Tuesday, January 30, 2018

चंद्र ग्रहण का राश‍ियों पर प्रभाव

ज्‍योतिषों के अनुसार इस बार के चंद्रग्रहण का असर 108 दिनों तक रहेगा। ज्योतिष इस ग्रहण को अशुभ मान रहे हैं, इसलिए कुछ उपायों से आप इस ग्रहण के नकारात्मक उपाय से बच सकते हैं। चंद्र ग्रहण का असर अलग-अलग पड़ेगा, लेकिन कुछ राशियों के लिए स्वास्थ्य समस्याएं लाएगा इसलिए इसके कुछ उपाय करने चाहिए। ग्रहण के किसी भी प्रभाव से बचने के लिए इस दौरान श्री सूक्त, लक्ष्मी सूक्त का जाप करना चाहिए। इसके अलावा रोगों से बचने के लिए महामृत्युंजय मत्र का जाप करना चाहिए।



चन्द्रग्रहण कर्क राशि में लग रहा है। ग्रहण के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए चन्द्रमा का मंत्र- 'ओम सोम सोमाय नमः' का जितना हो सके जप करें। महामृत्युंजय मंत्र और अपने ईष्टदेवता एवं राशि का मंत्र जपना शुभ रहेगा।

यह ग्रहण पुष्‍य और अश्‍लेषा नक्षत्र एवं कर्क राशि पर पड़ेगा। इसलिए जन्‍म व नाम के अनुसार जिन लोगों की राशि कर्क और नक्षत्र पुष्‍य व अश्‍लेषा है वो सीधे इस ग्रहण से प्रभावित होंगे, इसलिए इस ग्रहण में उनको बाहर निकलने से परहेज करना चाहिए।

इस चंद्र ग्रहण का स्पर्श पुष्य नक्षत्र में होगा और समाप्ति श्लेषा नक्षत्र में होगी।कर्क राशि पर इस ग्रहण का प्रभाव कुछ ज्यादा ही पड़ेगा।

1. मेष- शारीरिक कष्ट। धन का व्यय। मंगल से संबंधित दृव्यों गुड़ और मसूर की दाल का दान करें।

2. वृष- धन का व्यय। मानसिक चिंता। श्री सूक्त का पाठ करें और मंदिर में अन्न दान करें।

3. मिथुन- रोग में वृद्धि। धन का व्यय। गो माता को पालक खिलाएं।

4. कर्क- शारीरिक और मानसिक कष्ट। व्यय की अधिकता। शिव उपासना करें। चंद्रमा के बीज मंत्र का जप  करें।

5. सिंह- क्रोध की अधिकता। धन का व्यय। गायत्री मंत्र का जप करें। धार्मिक पुस्तक का दान करें।

6. कन्या- धन का आगमन लेकिन व्यय भी होगा। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें। गाय को पालक खिलाएं।

7. तुला- मानसिक चिंता। धन की प्राप्ति। व्यय की अधिकता। श्री सूक्त का पाठ करें। अन्न का दान करें।

8. वृश्चिक- मानसिक चिंता बनी रहेगी लेकिन धार्मिक कार्यों में व्यस्तता उसे समाप्त कर देगी। श्री बजरंग बाण का पाठ करें।

9. धनु- आर्थिक सफलता। स्वास्थ्य में समस्या। श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें। गाय को केला खिलाएं।

10. मकर- आर्थिक नुकसान।स्वास्थ्य में परेशानी। श्री सुंदरकांड का पाठ करें। तिल का दान करें।

11. कुंभ- आर्थिक लाभ।स्वास्थ्य में परेशानी। श्री हनुमान बाहुक का पाठ करें। तिल का दान करें।

12. मीन- शिक्षा तथा प्रतियोगिता में सफलता। स्वास्थ्य में परेशानी। श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें। गो माता को केला खिलाएं।


खग्रास ग्रस्तोदय चन्द्रग्रहण 31 जनवरी 2018

हिंदू धर्म में चंद्र ग्रहण एक महत्वपूर्ण क्रिया मानी जाती है। चंद्र ग्रहण पूर्णिमा के दिन ही होता है। चंद्र ग्रहण के दिन भगवान के दर्शन करना अशुभ माना जाता है। इसलिए इस दिन मंदिरों के कपाट बंद रहेंगे। भारत में चंद्र ग्रहण को लेकर कई धारणाएं प्रचलित है लेकिन विज्ञान के मुताबिक यह पूरी तरह खगोलीय घटना है। खगोलविज्ञान के अनुसार जब पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के बीच में आती है तो चंद्र ग्रहण होता है। जब सूर्य व चंद्रमा के बीच में पृथ्वी इस प्रकार से आ जाए जिससे चंद्रमा का पूरा या आंशिक भाग ढक जाए और सूर्य की किरणें चंद्रमा तक ना पहुंचे। ऐसी स्थिति में चंद्र ग्रहण होता है।



प्रचलित कथानुसार समुद्र मंथन के दौरान जब देवों और दानवों के साथ अमृत पान के लिए विवाद हुआ तो इसको सुलझाने के लिए मोहनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। जब भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों को अलग-अलग बिठा दिया। लेकिन असुर छल से देवताओं की लाइन में आकर बैठ गए और अमृत पान कर लिया। देवों की लाइन में बैठे चंद्रमा और सूर्य ने राहू को ऐसा करते हुए देख लिया। इस बात की जानकारी उन्होंने भगवान विष्णु को दी, जिसके बाद भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहू का सर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन राहू ने अमृत पान किया हुआ था , जिसके कारण उसकी मृत्यु नहीं हुई और उसके सर वाला भाग राहू और धड़ वाला भाग केतू के नाम से जाना गया। इसी कारण राहू और केतु सूर्य और चंद्रमा को अपना शत्रु मानते हैं और पूर्णिमा के दिन चंद्रमा को ग्रस लेते हैं। इसलिए चंद्र ग्रहण होता है।

खग्रास ग्रस्तोदय चन्द्रग्रहण

31 जनवरी 2018 बुधवार को माघ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा पर खग्रास चन्द्रग्रहण लग रहा है। यह ग्रहण सम्पूर्ण भारत में दृश्य होगा। भारत के अलावा यह एशिया, रूस, मंगोलिया, जापान, आस्ट्रेलिया, आदि में चंद्रोदय के समय प्रारंभ होगा तथा उत्तरी अमेरिका, कनाडा, पनामा के कुछ भागों में चन्द्रास्त के समय ग्रहण का मोक्ष दृष्टिगोचर होगा। भारतीय मानक समय के अनुसार पूर्वोत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों असम, मेघालय, बंगाल, झारखण्ड, बिहार में खण्डग्रास चन्द्रग्रहण का स्पर्श सायं 5  बज कर 19 से तथा मोक्ष रात्रि 8 बज कर 43 पर होगा। खग्रास चन्द्रग्रहण की कुल अवधि 01 घंटा 17  मिनट तथा चन्द्रग्रहण की कुल अवधि 03 घंटा 24 मिनट की होगी। इस चन्द्रग्रहण का स्पर्श सायं 05 बजकर 19 मिनट पर होगा, ग्रहण का मध्य सायं 07 बजकर 01 मिनट पर तथा ग्रहण का मोक्ष रात्रि 08 बजकर 43 मिनट पर होगा।

यह चंद्र ग्रहण सुपर ब्लू ब्लड मून होगा। इससे पहले 152 साल पहले 31 मार्च 1866 में ऐसा हुआ था। इसके साथ ही ऐसा आने वाले 11 सालों तक दिखाई नहीं देगा। 31 जनवरी को पूर्णिमा होने और सूतक का समय लगने के कारण पूजा विशेष समय तक कर लेनी चाहिए। हिंदू धर्म में माघ मास की पूर्णिमा का विशेष महत्व है।

इस बार 176 वर्ष बाद चंद्र ग्रहण पर पुष्य नक्षत्र का भी विशेष संयोग बन रहा है। माघ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा 31 जनवरी को यानि माघी पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती एवं राजराजेश्वरी ललिता देवी जयंती के साथ ही नए साल का पहला खग्रास चंद्रग्रहण दिखाई देगा। यह चंद्रग्रहण काल सर्प की छाया में पड़ेगा। यह इस बात का संकेत है कि इस दिन का ग्रहण लगा ही चंद्रमा का उदय होगा, जिसे ज्योतिष की भाषा में ग्रस्तोदय कहा जाता है। इस प्रकार का चंद्रग्रहण अशुभ माना जाता है।

माघ मास की पूर्णिमा को स्नान और दान का भी विशेष महत्व है। ज्योतिषियों के अनुसार चंद्र ग्रहण पड़ने के कारण दान करना और भी जरूरी हो जाता है।

31 जनवरी को होने वाली पूर्णिमा की तीन खासियत है. पहली यह कि यह सुपरमून की एक श्रंखला में तीसरा अवसर है जब चांद धरती के निकटतम दूरी पर होगा.

दूसरी यह कि इस दिन चांद सामान्य से 14 फीसदा ज्यादा चमकीला दिखेगा. तीसरी बात यह कि एक ही महीने में दो बार पूर्णिमा होगी, ऐसी घटना आमतौर पर ढाई साल बाद होती है.


ग्रहण का असर 

यह ग्रहण पुष्य व आश्लेषा नक्षत्र एवं कर्क राशि पर पड़ेगा। अतः जन्म से व पुकारने के नाम से जिन लोगों का पुष्य व आश्लेषा नक्षत्र एवं कर्क राशि हो उनको एवं गर्भवती महिलाओं को यह ग्रहण नहीं देखना चाहिए। चन्द्र ग्रहण का सूतक 31 जनवरी 2018 बुधवार को प्रातः 08 बज कर 19 मिनट से लग जायेगा। बालक-बूढ़े और रोगी ग्रहण प्रारंभ होने की अवधि तक पथ्याहार ले सकते है। ग्रहण के सूतक काल में भोजन, शयन, मूर्ति स्पर्श, हास्य विनोद नहीं करना चाहिए। ग्रहण में स्नान करते समय कोई मंत्र आदि नहीं बोलना चाहिए। घर में जनन सूतक या मरण पातक होने पर भी ग्रहणपरक स्नानादि कृत्य करने चाहिए। ग्रहण काल में गुरूदीक्षा लेने से मुहूर्त की आवश्यकता नहीं रह जाती।

ग्रहण का प्रभाव कैसे करें कम

ज्योतिष के मुताबिक इस ग्रहण का असर 108 दिनों तक रहेगा।जिन राशि वालों को ग्रहण का फल है, उन्हें यह ग्रहण कदापि नहीं देखना चाहिए। पंडित जी ने बताया कि जिन राशियों के लिए यह ग्रहण अशुभ सूचक है, वह थोड़ा गंगा जल और एक चांदी का छोटा सा टुकड़ा एक माह (क्योंकि ग्रहण का असर एक माह रहता ही है) तक अपने पास रखें, इससे शुभता की प्राप्ति होगी। ग्रहण स्पर्श के समय स्नान, ग्रहण मध्य के समय जप, श्राद्ध, तर्पण, हवनादि करने से सामान्य दिनों की अपेक्षा हजार गुणा अधिक फल की प्रप्ति होती है। जब ग्रहण कम होने लगे उस समय यथाशक्ति दान देना चाहिए, परन्तु यह दान ब्राह्मणों को न देना चाहिए। यह दान डोम या बाल्मीकि समाज को देने से चन्द्रमा के शुभ फल की प्रप्ति होती है। ग्रहण मोक्ष होने पर पुनः स्नान करना चाहिए।

ग्रहण गर्भवती महिलाओं के लिए

चंद्र ग्रहण को लेकर हिंदू धर्म में अपनी पौराणिक मान्यताएं हैं। खासकर गर्भवती महिलाओं को इस दौरान सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है। ग्रहण गर्भवती महिलाओं के लिए दूसरे लोगों की तुलना में अधिक नुकसानदेह होता है। इसलिए महिलाओं को कुछ खास नियमों का ध्यान रखना पड़ता है और पालन करना पड़ता है। दरअसल ग्रहण के दौरान ना गर्भ में पल रहे बच्चे पर बुरा असर होने का डर होता है। इसलिए महिलाओं को चंद्र ग्रहण के दौरान सावधानी बरतने की सलाह दी जाती है। ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाओं के लिए जानने योग्य सबसे जरूरी बात है इस दौरान बाहर निकलने की भूल ना करें। ऐसा माना जाता है क‍ि ग्रहण की तरंगे आपके अजन्मे शिशु पर बुरा प्रभाव कर सकती हैं। ग्रहण काल में सबसे ज्यादा सावधानी गर्भवती महिलाओं को रखनी चाहिए। इस दौरान वे सबसे ज्यादा संवेदनशील होती हैं और गर्भस्थ शिशु पर ग्रहण काल का असर विपरीत पड़ सकता है।

करें धागे का ये उपाय 

जानकार इसे लेकर एक प्रयोग को बताते हैं जिसका इस्तेमाल कर गर्भवती महिलाएं इस दौरान होने वाले अशुभ प्रभावों से खुद को बचा सकती है। दरअसल गर्भवती महिला की लंबाई के बराबर एक रस्सी या मोटा धागा को घर में किसी खूंटे या कील पर लटका देना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि डोर, धागा या रस्सी सीधी लटकती हो और वह मुड़े नहीं।

जब ग्रहण पूरी तरह खत्म हो जाए और सूतक काल भी समाप्त हो जाए, तब इस डोरी को लाल कपड़े में लपेटकर किसी नदी या तालाब में बहा देना चाहिए। फिर अमुक गर्भवती महिला को स्नान जरूर कर लेना चाहिए। दरअसल पौराणिक मान्यता के मुताबिक ऐसा करने से गर्भवती महिला और उसके गर्भ में पल रहे शिशु पर कोई भी बुरा असर नहीं होता है।

पूरे ग्रहण काल के दौरान गर्भवती महिलाओं को भगवन्नाम का जाप या किसी आध्यात्मिक किताब का अध्ययन करना चाहिए। इस दौरान गीता पाठ, सुंदरकांड का पाठ और रामायण पाठ करने से विशेष लाभ मिलता है और ग्रहण का अशुभ प्रभाव नहीं होता है।

इन बातों का भी रखें ध्यान 

- ग्रहण शुरू होने से पहले स्नान अवश्य करें।

- गर्भवती महिला ग्रहण खत्म होने पर स्नान करके वापस शुद्ध हो जाए।

- दूषित भोजन का सेवन किसी को भी नहीं करना चाहिए।

- ग्रहण से पहले का पका हुआ खाना भी नहीं खाना चाहिए।

- गर्भवती महिलाएं ग्रहण काल में एक नारियल अपने पास रखें।

- इससे गर्भवती महिला पर वायुमंडल से निकलने वाली नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता है।

- ग्रहण के दौरान गर्भवती महिलाएं चाकू, कैंची और सुई का बिल्कुल भी प्रयोग न करें।

- ग्रहण के वक्त गर्भवती महिला को घर के अंदर रहना चाहिये, बाहर नहीं निकलना चाहिए।

- ग्रहण के वक्त गर्भवती महिला को सोना नहीं चाहिए।

- घर के अंदर ऊंचे स्वर में मंत्रों का जाप किया जाना चाहिए।


ग्रहण के समय क्या ना करें?

ग्रहण के समय मूर्ति छूना, भोजन तथा नदी में स्नान करना वर्जित माना जाता है। सूतक काल के समय किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। भोजन ग्रहण करने और पकाने से दूर रहना अच्छा माना जाता है। देवी देवताओं और तुलसी आदि को स्पर्श नहीं करना चाहिए। सूतक के दौरान गर्भवती स्त्री का घर से बाहर निकलना और ग्रहण देखना वर्जित माना जाता है। ये शिशु की सेहत के लिए अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि इससे उसके अंगों को नुकसान पहुँच सकता है।

इसके अलावा नाख़ून काटना, बात कटवाना, निद्रा मैथुन आदि जैसी गतिविधियों से भी ग्रहण व् सूतक काल के समय परहेज करना चाहिए। माना जाता है इस काल में स्त्री प्रसंग से बचना चाहिए अन्यथा आंखों से संबंधित बिमारियों के होने का खतरा बना रहता है।

ग्रहण समाप्त होने के पश्चात् पुरे घर को गंगाजल से शुद्ध करना चाहिए और सूतक काल प्रारंभ होने से पूर्व दूध, जल, दही, अचार आदि खान-पान की सभी चीजों में कुशा या तुलसी के पत्ते दाल देने चाहिए। माना जाता है ग्रहण के दौरान खान पान की सभी चीजें बेकार हो जाती है और वे खाने लायक नहीं रहती। ऐसा करने से आप ग्रहण समाप्त होने के बाद इन्हें पुनः खा सकते है।

ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचने के उपाय

सनातन धर्मानुसार ऋषि मुनियों ने इनके दुष्प्रभाव से बचने के लिए कुछ उपाय बताए हैं जो कि निम्न है:

1.ग्रहण में सभी वस्तुओं में कुश डाल देनी चाहिए कुश से दूषित किरणों का प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि कुश जड़ी- बूटी का काम करती है.

2. ग्रहण के समय तुलसी और शमी के पेड़ को नहीं छूना चाहिए. कैंची, चाकू या फिर किसी भी धारदार वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए.

3. ग्रहण में किसी भी भगवान की मूर्ति और तस्वीर को स्पर्श नहीं चाहिए. इतना ही नहीं सूतक के समय से ही मंदिर के दरवाजे बंद कर देने चाहिए.

4. ग्रहण के दिन सूतक लगने के बाद छोटे बच्चे, बुजुर्ग और रोगी के अलावा कोई व्यक्ति भोजन नहीं करे.

5. ग्रहण के समय खाना पकाने और खाना नहीं खाना चाहिए, इतना ही नहीं सोना से भी नहीं चाहिए. ऐसा कहा जाता है कि ग्रहण के वक्त सोने और खाने से सेहत पर बुरा असर पड़ता है.

6. क्योंकि ग्रहण के वक्त वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जो कि बच्चे और मां दोनों के लिए हानिकारक मानी जाती है.

7. गर्भावस्था की स्थिति में ग्रहण काल के समय अपने कमरे में बैठ कर के भगवान का भजन ध्यान मंत्र या जप करें.

8. ग्रहण काल के समय प्रभु भजन, पाठ , मंत्र, जप सभी धर्मों के व्यक्तियों को करना चाहिए, साथ ही ग्रहण के दौरान पूरी तन्मयता और संयम से मंत्र जाप करना विशेष फल पहुंचाता है. इस दौरान अर्जित किया गया पुण्य अक्षय होता है। कहा जाता है इस दौरान किया गया जाप और दान, सालभर में किए गए दान और जाप के बराबर होता है.

9. ग्रहण के दिन सभी धर्मों के व्यतियों को शुद्ध आचरण करना चाहिए

10. किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहिए, सब के साथ करना चाहिए.

11. सभी के साथ अच्छा व्यवहार करें, और मीठा बोलें.

12. ग्रहण के समय जाप, मंत्रोच्चारण, पूजा-पाठ और दान तो फलदायी होता ही है.

13. ग्रहण मोक्ष के बाद घर में सभी वस्तुओं पर गंगा जल छिड़कना चाहिए, उसके बाद स्नान आदि कर के भगवान की पूजा अर्चना करनी चाहिए और हवन करना चाहिए और भोजन दान करना चाहिए. धर्म सिंधु के अनुसार ग्रहण मोक्ष के उपरांत हवन करना, स्नान, स्वर्ण दान, तुला दान, गौ दान भी श्रेयस्कर है.

14. ग्रहण के समय वस्त्र, गेहूं, जौं, चना आदि का श्रद्धानुसार दान करें , जो कि श्रेष्ठकर होता है.

ग्रहण के समय इस पाठ और मंत्र का करें जाप

पाठ: दुर्गा सप्तशती कवच पाठ मंत्र: ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै

( ग्रहण काल में ॐ का उच्चारण नहीं करना चाहिए  )

12 राशियों पर असर

1. मेष-व्यथा
2. वृष-श्री
3. मिथुन-क्षति
4. कर्क-घात
5. सिंह-हानि
6. कन्या-लाभ
7. तुला-सुख
8. वृश्चिक-माननाश
9. धनु-मृत्यु तुल्य कष्ट
10. मकर-स्त्री पीड़ा
11. कुंभ-सौभाग्य
12. मीन-चिंता


राशि अनुसार चंद्र ग्रहण के उपाय 

1. मेष- मेष राशि के लोगों को परेशानियों से बचने के लिए मंगल से संबंधित वस्तु जैसे गुड़ और मसूर की दाल का दान करना चाहिए।

2. वृषभ- वृष राशि के लोग मानसिक तनाव को दूर करने के लिए इस दिन श्री सूक्त का पाठ करें और मंदिर में अन्न दान करें।

3. मिथुन- मिथुन राशि के लोग बीमारियों को और गरीबी को दूर करने के लिए गाय को पालक या हरी घास खिलाएं, किसी गौशाला में धन का दान करें।

4. कर्क- जिन लोगों की राशि कर्क है, उन्हें इस दिन सूतक से पहले शिवजी की विशेष पूजा करनी चाहिए। ऊँ सों सोमाय नम: मंत्र का जाप करना चाहिए।

5. सिंह- इस राशि के लोगों को क्रोध जल्दी आता है। इन्हें क्रोध पर काबू पाने के लिए इस दिन गायत्री मंत्र का जाप 108 बार करना चाहिए। दान करें।

6. कन्या- धन संबंधी कामों की परेशानियों को दूर करने के लिए किसी किन्नर को हरी चूड़ियां दान करें। गाय को पालक खिलाएं।

7. तुला- चंद्र ग्रहण वाले दिन सूतक से पहले श्री सूक्त का पाठ करें। अन्न का दान करें।

8. वृश्चिक-मानसिक तनाव दूर करने के लिए हनुमानजी के सामने घी का दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का पाठ करें।

9. धनु- पैसों से जुड़ी परेशानियों को दूर करने के लिए श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें। गाय फल खिलाएं।

10. मकर- जिन लोगों की राशि मकर है, उन्हें बीमारियों से बचने के लिए सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए। काले तिल का दान करें।

11. कुंभ- चंद्र ग्रहण वाले दिन सूतक से पहले हनुमान चालीसा का पाठ करें। काली उड़द का दान करें।

12. मीन-इस राशि के लोग सूतक से पहले भगवान विष्णु की पूजा करें और गरीबों को केले बाटें।

यह ध्यान रखना चाहिए कि उपरोक्त बातों का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है लेकिन धर्म के अनुसार इन बातों का जिक्र किया जाता है। भविष्यपुराण, नारदपुराण आदि कई पुराणों में चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय अपनाने वाली हिदायतों के बारें में बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार ग्रहण काल का समय अशुभ माना गया है जिसमें मंदिरों के कपाट बंद रहते है | ग्रहण काल के समय किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ करना वर्जित माना गया है | किन्तु ग्रहण काल के समय में किये गये यज्ञ और मंत्र जप का पुण्य 100 गुना अधिक प्राप्त होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है |

Thursday, January 25, 2018

Bhishma Ashtami

Bhishma Ashtami falls during the Uttarayan, the holy half of the year when the sun is in its northward movement. Since Bhishma wished to die during Uttarayan, he chose to remain on the bed of arrows following his defeat in the Mahabharata battlefield. Bhishmashtami is the most auspicious day marking the death of Bhishma and is a day to observe fast, pujas and Tarpan.



Bhishma Ashtami Vrat Story

Bhishma was the son of Mharaja Shantanu and Ma Ganga. On his birth, he was named Devavrata. For the sake of his father, Devavrata took a resolution to remain celibate throughout his life. His mother goddess Ganga nurtured him and arranged for his education. Devavrata learnt Shastra Vidhya (knowledge of warfare) from Maharishi Parashuram and received his education under the tutelage of Shukaracharya, the preceptor of asuras. He acquired great fighting skills and became an invincible one and a terror to his enemies.

Following his education, Devavrata was brought by Ma Ganga to his father Shantanu who declared him as the prince of the kingdom. Meanwhile, Shantanu fell in love with Satyavati and wished to marry her. Satyavati’s father agreed to give his daughter in marriage to him with the condition that the progeny ensuring through her shall only be given the chance to rule the kingdom. Devavrata perceived the situation and wished to make his father happy. Therefore he decided to give the kingship to Satyavati’s sons and resolved himself to remain a bachelor. Due to this firm resolution, he came to be called as Bhishma.

Shantanu was highly pleased with Bhishma and therefore blessed him with a boon that Bhishma shall die only when he wished. In course of his life, Bhishma took the side of Kauravas in the battle of Mahabharata. As he had earlier pledged not to wield any weapons against Shikandi, he discarded all his weapons in the battlefield at the sight of Shikandi. Therefore he fell injured in the battlefield. Since it is believed that leaving the body in Uttarayan shall give salvation (Moksha) to the individual, Bhishma waited for 18 days on the bed of arrows awaiting uttarayan.

Bhishma Ashtami Puja Vidhi

The eighth day of the Shukla Paksha in the month of Mgha is called as Nirvan Tithi or the day of salvation. It is highly auspicious to perform Tarpan in memory of Bhishma with the offering of kush grass, til and water.

Bhishma Ashtami Fasting Rules

The observer wakes up early in the morning and does Shiva Puja after taking a holy bath. The whole day is spent in fasting and the fasting concludes in the evening after repeating the puja.

Benefits of Bhishma Ashtami Vrat


  1. Observing Bhishma Ashtami blesses the individuals with glorious and honest children. 
  2. The puja, tila tarpan and vrat on this day can remove all sins and bless people with several merits.
  3. Bhishma was a Brahmachari (celibate) by his resolution and therefore doing Tarpan for him wins the blessings of gods
  4. Bhishma Ashtami vrat and tarpan on this day can free one from pitru dosha

Tuesday, January 23, 2018

Narmada Jayanti

 Narmada River starts its journey from Amarkandak and ends in the Arabian Sea. Narmada Jayanti is annually observed in Magh month on Shukla Paksh Saptmi tithi, also known as Rath Saptami. The day celebrates the birth day or the appearance of Narmada River (Maa Narmada) on Earth.



    Legend has it that River Narmada was created by Shiva to wash away the sins occurred by celestial beings (Devas) while annihilating demons. This divine incident happened on Magh Shukla Paksha Saptami or the seventh day during the waxing phase of moon in Magh month.

    There are many rivers in India but only circumambulation of Narmada river is in practice and none of the river's circumambulation is done.

    Once Devtas along with Lord Brahma andLord Vishnu went to Lord Shiva who was meditating on Mekal Mountain in Amarkantak after killing Andhakasur. After Devtas prayed Lord Shiva opened his eyes, welcomed them and asked the purpose of their visit. Devtas asked Lord shiva how they can get rid of the sins they have done by killing demons and monsters.

    Lord Shiva smiled and from his forehead a lightening emerged which reached earth and took the form of a girl. The girl was named Narmada and was give boon by Lord Shiva. On the noon of Magh Shukla Paksha Saptami Narmada was ordered to flow in the form of river and help Devtas and humans in getting rid of their sins. Narmada asked Lord how shall she will be able to wash sins ? Then after Lord Vishnu blessed her by saying whosoever will take bath in river Narmada will get rid off of their sins and every stone of river Narmada will be a Shiv Ling in it's own.

    Before starting it's flow Narmada made a wish to Lord Shiva that she should become famous in similar was a river Ganga. Lord Shiva not only fulfilled her desire but also blessed her to become immortal. This incidence is given in Markandeya Puran.

    The most important festival takes place at Amarkantak and Hoshangabad. People float traditional diyas or lamps on the day on the water of Narmada. Narmada Parikrama is observed on the day.

Sunday, January 21, 2018

Two famous Saraswati temples

Sri Gnana Saraswathi temple,Basara

Sri Gnana Saraswathi temple is at Basara on the banks of river Godavari is the only temple in South India dedicated to the Goddess of learning. The Saraswati temple at Basara is one of the two famous Saraswati temples in India, the other being in Jammu & Kashmir. This temple is situated 200 Kms from Hyderabad, Telangana.



Local legends suggest that Maharshi Veda Vyasa, the author of Mahabharata, came to the forests of Dandakaryana to meditate. He began meditating on the banks of the River Godavari and found the place to be very peaceful. The divine mother is believed to have appeared before the sage and ordained him to build temples for the Shakti trio: Maha Saraswati, Maha Lakshmi and Maha Kali. The sage Veda Vyasa did so by bringing three handfuls of sand and sculpts out the figures. This idol made of sand has its face smeared with turmeric. Eating a little bit of this turmeric paste, it is believed, will enhance one’s wisdom and knowledge. This place was initially named after Vyasa and was called “Vyasapuri”. Later on it got took names Vasara and ultimately Basara/Basar due to the influence of the Marathi language in the region.

Due to the presence of Saraswati, Lakshmi and Kali, Basara is considered as the abode of the divine trinity on the Bank of the River Godavari.

Children are brought here for the ceremony of Akshara puja to start their education with the blessings of the Goddess of Knowledge.The Vedavathi Sila, the Ashtateertha are other places of interest around Basara.

Sri Vidya Saraswathi temple, Vargal

Vargal has famous Sri Vidya Saraswathi temple which is situated at the pictorial background which has a unique rock formation and a valley around this hill in the village of Vargal(Wargal) in Medak District . Here there is a temple dedicated to lord Shani separately with a big statue measuring around 3 feet in height which is one of the biggest statue of the lord shani in Telangana.



The temple is best known among people as Wargal Saraswati Temple, located just 55 km away from the city of Hyderabad.

Saraswathi is the Goddess of education and kids seeking education are brought to this temple for Aksharabhyasam (initiation into education) before joining them into the school for the first time. The hillock of Vargal has multiple temples on the same hill. Sri Lakshmi Ganapathi Temple, Sri Vidya Saraswati temple, Lord Shanishwara Temple, Lord Shiva Temple. Moola vigrahas of ancient Vishnava Temples are completely damaged.

In 1998 the building process for the above temple was activated under the group who called themselves as Satya patam seva samethi. This committee has started searching for a convenient place to built a temple.

Ultimately they selected the hillock of Vargal, where 400 years old Shambu Deva Temple was situated. This temple is 2 feet below the ground level and one has to pass by crawling on the ground for few feet to reach the main Shiva lingam. Surrounding this temple were two ancient Vaishnaya Temples which were built during or before the Kakatiya rulers. There is a big Victory Pillar made of rock which is around 30 feet in height. The Victory Pillar has the statues of Sita Rama Lakshmana, Goddess Lakshmi and entwined couple of snakes.

On Vasantha Panchami of 1989 the Bhoomi pooja was performed and the foundation stone was laid for the temple of Sri Saraswathi Devi. It should be noted on this day they had only Rs. 2700 only. When they started propagating about the process of building Saraswathi Temple of donations poured in as a flood. In this way the construction process continued without any hindrance with the help of Lord Saraswathi.

On 1992 Magashudda Trayodashi Pushpagiri petadipate Sri Sri Sri Vidya Nrusinha Bharati Swamy has laid the foundation to the statues of Goddesses Sri Vidya Saraswathi Devi and Lord Shani statues in a temple. This temple was later dedicated to Kanchi Petam and a Vedic Patashala was started in 1999 by Sri Shankara Vijaya Saraswathi of Kanchi Petam and Lakshmi Ganapathi was inaugarated in 2001. The Expenditure crossed 1 crore of the rupees for building this temple. The temple has 13 and half acres of land on the east side were a park, library, hospital were planned in their future expansion.

During Dussehra period 1000's of devotees visit the temple every day. The Dussehra festival starts with Vigneshwara Pooja. Maha Abishekam Navaratri Kalasha Sthapana Chathu Sha shatyu pachara pooja, Arathi, Mantha Pushpam, Kukumarchana were performed. Laksha pooja Archana Pustaka Roopini Saraswathi Pooja Ashtothara Shathakalasha Abishekam On the last day of Vijayadarshanam of the goddesses Saraswati is decorated for devotees.

Pooja for Lord Shani Special pooja is performed on every Shani Trayodashi which comes on the saturday. The poojas for Lord Shani start at 5 a.m. in the morning which start with Ganapathi pooja and Japam, Homam is performed with Tarpana to Lord Shani.

Best days for performing Aksharabhyasam at Saraswathi Temple are: Ugadi, Sravana Pournami day, Vijaya Dasami, Guru Poornima and Basant Panchami day.
Some special poojas that are performed at Vargal Saraswathi temple are Chandi Homam which is a special event here.

Annual Events Celebrated at Wargal Temple are Vasantha Panchami Mahotsavam, Sharad Navratri Mahotsavam and Shani Thrayodashi.

Monday, January 15, 2018

माघ मेला

माघ मेला हिन्दुओं का सर्वाधिक प्रिय धार्मिक एवं सांस्कृतिक मेला है। हिन्दू पंचांग के अनुसार १४ या १५ जनवरी को मकर संक्रांति के दिन माघ महीने में यह मेला आयोजित होता है। यह भारत के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों में मनाया जाता है। नदी या सागर स्नान इसका मुख्य उद्देश्य होता है।



धार्मिक गतिविधियों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा पारंपरिक हस्त शिल्प, भोजन और दैनिक उपयोग की पारंपरिक वस्तुओं की बिक्री भी की जाती है। धार्मिक महत्त्व के अलावा यह मेला एक विकास मेला भी है तथा इसमें राज्य सरकार विभिन्न विभागों के विकास योजनाओं को प्रदर्शित करती है। प्रयाग, उत्तरकाशी, हरिद्वार इत्यादि स्थलों का माघ मेला प्रसिद्ध है। कहते हैं, माघ के धार्मिक अनुष्ठान के फलस्वरूप प्रतिष्ठानपुरी के नरेश पुरुरवा को अपनी कुरूपता से मुक्ति मिली थी। वहीं भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इंद्र को भी माघ स्नान के महाम्त्य से ही श्राप से मुक्ति मिली थी। पद्म पुराण के महात्म्य के अनुसार-माघ स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार माघमेले का धार्मिक महत्त्व भी है।

मान्यता के अनुसार जब तारे दिख रहे हों उस समय का स्नान सबसे ज्यादा शुभ फल देता है और सूर्योदय के बाद का स्नान अधम फल देता है। कल्पवास करने वाले साधू महात्मा सूर्य की पहली किरण निकलने से पहले ही स्नान कर लेते है और उस समय आम जनता को प्रशासनिक अमला रोके रहता है, जब साधू महात्मा स्नान कर लेते है उसके बाद अन्य लोग स्नान करते हैं। भारत की विविधता को देखने का एक अनोखा अवसर है माघ मेला। इस मेले में ऐसे अद्भुत लोग देखने को मिलेंगे जो हम सब किस्सों कहानियों में पड़ते और सुनते हैं। नागा साधुओं का ऐसा रूप जो कही अन्य देखने को नहीं मिलेगा। अघोरियो की औघड़ साधना जो दुर्लभ है वो भी इस माघ मेले में जगह जगह देखने को मिल जाती है।

भारत में रहने वाले सभी साधू संत इस माघ मेले का इंतजार करते हैं और मेला लगने से पहले अपने अपने तम्बू लगा लेते है और विभिन्न तरह की साधनाओं में लग जाते हैं। भारत के हर कोने से इस मेले में श्रध्दालु आते हैं और कल्पवास करते है। कहा जाता है की माघ मेले में कल्पवास करने वाले को हजार अश्वमेघयज्ञ के बराबर पुण्य मिलता है।

प्रयाग का माघ मेला

प्रयाग के मुख्य शहर को इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है जो भारत के सर्वाधिक पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। प्रयाग का माघ मेला विश्व का सबसे बड़ा मेला है। हिन्दु पुराणों में, हिन्दु धर्म के अनुसार सृष्टि के सृजनकर्ता भगवान ब्रह्मा द्वारा इसे 'तीर्थ राज' अथवा तीर्थस्थलों का राजा कहा गया है, जिन्होंने तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम पर 'प्राकृष्ठ यज्ञ' संपन्न किया था। हमारे पवित्र धर्मग्रंथों - वेदों और रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों और पुराणों में भी इस स्थान को 'प्रयाग' कहे जाने के साक्ष्य मिलते हैं। उत्तर भारत में जलमार्ग के द्वारा इस शहर के सामरिक महत्व को समझते हुए मुगल सम्राट अकबर ने पवित्र 'संगम' के किनारे एक शानदार किले का निर्माण कराया। प्रत्येक वर्ष जनवरी-फरवरी माह में यहां पवित्र 'संगम' के किनारे विश्व प्रसिद्ध माघ मेला आयोजित होता है, जो प्रत्येक जनवरी में वर्ष मकर संक्रांति को आरंभ होकर फरवरी में महा शिवरात्रि को समाप्त होता है।

इस मेले में सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि भारी तादाद में विदेशी भी नजर आते हैं। इस महीने की माघ पूर्णिमा को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. मान्यता है कि इस दिन इलाहाबाद के संगम में स्नान करने से दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। माघ माह में चलने वाला यह स्नान पौष मास की पूर्णिमा से शुरू होकर माघ पूर्णिमा तक होता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण कल्पवासी होते हैं,को पूरे माघ मेले के दौरान मेले मेले में लगे कैम्पों में रहते हैं। इस माघ मेले में नागा बाबा, साधुयों को बड़ी तादाद में देखा जा सकता है, जो यहां संगम के तट पर डुबकी लगाने पहुंचते हैं।

ज्योतिषियों का मानना है की माघ महीने में प्रयाग में संगम में स्नान करने मात्र से विषम से विषम ग्रह दोष भी शांत हो जाता है।  पुराणों के अनुसार ब्रंहा ने सृष्टी की रचना करने के बाद प्रथम यज्ञ प्रयाग में ही किया जिसके कारण इस जगह का नाम प्रयाग पड़ा। भगवान विष्णु ने प्रयाग को ही अपनी मुख्य भूमि चुना था।

माघ मेला में ठहरने के लिए सरकार द्वारा टेंट की उचित व्यवस्था की जाती है, ताकि यहां आने वाले श्रधालुयों को किसी तरीके की दिक्कत ना हो। उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके लोगों का कल्पवास करना अपने आप में एक रोमांच पैदा करता है। लगभग 10 डिग्री तापमान पर एक कपड़े के तम्बू में एक महीने तक ईश्वर की आराधना करना।सुबह सुबह बर्फ जैसे संगम के पानी में स्नान करना और अपने हाथों से खाना बना के खाना। इन सब घटनाओ को बिना आंखों से देखे कोई भरोसा नहीं कर सकता । लेकिन इस समय माघ मेले में ये सब घटनाएं आम हैं।

विदेशी सामजशास्त्री आज भी इस बात को लेकर अपना रिसर्च करते हैं की ऐसी कौन सी ताकत है जो इन लोगो को इस कड़ाके की ठण्ड में भी इस तरह के काम करने की प्रेरणा देती है और लाखों लोग एक साथ एक अस्थाई शहर के नागरिक बन जाते हैं।


Thursday, January 11, 2018

षटतिला एकादशीव्रत

माघ माह हिन्दू धर्म में बेहद पवित्र माना जाता है। इस महीने मनुष्य को अपनी इंद्रियों को काबू में रखते हुए क्रोध, अहंकार, काम, लोभ व चुगली आदि का त्याग करना चाहिए। माघ मास के कृष्णपक्ष की एकादशी को षटतिला एकादशी व्रत किया जाता है। इस दिन तिल का विशेष महत्त्व है। पद्म पुराण के अनुसार इस दिन उपवास करके तिलों से ही स्नान, दान, तर्पण और पूजा की जाती है। इस दिन तिल का इस्तेमाल स्नान, प्रसाद, भोजन, दान, तर्पण आदि सभी चीजों में किया जाता है। तिल के कई प्रकार के उपयोग के कारण ही इस दिन को षटतिला एकादशी कहते हैं।



षटतिला एकादशी की व्रत विधि अन्य एकादशी से थोड़ा भिन्न है।

माघ माह के कृष्ण पक्ष की दशमी को भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए गोबर में तिल मिलाकर 108 उपले बनाने चाहिए। इसके बाद दशमी के दिन मात्र एक समय भोजन करना चाहिए और भगवान का स्मरण करना चाहिए।

षटतिला एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। पद्म पुराण के अनुसार चन्दन, अरगजा, कपूर, नैवेद्य आदि से भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। उसके बाद श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए कुम्हड़ा, नारियल अथवा बिजौर के फल से विधि विधान से पूज कर अर्घ्य देना चाहिए।

एकादशी की रात को भगवान का भजन- कीर्तन करना चाहिए। एकादशी के रात्रि को 108 बार "ऊं नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र से उपलों को हवन में स्वाहा करना चाहिए।

इसके बाद ब्राह्मण की पूजा कर उसे घड़ा, छाता, जूता, तिल से भरा बर्तन व वस्त्र दान देना चाहिए। यदि संभव हो तो काली गाय दान करनी चाहिए। तिल से स्नान, उबटन, होम, तिल का दान, तिल को भोजन व पानी में मिलाकर ग्रहण करना चाहिए।

शट तिला एकदशी के दिन स्नान के पानी में तिल के बीज मिलाकर स्नान करने का बहुत महत्व है। भक्त भी ‘शट तिल एकदशी' पर 'तिल' का इस्तेमाल खाने के लिए करते हैं। इस दिन भक्तों को अपने मन में केवल आध्यात्मिक विचार ही लाने चाहिए और लालच वासना और क्रोध को अपने विचारों पर हावी नहीं होने देना चाहिए।

भक्त षटतिला एकादशी पर धार्मिक उपवास रखते हैं और पूरे दिन खाते या पीते नहीं है। लेकिन यदि आप पूरी तरह से व्रत रखने में सक्षम नहीं है तो आप आंशिक उपवास भी रख सकते है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सख्त उपवास नियमों की तुलना में भगवान से प्यार अधिक महत्वपूर्ण है। हालांकि कुछ ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जो सभी को एकदशी के दिन नहीं खाना चाहिए जैसे की अनाज, चावल और दालें।

भगवान विष्णु शट तिला एकादशी के मुख्य देवता हैं। भगवान की मूर्ति पंचमृत में नेह्लाई जाती है, जिसमे तिल के बीज निश्चित रूप से मिश्रित करने चाहिए। बाद में भगवान विष्णु को खुश करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रसाद तैयार किये जाते हैं।

शट तिला एकादशी पर भक्त पूरी रात जागते रहते हैं और भगवान विष्णु के नाम का प्रचुर भक्ति और श्रधा के साथ जप करते हैं। कुछ स्थानों पर, भक्त इस सम्मानित दिन यज्ञ भी आयोजित करते है।

Wednesday, January 10, 2018

मकर संक्रान्ति महत्व

सूर्य के धनु राशि में होने से सभी शुभ काम वर्जित हैं, लेकिन सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करते ही सभी मांगलिक कार्य किए जा सकेंगे। मकर संक्रांति से खरमास समाप्त हो जाएगा। रविवार की दोपहर से सर्वार्थ सिद्धि योग शुरू होगा। इस योग में किए शुभ काम सिद्ध हो जाते हैं। इसके साथ ही 14 जनवरी को त्रयोदशी तिथि में गुरु और मंगल ग्रह तुला राशि में एक साथ रहेंगे, जिससे पारिजात योग बनेगा। ये दोनों ही योग दुर्लभ और मंगलकारी हैं।



भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में मकर संक्रांति के पर्व को अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। आंध्रप्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे संक्रांति कहा जाता है, तमिलनाडु में इसे पोंगल पर्व के रूप में मनाया जाता है। पंजाब और हरियाणा में इस समय नई फसल का स्वागत किया जाता है और लोहड़ी पर्व मनाया जाता है, वहीं असम में बिहू के रूप में इस पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है।

मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। इसलिए इस दिन से रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। दिन बड़ा होने से सूर्य की रोशनी अधिक होगी और रात छोटी होने से अंधकार कम होगा। इसलिए मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है।

यानी यह त्योहार प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और खेती से जुड़ा है और इन्हीं तीन चीजों को जीवन का आधार भी माना जाता है। प्रकृति के कारक के तौर पर इस दिन सूर्य की पूजा होती है और सूर्य की स्थिति के अनुसार ऋतुओं में बदलाव होने के साथ ही धरती अनाज पैदा करती है।

इस मौके पर इलाहाबाद (प्रयाग) के संगम स्थल पर हर साल लगभग एक मास तक माघ मेला लगता है, जहां लोग कल्पवास भी करते हैं। बारह साल में एक बार कुंभ मेला लगता है, यह भी लगभग एक महीने तक रहता है। इसी तरह 6 बरसों में अर्धकुंभ मेला भी लगता है। मकर संक्रांति  के मौके पर बंगाल में गंगा सागर मेला लगता है।

इस बार मकर संक्रांति को लेकर पंचांग भेद सामने आए हैं। कुछ पंचांग में सूर्य का राशि परिवर्तन 14 जनवरी की दोपहर 2 बजे के बाद होगा, जबकि कुछ पंचांग में रात 8 बजे बाद सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगा। हालांकि ज्यादातर पंचांग में 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति मनाना श्रेष्ठ बताया गया है। इस दिन सूर्य उत्तरायण होगा, साथ ही सर्वार्थ सिद्धि और पारिजात योग भी बन रहा है। ये योग शुभ और मंगलकारी माने जाते हैं। ज्योतिषों के मुताबिक ऐसा 6 साल बाद हो रहा है कि रविवार को ही मकर संक्रांति पड़ रही है। इसके साथ ही संक्रांति पर्व पर मूल नक्षत्र, सिंह लग्न और ध्रुव योग के संयोग शुभ फल प्रदान करने वाले हैं। साथ में इस दिन प्रदोष होने से रवि प्रदोष का भी संयोग बनेगा।

मकर संक्रांति पर सूर्यदेव दक्षिणायन से उत्तरायण आते हैं। मकर संक्रांति के द‍िन स्नान, दान, जप, तप, श्राद्ध तथा अनुष्ठान का बहुत महत्व है।

शास्त्रों के अनुसार इस दिन प्रात: काल जल्दी उठकर उबटन लगाकर किसी भी तीर्थ स्थान के जल से स्नान करना चाहिए। अगर तीर्थ का जल उपलब्ध ना हो तो आप दूध या दही से भी स्थान कर सकते हैं। स्नान करने के उपरांत अपने आराध्य देव या देवी की उपासना कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।

पूजन के बाद दान जरूर करें। कहते हैं कि इस मौके पर किया गया दान सौ गुना होकर वापस फलीभूत होता है। मकर संक्रान्ति के दिन तिल, गुड़, कंबल, खिचड़ी दान का खास महत्व है। हालांकि इस द‍िन राश‍ि अनुसार दान करने की महिमा ज्‍यादा बताई गई है। दरअसल, संक्रांत‍ि में सूर्य के मकर राश‍ि में प्रवेश का असर हर राश‍ि पर अलग होता है,  इसलिए ऐसा माना जाता है।

मकर संक्रांति पर क्‍यों करते हैं तिल का प्रयोग

धार्म‍िक अनुष्‍ठानों में तिल का प्रयोग किया जाता है क्‍योंक‍ि यह शनि का द्रव्य है। मकर संक्रांति पर सूर्य एक माह शनि की राशि मकर में रहते हैं। शनि न्याय और पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित करवाते हैं। तिल के दान का यही महत्व है कि पूर्व जन्म के पापों और ऋण का तिल दान शमन करता है। गरीबों में तिल के लड्डू बांटने से व्याधि का नाश होता है और मुकदमे में विजय मिलती है। राहु और केतु भी शनि के शिष्य हैं। अतः राहु और केतु की पीड़ा भी तिल दान समाप्त करता है। वहीं तिल के दान से शनि,राहु और केतु के दोष दूर होते हैं और शनि की साढ़ेसाती के कष्ट से मुक्ति मिलती है। गुड़ के मिश्रित दान से सूर्य और मंगल से पीड़ित दोष भी समाप्त होते हैं। बहते जल में इस माह तिल और गुड़ का प्रवाह करने से कष्ट से मुक्ति मिलती है।

इस मौसम में ठंड पड़ने के कारण तमाम प्रकार के उदर विकार और एसिडिटी की समस्या होती है। तिल एक प्रकार का एंटीऑक्सीडेंट है और गुड़ गैस के लिए बहुत लाभकारी चीज है। तिल का लड्डू उदर विकार के साथ साथ रक्त को शुद्ध भी करता है और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है। तिल का सेवन प्रत्येक सुबह करना चाहिए और रात में भोजन के पश्चात तिल के 2 लड्डू और गुनगुना पानी ग्रहण करके सोना चाहिए।

मकर संक्रांति पर कुछ काम करने से रोका भी गया है। ये इस प्रकार हैं-

  1. इस दिन पुण्यकाल में दांत मांजने या बाल धोने से बचना चाहिए। 
  2. इस द‍िन फसल नहीं काटनी चाहिए और न ही गाय या भैंस का दूध निकालने जैसा काम करना चाहिए।
  3. इस पुण्य कार्य के दौरान किसी से भी कड़वे बोलना अच्छा नहीं माना गया है।
  4. इस दौरान आपको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि किसी भी वृक्ष को नहीं काटें। 
  5. मांस और शराब के सेवन से भी इस द‍िन बचना चाहिए। ख‍िचड़ी या सात्‍व‍िक भोजन ग्रहण करें। 



राश‍ि के हिसाब से करें दान 

मकर संक्रांति पर सूर्य का प्रवेश मकर राश‍ि में होता है और इसका हर राशि पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि आपके द्वारा किया जाने वाला दान आपकी राशि से जुड़ा हो। राशि के अनुसार आपके लिए कौन सा दान फलदायी साबित होगा -

  1. मेष राशि के लोगों को गुड़, मूंगफली, तिल का दान देना चाहिए। 
  2. वृषभ राशि के लोगों के लिए सफेद कपड़े और तिल का दान करना उपयुक्त रहेगा।
  3. मिथुन राशि के लोग मूंग दाल, चावल और कंबल का दान करें। 
  4. कर्क राशि के लोगों के लिए चांदी, चावल और सफेद वस्त्र का दान देना उचित है।
  5. सिंह राशि के लोगों को तांबा और सोने के मोती दान करने चाहिए। 
  6. कन्या राशि के लोगों को चावल, हरे मूंग या हरे कपड़े का दान देना चाहिए।
  7. तुला राशि के जातकों को हीरे, चीनी या कंबल का देना चाहिए। 
  8. वृश्चिक राशि के लोगों को मूंगा, लाल कपड़ा और तिल दान करना चाहिए।
  9. मकर राशि के लोगों को गुड़, चावल और तिल दान करने चाहिए। 
  10. धनु राशि के जातकों को वस्‍त्र, चावल, तिल और गुड़ का दान करना चाहिए। 
  11. कुंभ राशि के जातकों के लिए काला कपड़ा, काली उड़द, खिचड़ी और तिल का दान चाहिए। 
  12. मीन राशि के लोगों को रेशमी कपड़ा, चने की दाल, चावल और तिल दान देने चाहिए।




राशियों पर कैसा रहेगा मकर संक्रांति के इन दोनों योग का असर-

मेष- मेष राशि वालों को इस दिन धर्म लाभ मिलेगा और कार्यों में सफलता मिलेगी।
वृष- इस राशि के लोगों को रोग होने के योग हैं। अनजाना भय रहेगा। सूर्य को जल चढ़ाएं।
मिथुन- इन लोगों के लिए धन का अपव्यय होने के योग हैं। मान-सम्मान प्राप्त होगा।
कर्क- कर्क राशि के लोगों को शारीरिक कष्ट हो सकता है। इष्टदेव की पूजा करें और गरीबों को धन का दान करें।
सिंह- इस राशि के लोगों को शासकीय कार्यों में लाभ मिल सकता है।
कन्या- घर-परिवार में वाद-विवाद हो सकते हैं। यात्रा में कष्ट हो सकता है। गाय की हरी घास खिलाएं।
तुला- तुला राशि के लोगों को लाभ मिलने के योग हैं, लेकिन मानसिक कष्ट भी हो सकता है।
वृश्चिक- इन लोगों को नौकरी में कोई पद लाभ मिल सकता है, जिससे संतोष रहेगा।
धनु- किसी करीबी रिश्तेदार से विवाद हो सकता है। गरीबों को काले तिल का दान करें।
मकर- वैवाहिक जीवन में कलह हो सकती है। जीवन साथी के साथ किसी पवित्र नदी में स्नान करें।
कुंभ- कुंभ राशि वालों का मानसिक तनाव बढ़ सकता है। शिवलिंग पर काले तिल चढ़ाएं।
मीन- घर-परिवार और समाज में मान सम्मान बढ़ेगा।


Tuesday, January 9, 2018

मकर संक्रान्ति

ग्रहों के राजा सूर्य के गोचरवश राशि परिवर्तन करने अर्थात् एक राशि से दूसरी राशि में जाने को संक्रांति कहा जाता है। इसी क्रम में जब सूर्य गोचरवश अपनी राशि परिवर्तन कर मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो इसे मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है।



सूर्य एक राशि में 1 माह तक रहते हैं, अत: संक्रांति तो प्रतिमाह आती है लेकिन मकर राशि में सूर्य का गोचर 1 वर्ष के अन्तराल से होता है इसलिए मकर संक्रांति का पर्व प्रतिवर्ष पौष मास में आता है। वर्ष 2018, विक्रम संवत् 2074 में सूर्य 14 जनवरी की रात्रि 8 बजकर 8 मिनट पर मकर राशि में प्रवेश करेंगे। इस बार मकर संक्रांति को लेकर पंचांग भेद सामने आए हैं। कुछ पंचांग में सूर्य का राशि परिवर्तन 14 जनवरी की दोपहर 2 बजे के बाद होगा, जबकि कुछ पंचांग में रात 8 बजे बाद सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगा।

अत: मकर संक्रांति का पर्व 14 जनवरी 2018 को मनेगा। इसका पुण्यकाल 15 जनवरी 2018 को रहेगा। मकर संक्रांति का विशेष पुण्यकाल 14 जनवरी 2018 को रात्रि 8 बजकर 8 मिनिट से 15 जनवरी 2018 को दिन के 12 बजे तक रहेगा। वर्ष 2018, विक्रम संवत् 2074 में संक्रांति का वाहन महिष एवं उपवाहन ऊंट रहेगा। इस वर्ष संक्रांति काले वस्त्र एवं मृगचर्म की कंचुकी धारण किए, नीले आक के फ़ूलों की माला पहने, नीलमणि के आभूषण धारण किए, हाथ में तोमर आयुध लिए, दही का भक्षण करती हुई दक्षिण दिशा की ओर जाती हुई रहेगी।

उत्तर भारत में यह पर्व 'मकर सक्रान्ति के नाम से और गुजरात में 'उत्तरायण' नाम से जाना जाता है। मकर संक्रान्ति को पंजाब में लोहडी पर्व, उतराखंड में उतरायणी, गुजरात में उत्तरायण, केरल में पोंगल, गढवाल में खिचडी संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है।

मकर संक्रान्ति के शुभ समय पर हरिद्वार, काशी आदि तीर्थों पर स्नानादि का विशेष महत्व माना गया है। इस दिन सूर्य देव की पूजा-उपासना भी की जाती है। शास्त्रीय सिद्धांतानुसार सूर्य पूजा करते समय श्वेतार्क तथा रक्त रंग के पुष्पों का विशेष महत्व है। इस दिन सूर्य की पूजा करने के साथ साथ सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए।

मकर संक्रान्ति के दिन दान करने का महत्व अन्य दिनों की तुलना में बढ जाता है। इस दिन व्यक्ति को यथासंभव किसी गरीब को अन्नदान, तिल व गुड का दान करना चाहिए। तिल या फिर तिल से बने लड्डू या फिर तिल के अन्य खाद्ध पदार्थ भी दान करना शुभ रहता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार कोई भी धर्म कार्य तभी फल देता है, जब वह पूर्ण आस्था व विश्वास के साथ किया जाता है। जितना सहजता से दान कर सकते हैं, उतना दान अवश्य करना चाहिए।

मकर संक्रान्ति के साथ अनेक पौराणिक तथ्य जुड़े हुए हैं जिसमें से कुछ के अनुसार भगवान आशुतोष ने इस दिन भगवान विष्णु जी को आत्मज्ञान का दान दिया था। इसके अतिरिक्त देवताओं के दिनों की गणना इस दिन से ही प्रारम्भ होती है। सूर्य जब दक्षिणायन में रहते है तो उस अवधि को देवताओं की रात्री व उतरायण के छ: माह को दिन कहा जाता है। महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रान्ति का दिन ही चुना था।

कहा जाता है कि आज ही के दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। इसीलिए आज के दिन गंगा स्नान व तीर्थ स्थलों पर स्नान दान का विशेष महत्व माना गया है। मकर संक्रान्ति के दिन से मौसम में बदलाव आना आरम्भ होता है। यही कारण है कि रातें छोटी व दिन बड़े होने लगते हैं। सूर्य के उतरी गोलार्द्ध की ओर जाने के कारण ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाश में गर्मी और तपन बढ़ने लगती है। इसके फलस्वरुप प्राणियों में चेतना और कार्यशक्ति का विकास होता है।

 मकर-संक्रान्ति के दिन देव भी धरती पर अवतरित होते हैं, आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है, अंधकार का नाश व प्रकाश का आगमन होता है. इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्व है। इस दिन गंगा स्नान व सूर्योपासना पश्चात गुड़, चावल और तिल का दान श्रेष्ठ माना गया है।

मकर संक्रान्ति के दिन खाई जाने वाली वस्तुओं में जी भर कर तिलों का प्रयोग किया जाता है। तिल से बने व्यंजनों की खुशबू मकर संक्रान्ति के दिन हर घर से आती महसूस की जा सकती है। इस दिन तिल का सेवन और साथ ही दान करना शुभ होता है। तिल का उबटन, तिल के तेल का प्रयोग, तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल का पान, तिल- हवन, तिल की वस्तुओं का सेवन व दान करना व्यक्ति के पापों में कमी करता है।

मकर संक्रांति हिन्दू धर्म में मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व है। पौष माह में जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं तब इस संक्रांति को मनाया जाता है। इसी दिन से सूर्य की उत्तरायण गति आरंभ होती है इसलिए इसे उत्तरायणी के नाम से भी पुकारा जाता है। मकर संक्रांति का पर्व जनवरी माह की 13,14 या 15 तारीख को पूरे भारत वर्ष में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायन देवताओं का दिन, तो दक्षिणायन देवताओं की रात्रि होती है।

मकर संक्रांति से ही पृथ्वी पर शुभ और सुहाने दिनों की शरुआत होती है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर हर वर्ष मेले का आयोजन किया जाता है जो माघ मेले के नाम से विख्यात है। माघ मेले का पहला स्नान मकर संक्रांति से प्रारंभ होकर शिवरात्रि के आखिरी स्नान तक चलता है।

बिहार में मकर संक्रांति के व्रत को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन खिचड़ी खाने एवं दान करने की प्रथा है। गंगा स्नान के पश्चात ब्राह्मणो एवं पूज्य व्यक्तियों में तिल एवं मिष्ठान के दान का विशेष महत्व है.

बंगाल में भी पवित्र स्नान के बाद तिल की प्रथा है। मकर संक्रांति पर गंगा सागर स्नान विश्व प्रसिद्ध है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के तर्पण के लिए वर्षों की तपस्या से के गंगा जी को पृथ्वी पर अवतरित होने पर विवश कर दिया था। मकर संक्रांति के दिन महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों का तर्पण किया था और उनके पीछे पीछे चलते हुए गंगा जी कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में समा गई थीं।

तिल का महत्व

हमारे ऋषि मुनियों ने मकर संक्रांति पर्व पर तिल के प्रयोग को बहुत सोच समझ कर परंपरा का अंग बनाया है। कहते हैं इस दिन से दिन तिल भर बड़ा होता है। आयुर्वेद के अनुसार यह शरद ऋतु के अनुकूल होता है। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से तिल का विशेष महत्व है, इसीलिए हमारे तमाम धार्मिक तथा मांगलिक कार्यों में, पूजा अर्चना या हवन, यहां तक कि विवाहोत्सव आदि में भी तिल की उपस्थिति अनिवार्य रखी गई है।

तिल वर्षा ऋतु की खरीफ की फसल है। बुआई के बाद लगभग दो महीनों में इसके पौधे में फूल आने लगते हैं और तीन महीनों में इसकी फसल तैयार हो जाती है। इसका पौधा 3-4 फुट ऊंचा होता है। इसका दाना छोटा व चपटा होता है। इसकी तीन किस्में काला, सफेद और लाल विशेष प्रचलित हैं। इनमें काला तिल पौष्टिक व सर्वोत्तम है। आयुर्वेद के छह रसों में से चार रस तिल में होते हैं, तिल में एक साथ कड़वा, मधुर एवं कसैला रस पाया जाता है।

मकर संक्रांति के दिन ही असरकारी है सूर्य का यह खखोल्क मंत्र

प्रस्तुत मंत्र सूर्य का दिव्य और चमत्कारी मंत्र है। इस मंत्र को मकर संक्रांति के दिन पढ़ने से हर तरह के कार्य सिद्ध होते हैं। विशेषकर संतान प्राप्ति और रोजगार के लिए इस मंत्र का आश्चर्यजनक प्रभाव देखा गया है। 

'ॐ नमः खखोल्काय' 

भगवान सूर्य अपने सारथि 'अरुण" से इस मंत्र के विषय में कहते हैं- हे खगश्रेष्ठ। मेरे मंडल के विषय में सुनो। मेरा कल्याणमय मंडल "खखोल्क" नाम से विद्वानों के ज्ञान मंडल में और तीनों लोकों में विख्यात है। यह तीनों देवों एवं तीनों गुणों से परे एवं सर्वज्ञ है। यह सर्वशक्तिमान है। "ॐ" इस एकाक्षर मंत्र में यह मंडल अवस्थित है। जैसे घोर संसार-सागर अनादि है वैसे ही "खखोल्क" भी अनादि है और संसार-सागर का शोधक है।

जैसे व्याधियों की औषधि होती है वैसे ही यह मंत्र संसार-सागर के लिए औषधि है। मोक्ष चाहने वालों के लिए मुक्ति का साधन और सभी अर्थो का साधक है। खखोल्क नाम का यह मंत्र सदैव उच्चारण और स्मरण करने योग्य है। जिसके हृदय में "ॐ नमः खखोल्काय" मंत्र स्थित है उसी ने सब कुछ पढ़ा है सुना है और अनुष्ठित किया है, ऐसा समझना चाहिए।   ।

मनीषियों ने इस खखोल्क मंत्र को "मार्तण्ड" के नाम से प्रतिष्ठापित किया है। इस मंत्र के प्रति श्रद्धानत् होने पर पुण्य प्राप्त होता है।

निम्नलिखित मंत्रों का जप तथा हवन करने से मंत्र सिद्धि, ईष्ट‍ सिद्धि तथा समस्याओं का निवारण होता है-

'ॐ ह्रीं सूर्याय नम:।'

'ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्‍म्यै नम:।'

ऐसे करें तिल का प्रयोग

मकर संक्रांति के दिन पर्व काल के समय में किसी भी पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करना चाहिए। इसके पूर्व तिल के तेल की मालिश करना चाहिए तथा तिल्ली का उबटन लगाकर स्नान करने के पश्चात सूर्यदेव का पूजन करना चाहिए।

इस दिन वैदिक ब्राह्मणों को तांबे के कलश में तिल्ली भर कर उस पर गुड़ रखकर दान देने का महत्व है। साथ ही सौभाग्यवती महिलाओं को सौभाग्य सामग्री का दान करना चाहिए। इन दिनों निम्न 6 प्रकार से तिल का उपयोग करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

1. तिल स्नान

2. तिल की उबटन

3. तिलोदक

4. तिल का हवन

5. तिल का भोजन

6. तिल का दान

इस व्रत में तिल के उपयोग का बहुत महत्व है। इससे दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्ट से मुक्ति मिलती है। साथ ही इस दिन लाल गाय को गुड़ व घास खिलाने का भी महत्व है। गाय को गुड़ व घास खिलाने के पश्चात पानी अवश्य ही पिलाना चाहिए, ऐसा करने से पितृ हम पर प्रसन्न होते हैं तथा जीवन को सुख में बदल देते हैं।

संक्रांति के पुण्यकाल में पवित्र नदियों में स्नान कर तिल व तिल से बने पदार्थों का दान करना श्रेयस्कर रहेगा। आइए जानते हैं कि मकर संक्रांति का समस्त 12 राशियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

1. मेष- मेष राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार व्यापार में लाभ प्राप्त होगा। कार्यों में सफ़लता प्राप्त होगी। धन लाभ होगा। मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी।

2. वृष-वृष राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार धन हानि की संभावना है। झूठे आरोप के कारण प्रतिष्ठा धूमिल होगी। कार्यों में असफ़लता प्राप्त होगी। रोग के कारण कष्ट होगा। पारिवारिक विवाद के कारण अशान्ति का वातावरण रहेगा।

3. मिथुन-मिथुन राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार विवाद के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। कोर्ट-कचहरी व मुकदमें में असफ़लता के योग हैं। धन का अपव्यय होगा। उच्च रक्तचाप के कारण कष्ट होगा। मान-प्रतिष्ठा में कमी आएगी।

4. कर्क- इस माह कर्क राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार दाम्पत्य सुख में हानि होगी। कार्यों में असफ़लता प्राप्त होगी। धन हानि एवं मानहानि होगी। सिर में पीड़ा के साथ-साथ शारीरिक कष्ट की संभावनाएं हैं।

5. सिंह-
इस माह सिंह राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार कार्यों में सफ़लता प्राप्त होगी। शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी। रोगों से मुक्ति मिलेगी। राज्य से लाभ प्राप्त होगा। प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी।

6. कन्या-इस माह कन्या राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार मानसिक पीड़ा होगी। राज्याधिकारियों से विवाद होगा। सन्तान को कष्ट की संभावना है। धनहानि होगी। यात्रा में दुर्घटना की संभावना है।

7. तुला-
इस माह तुला राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार पारिवारिक विवाद के कारण कष्ट होगा। धनहानि व मानहानि होगी। यात्रा में कष्ट होगा। जमीन-जायदाद संबंधी मामलों में असफ़लता प्राप्त होगी। मानसिक अशांति के कारण कष्ट रहेगा।

8. वृश्चिक-
इस माह वृश्चिक राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार मित्रों से लाभ होगा। धन लाभ होगा। राज्याधिकारियों से अनुकूलता प्राप्त होगी। पदोन्नति की संभावना है। उच्च पद की प्राप्ति होगी। शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी। प्रत्येक कार्य में सफ़लता मिलेगी। मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी।

9. धनु-
इस माह धनु राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार व्यापार व धन सम्पत्ति में हानि का योग है। मित्रों व परिवारजनों से विवाद की सम्भावना है। सिर व आंखों में पीड़ा के कारण परेशानी रहेगी।


10.मकर- इस माह मकर राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार धन हानि के योग हैं। सम्मान व प्रतिष्ठा में कमी होगी।

11. कुंभ- इस माह कुंभ राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार स्थान परिवर्तन का योग बन रहा है। कार्यक्षेत्र में परेशानियां रहेंगी। गुप्त शत्रुओं के कारण हानि का योग है।

12.मीन- इस माह मीन राशि वाले जातकों को सूर्य के गोचर अनुसार धन प्राप्ति का योग है। पदोन्नति के अवसर हैं। मान-सम्मान व प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी।

Tuesday, January 2, 2018

दैनिक उपासना की सरल प्रक्रिया

नियमित उपासना के लिए पूजा-स्थली की स्थापना आवश्यक है। घर में एक ऐसा स्थान तलाश करना चाहिये जहाँ अपेक्षाकृत एकान्त रहता हो, आवागमन और कोलाहल कम-से-कम हो। ऐसे स्थान पर एक छोटी चौकी को पीत वस्त्र से सुसज्जित कर उस पर काँच से मढ़ा भगवान का सुन्दर चित्र स्थापित करना चाहिये। गायत्री की उपासना सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। इसलिये उसकी स्थापना की प्रमुखता देनी चाहिये। यदि किसी का दूसरे देवता के लिये आग्रह हों तो उन देवता का चित्र भी रखा जा सकता है। शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है। इसलिये यदि अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिये।



अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय। उससे एकनिष्ठा और एकाग्रता का लाभ होता है। यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम-से-कम रखनी चाहिये। जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमाएं बढ़ाई जायेंगी- निष्ठा उसी अनुपात से विभाजित होती जायेगी। इसलिये यथासंभव एक अन्यथा कम-से-कम छवियाँ पूजा स्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिये।

पूजा-स्थली के पास उपयुक्त व्यवस्था के साथ पूजा के उपकरण रखने चाहिये। अगरबत्ती, पंच-पात्र, चमची, धूपबत्ती, आरती, जल गिराने की तस्तरी, चंदन, रोली, अक्षत, दीपक, नैवेद्य, घी, दियासलाई आदि उपकरण यथा-स्थान डिब्बों में रखने चाहिये। आसन कुशाओं का उत्तम है। चटाई में काम चल सकता है। आवश्यकतानुसार मोटा या गुदगुदा आसन भी रखा जा सकता है। माला चन्दन या तुलसी की उत्तम है। शंख, सीपी मूँगा जैसी जीव शरीरों से बनने वाली मालाएं निषिद्ध हैं। इसी प्रकार किसी पशु का चमड़ा भी आसन के स्थान पर प्रयोग नहीं करना चाहिये। प्राचीन काल में अपनी मौत मरे हुए पशुओं का चर्म वनवासी संत सामयिक आवश्यकता के अनुरूप प्रयोग करते होंगे। पर आज तो हत्या करके मरे हुए पशुओं का चमड़ा ही उपलब्ध है। इसका प्रयोग उपासना की सात्विकता को नष्ट करता है।

नियमित उपासना, नियत समय पर संस्था में, नियत स्थान पर होनी चाहिये। इस नियमितता से वह स्थान संस्कारित हो जाता है और मन भी ठीक तरह लगता है। जिस प्रकार नियत समय पर सिगरेट आदि की ‘भड़क’ उठती है, उसी तरह पूजा के लिये भी मन में उत्साह जगता है। जिस स्थान पर बहुत दिन से सो रहे हैं, उस स्थान पर नींद ठीक आती है। नई जगह पर अकसर नींद में अड़चन पड़ती है। इसी प्रकार पूजा का नियत स्थान ही उपयुक्त रहता है। व्यायाम की सफलता तब है जब दंड बैठक आदि को नियत संख्या में नियत समय पर किया जाय। कभी बहुत कम, कभी बहुत ज्यादा, कभी सबेरे, कभी दोपहर को व्यायाम करने से लाभ नहीं मिलता।
इसी प्रकार दवा की मात्रा भी समय और तोल को ध्यान में रख कर मनमाने समय और परिमाण में सेवन की जाय तो उससे उपयुक्त लाभ न होगा। यही बात अस्थिर संख्या की उपासना के बारे में कही जा सकती है। यथा संभव नियमितता ही बरतनी चाहिये। रेलवे की रनिंग ड्यूटी करने वाले, यात्रा में रहने वाले, फौजी, पुलिस वाले जिन्हें अक्सर समय-कुसमय यहाँ-वहाँ जाना पड़ता है, उनकी बात दूसरी है। वे मजबूरी में अपना क्रम जब भी, जितना भी बन पड़े, रख सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा। पर जिन्हें ऐसी असुविधा नहीं उन्हें यथा संभव नियमितता ही बरतनी चाहिये। कभी मजबूरी की स्थिति आ पड़े तो तब वैसा हेर-फेर किया जा सकता है।

पूजा उपचार के लिये प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है। स्थान और पूजा उपकरणों की सफाई नित्य करनी चाहिये। जहाँ तक हो सके नित्यकर्म से शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर ही पूजा पर बैठना चाहिये। रुग्ण या अशक्त होने की दशा में हाथ-पैर, मुँह आदि धोकर भी बैठा जा सकता है। पूजा का न्यूनतम कार्य तो निर्धारित रखना ही चाहिये। उतना तो पूरा कर ही लिया जाय। यदि प्रातः समय न मिले तो सोने से पूर्व निर्धारित कार्यक्रम की पूर्ति की जाय। यदि बाहर प्रवास में रहना हो तो मानसिक ध्यान पूजा भी की जा सकती है। ध्यान में नित्य की हर पूजा पद्धति का स्मरण और भाव कर लेने को मानसिक पूजा कहते हैं। विवशता में ऐसी पूजा से भी काम चल सकता है।

सबसे पहले शरीर, मन और इन्द्रियों को- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की शुद्धि के लिये आत्म-शुद्धि के पंचोपचार करने चाहिये। यही संक्षिप्त ब्रह्म-संध्या है। (1) बायें हाथ में एक चम्मच जल रख कर दाहिने से ढंका जाय। पवित्रीकरण का मंत्र अथवा गायत्री मंत्र पढ़ कर उस जल को समस्त शरीर पर छिड़का जाय, (2) तीन बार, तीन चम्मच भर कर, तीन आचमन किये जांय। आचमनों के तीन मंत्र पुस्तकों में हैं, वे याद न हों तो हर आचमन पर गायत्री मंत्र पढ़ा जा सकता है। (3) चोटी में गाँठ लगाई जाय। अथवा शिखा स्थान को स्पर्श किया जाय। शिखा बंधन का मंत्र याद न हो तो गायत्री मंत्र पढ़ा जाय। (4) दाहिना नथुना बन्द कर बायें से साँस खींची जाय। भीतर रोकी जाय और बायाँ नथुना बन्द करके दाहिने छेद से साँस बाहर निकाली जाय। यह प्राणायाम है। प्राणायाम का मंत्र याद न हो तो गायत्री मंत्र मन ही मन पढ़ा जाय। (5) बाईं हथेली पर जल रख कर दाहिने हाथ की पाँचों उंगलियाँ उसमें डुबोई जांय और क्रमशः मुख, नाक, आँख, कान, बाहु, जंघा इन पर बाईं और दाईं और जल का स्पर्श कराया जाता, यह न्यास है। न्यास के मंत्र याद न होने पर भी गायत्री का प्रयोग हो सकता है। यह शरीर मन और प्राण की शुद्धि के लिये किये जाने वाले पाँच प्रयोग हैं। इन्हें करने के बाद ही देव पूजन का कार्य आरंभ होता है।

देव पूजन में सबसे प्रथम धरती-माता का- मातृ-भूमिका, विश्व-वसुन्धरा का पूजन है। जिस धरती पर जिस देश समाज में जन्म लिया है वह प्रथम देव है, इसलिये इष्टदेव की पूजा से भी पहले पृथ्वी पूजन किया जाता है। पृथ्वी पर जल, अक्षत, चंदन, पुष्प रख कर पूजन करना चाहिये। पृथ्वी पूजन के मंत्र याद न हों तो गायत्री मंत्र का उच्चारण कर लेना चाहिये।

इसके बाद इष्टदेव का- गायत्री माता का- पूजन किया जाय। 1. आह्वान, आमंत्रण के लिए अक्षत, 2. स्नान के लिए जल, 3. स्वागत के लिए चंदन अथवा रोली, 4. सुगंध के लिए अगरबत्ती, 5. सम्मान के लिए पुष्प, 6. आहार के लिए नैवेद्य कोई फल मेवा या मिठाई, 7. अभिवन्दन के लिए आरती, कपूर अथवा दीपक की। यह सात पूजा उपकरण सर्वसाधारण के लिए सरल हैं। पुष्प हर जगह- हर समय नहीं मिलते। उनके अभाव में केशर मिश्रित चन्दन से रंगे हुए चावल प्रयोग में लाये जा सकते हैं। प्रथम भगवान की पूजा स्थली पर विशेष रूप से आह्वान आमंत्रित करने के लिये हाथ जोड़कर अभिवन्दन करना चाहिये और उपस्थित का हर्ष व्यक्त करने के लिए माँगलिक अक्षतों (चावलों) की वर्षा करनी चाहिये। इसके बाद जल, चंदन, अगरबत्ती, पुष्प, नैवेद्य, आरती की व्यवस्था करते हुए उनका स्वागत, सम्मान करना चाहिये। यह विश्वास करना चाहिये कि भगवान सामने उपस्थित हैं और हमारी पूजा प्रक्रिया को- भावनाओं को ग्रहण स्वीकार करेंगे। उपरोक्त सात पूजा उपकरणों के अलग-अलग मंत्र भी हैं। वे याद न हो सकें तो हर मंत्र की आवश्यकता गायत्री से पूरी हो सकती है। इस विधान के अनुसार इस एक ही महामंत्र से कभी पूजा प्रयोजन पूरे कर लेने चाहिये।

इसके बाद जप का नम्बर आता है। मंत्र ऐसे उच्चारण करना चाहिये, जिससे कंठ, होठ और जीभ हिलते रहें। उच्चारण तो होता रहे पर इतना हल्का हो कि पास बैठा व्यक्ति भी उसे ठीक तरह से सुन समझ न सके। माला को प्रथम मस्तक पर लगाना चाहिये फिर उससे जप आरंभ करना चाहिये। तर्जनी उंगली का प्रयोग नहीं किया जाता, माला घुमाने में अंगूठा, मध्यमा और अनामिका इन तीनों का ही प्रयोग होता है। जब एक माला पूरी हो जाय तब सुमेरु (बीच का बड़ा दाना) उल्लंघन नहीं करते उसे लौट देते हैं।

अधिक रात गये जप करना हो तो मुँह बन्द करके- उच्चारण रहित मानसिक जप करते हैं। साधारणतया एक माला जप में 6 मिनट लगते हैं। पर अच्छा हो इस गति को और मंद करके 10 मिनट कर लिया जाय। दैनिक उपासना में- जब कि दो ही माला नित्य करनी हैं, गति में तेजी लाना ठीक नहीं। माला न हो तो उंगलियों पर 108 गिन कर एक माला पूरी होने की गणना की जा सकती है। घड़ी सामने रख कर भी समय का अनुमान लगाया जा सकता है।

न्यूनतम उपासना क्रम में एक माला गायत्री महामंत्र की आत्म-कल्याण के लिये और एक माला विश्व-कल्याण के लिए। दो को अनिवार्य माना गया है। इसके अतिरिक्त अधिक जप या किसी अन्य देवी-देवता का जप पाठ अपनी इच्छा और सुविधा पर निर्भर है। आत्म-कल्याण की भावनाओं की अभिव्यक्ति ‘गायत्री चालीसा’ में और विश्वकल्याण की रीति-नीति ‘युग-निर्माण सत्संकल्प’ में मौजूद है। इसलिए पहली आत्म-कल्याण की माला जपने के बाद गायत्री चालीसा का पाठ और दूसरी विश्व कल्याण की माला जपने के बाद युग-निर्माण सत्संकल्प का पाठ करना चाहिये।

आत्म-कल्याण की माला जपते समय गायत्री माता की गोदी में खेलने का और विश्व-कल्याण की माला जपते समय दीपक पर पतंगे का आत्म-समर्पण करने की तरह लोक-मंगल के लिये- विश्व-मानव के लिए अपने अस्तित्व को समर्पित करने का ध्यान भावनापूर्वक करते रहना चाहिये। दोनों ही ध्यान बड़े प्रेरक हैं। उन्हें परिपूर्ण श्रद्धा और प्रगाढ़ भावना के साथ इस प्रकार करना चाहिये कि सचमुच वैसी ही स्थिति अनुभव होने लगे।
इस ध्यान मिश्रित जप और ध्यान को पूरा होने पर विसर्जित करते हुए भगवान को नमस्कार, प्रणाम करना चाहिये और अक्षत वर्षा करके विदा करना चाहिये। पूजा के प्रारंभ में जल अग्नि को साक्षी करने के लिए जहाँ धूपबत्ती जलाई जांय वहीं एक छोटा लोटा जल भर कर कलश रूप में भी रखना चाहिये और पूजा के अन्त में उसे सूर्य नारायण की दिशा में- प्रातः पूर्व की ओर और सायं पश्चिम में- अर्घ चढ़ा देना चाहिये। अर्घ का मंत्र याद न हो तो गायत्री मंत्र से काम चल सकता है।

अधजली अगरबत्ती या दीपक की बत्ती दूसरे दिन काम में नहीं आती, इसलिए उसे पूजा के बाद भी जलती ही छोड़ देना चाहिये ताकि अपने आप जल कर समाप्त हो जाय।

प्रातःकाल एक बार तो इस तरह पूजा करना आवश्यक ही है। संभव हो सके तो शाम को भी करना चाहिये। शाम को एक माला आत्म-कल्याण की करने से भी काम चल सकता है। आत्म शुद्धि पाँच संध्या विधान और सप्त विधि पूजा सायंकाल को भी करनी चाहिये। घर के अन्य लोगों को भी स्त्री, बचों को भी यह प्रेरणा देनी चाहिये कि वे उस पूजा स्थली के समीप बैठकर कम-से-कम एक माला गायत्री मंत्र की सभी कर लिया करें। सप्त विधि पूजा एक बार कर ली गई हो तो बार-बार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। घर में पूजा स्थली की स्थापना- उसके निकट बैठ कर पूजा, उपासना का क्रम हर सद्गृहस्थ को अपने यहाँ चलाना चाहिये। स्वयं तो नियमित उपासना करनी चाहिये। प्रयत्न यह भी करना चाहिये कि परिवार के दूसरे लोग भी- दस-पांच मिनट वहाँ बैठ कर थोड़ी-बहुत उपासना अवश्य कर लिया करें। घर में आस्तिकता का- भक्ति भावना का वातावरण रहना परिवार की भावनात्मक समृद्धि और आत्मिक शुद्धि के लिए अति आवश्यक है।