि पहला 'काँवरिया' रावण था। श्रीराम ने भी भगवान शिव को कांवर चढ़ाई थी।

हरियाली तीज

सावन का महीना प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में नई-नवेली दुल्हन अपने मायके जाकर झूला झूलती हैं और सखियों से अपने पिया और उनके प्रेम की बातें करती है। प्रेम के धागे को मजबूत करने के लिए इस महीने में कई त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार है- 'हरियाली तीज'। यह त्योहार हर साल श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में मान्यता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की थी।

इससे प्रसन्न होकर शिव ने 'हरियाली तीज' के दिन ही पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इस त्योहार के विषय में यह मान्यता भी है कि इससे सुहाग की उम्र लंबी होती है।

कुंवारी कन्याओं को इस व्रत से मनचाहा जीवन साथी मिलता है। हरियाली तीज में हरी चूड़ियां, हरा वस्त्र और मेंहदी का विशेष महत्व है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती हैं। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। माना जाता है कि मेंहदी बुरी भावना को नियंत्रित करती है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सावन में पड़ने वाली फुहारों से प्रकृति में हरियाली छा जाती है। सुहागन स्त्रियां प्रकृति की इसी हरियाली को अपने ऊपर समेट लेती हैं। इस मौके पर नई-नवेली दुल्हन को सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। कुल मिलाकर इस त्योहार का आशय यह है कि सावन की फुहारों की तरह सुहागनें प्रेम की फुहारों से अपने परिवार को खुशहाली प्रदान करेंगी और वंश को आगे बढ़ाएँगी।

वर्षा का समय

सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।

सावन और साधना


सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है। भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है।[


Monday, July 17, 2017

खंडित मूर्ति ना रखें

अगर आप शास्त्रीय नियमों का पालन करते हैं, उनमें विश्वास करते हैं तो हम आपको एक महत्वपूर्ण शास्त्रीय नियम के बारे में बताने जा रहे हैं। यह नियम घर में बनवाए गए मंदिर से जुड़ा है।

अमूमन सभी हिन्दू परिवारों में मंदिर देखा जा सकता है। कुछ लोग घर में अलग से एक पूजा कक्ष बनवाते हैं जहां भगवान की विशाल एवं भव्य मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। किंतु वहीं कुछ लोग घर के किसी एक कोने को भगवान की पूजा के लिए समर्पित करते हुए छोटा-सा मंदिर बनवाते हैं।

खैर छोटा हो या बड़ा, घर में बने मंदिर से हर किसी की आस्था एवं भावनाएं जुड़ी होती हैं। लेकिन इसी मंदिर के संबंध में यदि आप एक शास्त्रीय नियम का पालन कर लेंगे तो आपकी यह आस्था भी बनी रहेगी और भगवान आपसे प्रसन्न भी रहेंगे।

हमें घर की दिशाओं और अच्छी-बुरी ऊर्जा का पाठ पढ़ाने वाले वास्तु विज्ञान के अनुसार घर में कुछ प्रकार के वास्तु दोष होते हैं।

घर के बेडरूम में, रसोईघर में, मुख्यद्वार के वास्तु दोष, इत्यादि आपने सुने होंगे लेकिन सबसे अधिक प्रभावी होता है घर के मंदिर का वास्तु दोष।


यहां दोष का होना घर के सभी सदस्यों पर बुरा प्रभाव लाता है। वास्तु विज्ञान के अनुसार घर में भूल से भी ‘खंडित मूर्ति’ ना रखें। वास्तु शास्त्र की मानें तो ऐसी मूर्तियां घर में नकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती हैं। दूसरी ओर शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार खंडित मूर्तियों की पूजा करने से देवतागण नाराज होते हैं।

इसलिए कोशिश करें कि आप घर में खंडित मूर्ति ना रखें, यदि आपको मूर्ति कहीं से टूटी हुई दिख जाए तो उसे जल्द से जल्द सही करवाएं या बदलकर नई मूर्ति की पूण विध-विधान से स्थापना करें। 

Thursday, July 6, 2017

Kanchi Paramacharya on Protecting the Cow

Protection of cow is a dharma that can be performed by people of all communities in the world. It is a dharma that can be carried out by people of all the four varnas and other communities. In addition to our Hindus, Buddhists and Jainas too have been engaged in rearing and protecting the cow.

All animals other than the cow feed their milk to their young ones and protect them; that too for a short time. But in the case of the cow, she gives her milk to anyone and protects him till the end of her life.





With such considerations in view, it is said in Sastras that the cow should be protected at all costs. In all Vedic rituals it is the practice to say “गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यम् “ – “Gobrahmanebhyah Subhamastu Nityam”- “May cows and brahmanas be always happy”. Here the cow is mentioned first. If the cow is comfortable, the entire world will be happy. It is because all people gain comfort from the cow, worship of cow has been accorded importance. It is to be noted that the cow has abundance of milk such that after satisfying the need of her calf, she is able to feed other people with milk. No other animal has this trait.

When Jainas (Samanas) rose against Vedic religion and troubled people in a big way in Madurai, the minister Kulachiraiyar and queen Mangaiyarkkarasiyar of the Pandyan king prayed to Sri Tirugnanasambandhamurthy Swamigal to rescue the Vedic religion.
Huge philosophical debates ensued between Sri Tirugnanasambandhamurthy and the Jainas; the latter were defeated in argument. Then both parties vowed to write down on separate palm leaves that their religion alone was true and to float the palm leaves in the river Vaigai.

It was agreed that whichever leaf swims against the river current conveys the true religion. Sri Tirugnanasambandhar wrote the ‘Vazhthu Padigam’ (Song of Benediction) on his palm leaf; this song had as its first line ‘Vaazhga Andanar Vaanavar Aan inam’. His palm leaf swam against the water current for ten miles and reached the shore at a place called ‘Tiruvedagam’. The deity there is known as ‘Patrika Parameswara’; Patrika is leaf and as the leaf was washed ashore at that place, the Lord got that name. The script in the palm leaf says ‘Aaninam vaazhga’- ‘May the breed of cows live long’. As the cow has such distinction, it is necessary for everyone to worship her.



Though all communities follow dharmas in general, there is a special dharma enjoined on each community. As regards the dharmas to be performed by Vaisyas, Bhagavan Sri Krishna has mentioned them in a verse in Bhagavad Gita – “कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्“- “Krishi Gourakshyavaanijyam vaisyakarma svabhavajam”. Bhagavan has prescribed three activities for Vaisyas.

The first one, ‘Krishi’ means agriculture, ploughing the field and raising crops for people’s consumption. The second is protection of cow. The third is trade and commerce and helping people through them. This would mean that Vaisya’s duty is to increase agricultural output and help living beings through that.

Vaisya should also take care of the cow with such nutrition that her milk is not only adequate for her calf, but is also available for the public. Similarly, another important duty of Vaisyas is engaging in trade, viz. to fetch articles like wheat, asafetida etc. from long distances, store them and help people by selling those articles to them. If a person has lakhs of rupees, but lives in a desert devoid of foodgrains, he cannot sustain himself just with his money. Similarly in a place where paddy is grown in plenty, one cannot live with just paddy alone without other articles. Hence trade consists in gathering articles from different places and selling them at a particular point useful to the public.

This is an important dharma for Vaisyas. They should not think that trading is sinful. If a brahmana leaves the mundane world and lives in a forest as a Sanyasi and then starts earning money, it is a sin. We should not think that traders engage in trade just for making profit. When there is hartal for a week and shops remain closed, people suffer very much without getting the necessary articles.
Hence trade is meant for common good and not for individual profit. Vaisyas should not conduct trade with profit in view, but with the thought that they are doing a duty ordained by Bhagavan and with prayerful attitude.



We should all perform dharma as instructed by Bhagavan Sri Krishna. People should also purchase articles from Asthika traders and not atheists. If you buy from atheists, the profit would be used for wrong purposes. Trading has been ordained as a special duty for Vaisyas. Hence Vaisyas should engage in the three activities ordained by Bhagavan, viz. agriculture, cow protection and trade, with devotion to Iswara and be the recipients of His Grace.

(Discourse delivered by Jagadguru Sri Chandrasekharendra Saraswathi Sankaracharya Swamigal of Kanchi Kamakoti Peetham in Sri Ekamreswara Temple Street in Gujaratipet, Chennai.)


Tuesday, July 4, 2017

घर के मंदिर में ध्यान रखनी चाहिए यह बातें

जिन घरों में हर रोज पूजा की जाती है, वहां का वातावरण सकारात्मक और पवित्र रहता है। दीपक और धूपबत्ती के धुएं से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्म कीटाणु भी मर जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार पूजन के लिए कई आवश्यक नियम बताए गए हैं। इन नियमों का पालन करते हुए पूजा करने पर श्रेष्ठ फल प्राप्त होते हैं। महालक्ष्मी सहित सभी देवी-देवताओं की कृपा मिलती है।



नियम जो कि घर के मंदिर में पूजा करते समय ध्यान रखना चाहिए-

1. सभी प्रकार की पूजा में चावल विशेष रूप से चढ़ाए जाते हैं। पूजन के लिए ऐसे चावल का उपयोग करना चाहिए जो अखंडित (पूरे चावल) हो यानी टूटे हुए ना हो। चावल चढ़ाने से पहले इन्हें हल्दी से पीला करना बहुत शुभ माना गया है। इसके लिए थोड़े से पानी में हल्दी घोल लें और उस घोल में चावल को डूबोकर पीला किया जा सकता है।

2. पूजन में पान का पत्ता भी रखना चाहिए। ध्यान रखें पान के पत्ते के साथ इलाइची, लौंग, गुलकंद आदि भी चढ़ाना चाहिए। पूरा बना हुआ पान चढ़ाएंगे तो श्रेष्ठ रहेगा।

3. पूजन कर्म में इस बात का विशेष ध्यान रखें कि पूजा के बीच में दीपक बुझना नहीं चाहिए। ऐसा होने पर पूजा का पूर्ण फल प्राप्त नहीं हो पाता है।

4. किसी भी भगवान के पूजन में उनका आवाहन (आमंत्रित करना) करना, ध्यान करना, आसन देना, स्नान करवाना, धूप-दीप जलाना, अक्षत (चावल), कुमकुम, चंदन, पुष्प (फूल), प्रसाद आदि अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

5. देवी-देवताओं को हार-फूल, पत्तियां आदि अर्पित करने से पहले एक बार साफ पानी से अवश्य धो लेना चाहिए।

6. भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए पीले रंग का रेशमी कपड़ा चढ़ाना चाहिए। माता दुर्गा, सूर्यदेव व श्रीगणेश को प्रसन्न करने के लिए लाल रंग का, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सफेद वस्त्र अर्पित करना चाहिए।

7. किसी भी प्रकार के पूजन में कुल देवता, कुल देवी, घर के वास्तु देवता, ग्राम देवता आदि का ध्यान करना भी आवश्यक है। इन सभी का पूजन भी करना चाहिए।

8. पूजन में हम जिस आसन पर बैठते हैं, उसे पैरों से इधर-उधर खिसकाना नहीं चाहिए। आसन को हाथों से ही खिसकाना चाहिए।

9. यदि आप प्रतिदिन घी का एक दीपक भी घर में जलाएंगे तो घर के कई वास्तु दोष भी दूर हो जाएंगे।

10. सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु, ये पंचदेव कहलाते हैं, इनकी पूजा सभी कार्यों में अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी कृपा और समृद्धि प्राप्त होती है

11. तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर पुन: भगवान को अर्पित किया जा सकता है।

12. दीपक हमेशा भगवान की प्रतिमा के ठीक सामने लगाना चाहिए। कभी-कभी भगवान की प्रतिमा के सामने दीपक न लगाकर इधर-उधर लगा दिया जाता है, जबकि यह सही नहीं है।

13. घी के दीपक के लिए सफेद रुई की बत्ती उपयोग किया जाना चाहिए। जबकि तेल के दीपक के लिए लाल धागे की बत्ती श्रेष्ठ बताई गई है।

14. पूजन में कभी भी खंडित दीपक नहीं जलाना चाहिए। धार्मिक कार्यों में खंडित सामग्री शुभ नहीं मानी जाती है।

15. शिवजी को बिल्व पत्र अवश्य चढ़ाएं और किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए अपनी इच्छा के अनुसार भगवान को दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए, दान करना चाहिए। दक्षिणा अर्पित करते समय अपने दोषों को छोड़ने का संकल्प लेना चाहिए। दोषों को जल्दी से जल्दी छोड़ने पर मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी।

16. भगवान सूर्य की 7, श्रीगणेश की 3, विष्णुजी की 4 और शिवजी की 1/2 परिक्रमा करनी चाहिए।

17. घर में या मंदिर में जब भी कोई विशेष पूजा करें तो अपने इष्टदेव के साथ ही स्वस्तिक, कलश, नवग्रह देवता, पंच लोकपाल, षोडश मातृका, सप्त मातृका का पूजन भी अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। इन सभी की पूरी जानकारी किसी ब्राह्मण (पंडित) से प्राप्त की जा सकती है। विशेष पूजन पंडित की मदद से ही करवाने चाहिए, ताकि पूजा विधिवत हो सके।

18. घर में पूजन स्थल के ऊपर कोई कबाड़ या भारी चीज न रखें।

19. भगवान शिव को हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए और न ही शंख से जल चढ़ाना चाहिए।

20. पूजन स्थल पर पवित्रता का ध्यान रखें। चप्पल पहनकर कोई मंदिर तक नहीं जाना चाहिए। चमड़े का बेल्ट या पर्स अपने पास रखकर पूजा न करें। पूजन स्थल पर कचरा इत्यादि न जमा हो पाए।


देवी-देवताओं का पूजन करने से दुख-दर्द तो दूर होते हैं, साथ ही शांति भी मिलती है। इसी कारण पुराने समय से ही पूजन की परंपरा चली आ रही है।

Monday, July 3, 2017

देवशयनी एकादशी

देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। इसे 'पद्मनाभा' तथा 'हरिशयनी' एकादशी भी कहा जाता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए बलि के द्वार पर पाताल लोक में निवास करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को 'हरिशयनी एकादशी' तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को 'प्रबोधिनी एकादशी' कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। धार्मिक दृष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या (चातुर्मास) करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल (पृथ्वी) के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है। इस व्रत को करने से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, सभी पाप नष्ट होते हैं तथा भगवान हृषीकेश प्रसन्न होते हैं।



सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। देवशयनी या हरिशयनी एकादशी के विषय में पुराणों में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है जिनके अनुसार इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्री विष्णु उस लोक के लिये गमन करते है और इसके पश्चात चार माह के अतंराल बाद सूर्य के तुला राशि में प्रवेश करने पर विष्णु भगवान का शयन समाप्त होता है तथा इस दिन को देवोत्थानी एकादशी का दिन होता है. इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है. इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है।

सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु आज की रात्रि से भगवान का शयन प्रारम्भ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। देवशयनी एकादशी व्रत की शुरुआत दशमी तिथि की रात्रि से ही हो जाती है. दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में नमक का प्रयोग नहीं करना चाहिए. अगले दिन प्रात: काल उठकर देनिका कार्यों से निवृत होकर व्रत का संकल्प करें भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करना चाहिए.  पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए.  भगवान को ताम्बूल, पुंगीफल अर्पित करने के बाद मन्त्र द्वारा स्तुति की जानी चाहिए. इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए।

 निम्न मन्त्र द्वारा स्तुति की जाती है-

'सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम्।।

अर्थात हे जगन्नाथजी! आपके निद्रित हो जाने पर संपूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर संपूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं। इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं फलाहार करना चाहिए। रात्रि में भगवान के मंदिर में ही शयन करना चाहिए तथा भगवान का भजन व स्तुति करनी चाहिए। स्वयं सोने से पूर्व भगवान को भी शयन करा देना चाहिए। इस दिन अनेक परिवारों में महिलाएं पारिवारिक परम्परानुसार देवों को सुलाती हैं। इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें। मधुर सवर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रुनाशादि के लिए कडुवे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें। देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का, वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का, कुरुक्षेत्रादि के समान फल मिलने के लिए बर्तन में भोजन करने के बजाय 'पत्र' का तथा सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें। साथ ही चातुर्मासीय व्रतों में कुछ वर्जनाएं भी हैं। जैसे-पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद तथा किसी अन्रू का दिया दही-भात आदि का भोजन करना। मूली, परवल एवं बैंगन आदि शाक खाना भी त्याग देना चाहिए। जो श्रद्धालु जन इस एकादशी को पूर्ण विधि-विधानपूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।


देवशयनी एकादशी की कथा-

एक बार देवर्षि नारद जी ने ब्रह्मा जी से इस एकादशी के माहात्म्य के बारे में पूछा। तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि
'सत युग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुख और आनन्द से रहती थी। एक बार उनके राज्य में लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। प्रजा व्याकुल हो गई। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन पिण्डदान, कथा, व्रत आदि सब में कमी हो गई। प्रजा ने राजा के दरबार में जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी। राजा ने कहा- 'आप लोगों का कष्ट भारी है। मैं प्रजा की भलाई हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा।' राजा इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे। वे सोचने लगे कि आख़िर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दण्ड मुझे इस रूप में मिल रहा है?'
फिर प्रजा की दुहाई तथा कष्ट को सहन न करने के कारण, इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। जंगल में विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्मा जी के तेजस्वो पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का अभिप्राय जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा-'महात्मन! सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं। मैं इसका कारण नहीं जानता। आख़िर क्यों ऐसा हो रहा है, कृपया आप इसका समाधान कर मेरा संशय दूर कीजिए।'

यह सुनकर अंगिरा ऋषि ने कहा- 'हे राजन! यह सतयुग सब युगों में क्षेष्ठ और उत्तम माना गया है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है। इसमें लोग ब्रह्मा की उपासना करते हैं। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को तप करने का अधिकार नहीं था, जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक उसकी जीवन लीला समाप्त नहीं होगी, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगी। उस शूद्र तपस्वी को मारने से ही पाप की शांति होगी।' परंतु राजा का हृदय एक निरपराध को मारने को तैयार नहीं हुआ। राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न जानकर ऋषि से अन्य उपाय पूछा। राजा ने कहा-'हे देव! मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। इसलिए कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं।' तब ऋषि ने कहा-' आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी (पद्मा एकादशी या हरिशयनी एकादशी) का विधिपूर्वक व्रत करो। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।' यह सुनकर राजा मान्धाता वापस लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।

पौराणिक संदर्भ

पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है। हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

इस वर्ष देवशनी एकादशी 4 जुलाई 2017 के दिन मनाई जानी है. इस व्रत को करने से समस्त रखते वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है. एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है.