Friday, March 23, 2018

श्री रामनवमी

शास्त्रों के अनुसार इस दिन भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। राम नवमी का पर्व चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है। जिनके पिता अयोध्या के राजा दशरथ और माता रानी कौशल्या थी। भगवान श्री राम को विष्णु जी के 7 वें अवतार के रूप में जाना जाता है। इस दिन को चैत्र मास शुक्लपक्ष नवमी भी कहा जाता है। जो की वसंत नवरात्री का नौवां दिन होता है। त्रेतायुग में रावन के अत्याचारों को समाप्त करने और धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए भगवान् विष्णु ने पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में राम अवतार लिया था। विष्णु जी के इस अवतार का जन्म चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र तथा कर्क लग्न में हुआ था।



राम का अर्थ

राम का अर्थ होता है- 'रमन्ते योगिनो यस्मिन् स राम:' अर्थात् योगिगण अपने ध्यान में जिन्हें देखते हैं, वे हैं राम। राम का तंत्र में अर्थ है कल्याणकारी अग्नि और प्रकाश। राम ऋषि संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं। भारतीय संस्कृति ऋषि-संस्कृति तथा कृषि-संस्कृति का सम्मिलित स्वरूप हैं। दोनों ही नवरात्रों में भगवान राम को भी पूजा जाता है चैत्र नवरात्र में जहां प्रभु श्री राम का जन्मदिवस मनाते हैं वहीं शारदीय नवरात्रि में दशहरा मनाने का प्रावधान है।रावण पर विजय के कारण इसे विजयादशमी भी कहते हैं।

रामनवमी की पौराणिक मान्यताएँ

श्री रामनवमी की कहानी लंका के राजा रावण से शुरू होती है। रावण अपने राज्यकाल में बहुत अत्याचारी हुआ करता था। उसके अत्याचार से पूरी जनता त्रस्त थी | यहाँ तक की देवतागण भी क्योंकि रावण ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान ले लिया था। उसके अत्याचार से तंग होकर देवतागण भगवान विष्णु के पास गए और प्रार्थना करने लगे। फलस्वरूप प्रतापी राजा दशरथ की पत्नी कौशल्या की कोख से भगवान विष्णु ने राम के रूप में रावण को परास्त करने हेतु जन्म लिया। तब से चैत्र की नवमी तिथि को रामनवमी के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि नवमी के दिन ही स्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना शुरू की थी।

भगवान श्री राम का जन्म

माना जाता है कि भगवान श्री राम का जन्म चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की नवमी को अयोध्या में हुआ। अगस्त्यसंहिता के अनुसार श्री राम का जन्म दिन के 12 बजे हुआ था इस समय पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न था। इस समय ग्रहों की दशा के अनुसार भगवान राम ने मेष राशि में जन्म लिया जिस पर सूर्य एवं अन्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि पड़ रही थी। माता कौशल्या की कोख से जन्म लेने पर भगवान विष्णु के मानव अवतार लेने पर इस जन्मोत्सव का आनंद देवताओं, ऋषियों, किन्नरों, चारणों सहित अयोध्या नगरी की समस्त जनता ले रही थी। इतना ही नहीं यह भी माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना भी रामनवमी के दिन ही शुरु की थी। राम जन्मभूमि अयोध्या में तो राम जन्म का यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन यहां मेलों का आयोजन भी होता है।

रामनवमी व्रत की कथा

एक बार की बात है जब राम, सीता और लक्ष्मण वनवास पर थे। वन में चलते-चलते भगवान राम ने थोड़ा विश्राम करने का विचार किया। वहीं पास में एक बुढिया रहती थी, भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता बुढ़िया के पास पंहुच गये। बुढ़िया उस समय सूत कात रही थी, बुढिया ने उनकी आवभगत की और उन्हें स्नान ध्यान करवा भोजन करने का आग्रह किया इस पर भगवान राम ने कहा माई मेरा हंस भी भूखा है पहले इसके लिये मोती ला दो ताकि फिर मैं भी भोजन कर सकूं। बुढ़िया मुश्किल में पड़ गई लेकिन घर आये मेहमानों का निरादर भी नहीं कर सकती थी। वह दौड़ी-दौड़ी राजा के पास गई और उनसे उधार में मोती देने की कही राजा को मालूम था कि बुढिया की हैसियत नहीं है लौटाने की लेकिन फिर भी उसने तरस खाकर बुढिया को मोती दे दिया। अब बुढ़िया ने वो मोती हंस को खिला दिया जिसके बाद भगवान श्री राम ने भी भोजन किया। जाते जाते भगवान राम बुढिया के आंगन में मोतियों का एक पेड़ लगा गये। कुछ समय बाद पेड़ बड़ा हुआ मोती लगने लगे बुढ़िया को इसकी सुध नहीं थी। जो भी मोती गिरते पड़ोसी उठाकर ले जाते। एक दिन बुढिया पेड़ के नीचे बैठी सूत कात रही थी की पेड़ से मोती गिरने लगे बुढ़िया उन्हें समेटकर राजा के पास ले गई। राजा हैरान कि बुढ़िया के पास इतने मोती कहां से आये बुढ़िया ने बता दिया की उसके आंगन में पेड़ है अब राजा ने वह पेड़ ही अपने आंगन में मंगवा लिया लेकिन भगवान की माया अब पेड़ पर कांटे उगने लगे एक दिन एक कांटा रानी के पैर में चुभा तो पीड़ी व पेड़ दोनों राजा से सहन न हो सके उसने तुरंत पेड़ को बुढ़िया के आंगन में ही लगवा दिया और पेड़ पर प्रभु की लीला से फिर से मोती लगने लगे जिन्हें बुढ़िया प्रभु के प्रसाद रुप में बांटने लगी।

रामनवमी उत्सव

श्री रामनवमी हिन्दुओं के प्रमुख त्यौहारों में से एक है जो देश-दुनिया में सच्ची श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार वैष्णव समुदाय में विशेषतौर पर मनाया जाता है। इस साल अष्टमी तिथि 24 तारीख को 10 बजकर 6 मिनट से शुरू हो जाएगी और 25 मार्च को 8 बजकर 3 मिनट तक रहेगी। 26 मार्च को सूर्योदय के समय दसमी तिथि रहेगी। नवमी तिथि को सूर्योदय नहीं मिलने के कारण इसका क्षय माना गया है।

ऐसे में रामनवमी कब और कैसे मनेगी इस बारे में वामन पुराण में कहा गया है कि- चैत्र शुक्ला तु नवमी पुनर्वसु युता यदि। सैव मध्याह्नयोगेन महापुण्यफल प्रदा।। साथ ही यह भी मत है कि 'अष्टमी नवमी युक्ता, नवमी च अष्टमीयुतेति।।' कुल मिलाकर शास्त्रों और पुराणों की इन बातों को मानें तो अष्टमी तिथि को अगर दोपहर में नवमी तिथि पड़ रही हो और पुनर्वसु नक्षत्र हो तो यह महापुण्यदायी है।

इस साल 25 मार्च को 8 बजकर 3 मिनट के बाद नवमी तिथि लग जाएगी और 2 बजकर 21 मिनट से पुनर्वसु नक्षत्र उदित होगा जिससे रामनवमी का पूजन करने के लिए 2 बजकर 21 मिनट के बाद का समय बहुत ही उत्तम रहेगा। 25 मार्च को रामनवमी का उत्सव मनाया जाएगा।

1.  आज के दिन भक्तगण रामायण का पाठ करते हैं।
2.  रामरक्षा स्त्रोत भी पढ़ते हैं।
3.  कई जगह भजन-कीर्तन का भी आयोजन किया जाता है।
4.  भगवान राम की मूर्ति को फूल-माला से सजाते हैं और स्थापित करते हैं।
5.  भगवान राम की मूर्ति को पालने में झुलाते हैं।

राम नवमी की पूजा विधि

हिंदू धर्म में आस्था रखने वालों के रामनवमी बहुत ही शुभ दिन होता है। माना जाता है कि सभी प्रकार के मांगलिक कार्य इस दिन बिना मुहूर्त विचार किये भी संपन्न किये जा सकते हैं। रामनवमी पर पारिवारिक सुख शांति और समृद्धि के लिये व्रत भी रखा जाता है। रामनवमी पर पूजा के लिये पूजा सामग्री में रोली, ऐपन, चावल, स्वच्छ जल, फूल, घंटी, शंख आदि लिया जा सकता है। भगवान राम और माता सीता व लक्ष्मण की मूर्तियों पर जल, रोली और ऐपन अर्पित करें तत्पश्चात मुट्ठी भरकर चावल चढायें। राम नवमी की पूजा विधि कुछ इस प्रकार है:
1.  सबसे पहले स्नान करके पवित्र होकर पूजा स्थल पर पूजन सामग्री के साथ बैठें।
2.  पूजा में तुलसी पत्ता और कमल का फूल अवश्य होना चाहिए।
3.  उसके बाद श्रीराम नवमी की पूजा षोडशोपचार करें।
4.  खीर और फल-मूल को प्रसाद के रूप में तैयार करें।
5.  पूजा के बाद घर की सबसे छोटी महिला सभी लोगों के माथे पर तिलक लगाए।

Monday, March 19, 2018

Chaitra Navratri 2018

Chaitra Navratri is a nine day festival during which Maa Durga is worshipped. Maa Durga is the divine mother and bestows her blessings on all her devotees and bless them with happiness, abundance and prosperity. Appease Maa Durga with special prayers to overcome evils and seek success in life. This year Chaitra Navratri would begin from 18th March and go on till 26th March. On the first day of Navratri that is, 18th March, as the Mangal kalash is installed. 





Navratri is an ancient religious occasion observed by the Hindus. Since antiquity, this festival has remained significant for the masses. The Navratri vrata is vividly mentioned in the ‘Shreemad-devi-bhaagwat’. In it, Maharshi Vyas has revealed the rituals of this vrata to Janmejaya. The great saint stated that in both Spring and Autumn seasons, most of the people fall prey to deadly diseases and many lose their lives. Both these seasons are hence named as ‘Yama-danshtra’. Therefore, people seek blessings from the goddess Durga who is known to be the destroyer of all sufferings, a protector from all negatives and a healer who provides peace, happiness and good health.


In Bhavishyottar Puran, the significance of this vrata has been described. It is said that all the people, irrespective of caste, class or creed have the right to observe this vrata. It is believed that people who along with the daily pooja rituals, also observe Navratri vrata in the Autumn season are showered with the blessings of Maha-maya. All the hurdles of life are removed and their life is filled with joy and splendor.

In Devi-bhaagwat, a story related to Navratri is mentioned. The story goes like this- There lived a poor and grief-stricken businessman named Sushil in a place called Kaushal. He had many relatives who were very poor. Due to their poverty, most of them lived with Sushil in his house. Sushil offered a share of his hard-earned money to gods and his ancestors (pitar). He spent the next share of his money on guests and all the relatives who depended on him for their survival. After making all the expenses, only a small amount of money was left with him that he used to meet his basic needs. One day, he met a wise Brahmin and asked him a way so that he has enough money left for himself after he has made all his expenses. To this, the Brahmin advised him to observe the Navratri vrata which grants knowledge, peace, happiness, prosperity, strength and liberation. Hearing this, Sushil learnt all the rituals of the vrata from the Brahmin and observed it religiously. Moved by his prayers, Devi Maheshwari appeared before him and fulfilled all his wishes of a prosperous and rich life.

This festival was made popular after Shree Ramachandra observed it. He invoked the divine mother, devi Durga and observed the Navratri rituals to win the battle waged against Ravana. As he had killed Ravana on the Dashami of Shukla Paksha and won over Lanka, Ashwin Shukla Dashami is also known as Vijaya Dashami. Thus as a ritual, he worshipped Jagadamba every year from Ashwin Shukla Pratipada to Shukla Navami and performed the Visarjan ceremony on Dashami.

Devi Durga and Mahishashur

Devi Durga had overpowered a demon named Mahishashur after a fierce nine-day-long battle. The Dashami of Navratri marks the victory of ‘Shakti’. This is the day which is celebrated as Vijay Dashami. This day is considered extremely auspicious. It is a good day to begin all vital activities.

Arjuna offered prayers

Arjuna had offered his prayers to devi Durga on Dashami of Navratri to seek blessings for victory in his battle against the Kauravas. Shree Vyas had told Janmejaya that in Kali yuga, among all charity and pooja rituals, Nava Durga pooja is the highest form of pooja.

Nine forms of energy

Navratri embodies nine energetic powers; each shakti is venerated on each tithi. Devi Durga manifested several forms for the welfare of her devotees. The nine forms are as follows -

1. Shail Putri
2. Brahma Charini
3. Chandra Ghanta
4. Kushmanda
5. Skanda mata
6. Katyayani
7. Kaal ratri
8. Maha Gauri
9. Siddhi dhatri

Shailputri - Navratri Day 1
The king of the mountains, ‘Giriraj Himalaya’ had observed a strict penance and was blessed with a daughter who was none other than goddess Durga herself. Pleased by Himalaya’s devotion, Sati had incarnated as Parvati in his house. Being the daughter of the mountain, the goddess came to be known as Shail putri.

Brahma Charini - Navratri Day 2
The goddess who is liberated and enables one to attain the Para-brahma is the one who is known as Brahma Charini.

Chandra ghanta - Navratri Day 3
The goddess who wears a crescent moon on her forehead and provides serenity, knowledge and bliss is the goddess Chandraghanta.

Kushmanda - Navratri Day 4
The spiritual form of the goddess who destroys all evils is known by the name of Kushmanda.

Skanda Mata - Navratri Day 5
Sanat kumar is also known by the name of Skanda and being his mother, the goddess is known by this name.

Katyayani - Navratri Day 6
Once when the gods faced severe trouble, Rishi Katyayan began a strict spiritual practice (tapa) for the blessings of Goddess Durga. The goddess was pleased with his devotion and was born as his daughter. Thus, the goddess came to be known as Katyayani.

Kaal ratri - Navratri Day 7
Being the vanquisher of kaal, the devi is known by this name. She embodies the destructive force against darkness and ignorance.

Maha Gauri - Navratri Day 8
In ‘Kali puran’, it is stated that Parvati had a dark complexion and Lord Shiva used to tease her due to her dark looks. One day, she got furious and took the most fairest and radiant forms and came to be known as Maha Gauri.

Siddhida - Navratri Day 9
The goddess whose blessings liberates a soul of all earthly ties is known as Siddhida. She is also known as Siddha mata and Siddhi mata. These nine Durga forms are worshipped in Navratri to attain siddhi or complete accomplishment. By worshipping these nine forms in sequence, one attains all the four results- dharma, artha, kama and moksha.

The four Navratris

Navratri arrives four times a year-
1. Chaitra
2. Ashwin
3. Aashadh
4. Maagh.

The Navratri is of two types- one that happens in Shayan Chaitra and the other that happens in Bodhan Ashwin. In all the four navratris, the worship of Devi Durga holds importance. However, worshipping the goddess in the month of Ashwin has special importance.

Rituals of Navratri 2017

On a bed of mud, covered by silk cloth, install an idol of Devi Durga on it. Instead of an idol, you can also place Shreedurga yantra or a picture of Shree Durga. Install a Mangal kalash or pot filled with holy water with a coin inside it. Place fresh mango leaves and a coconut wrapped in red cloth on top of it. Offer prayers to Ganapati and Nava Graham and then offer prayers to gods. Deep daan has a special importance in Navratri puja. Lighting an Akhand deep is a significant ritual in Navratri puja and is known to please Devi Durga. After the Navratri vrata, the banni tree should be worshipped on Dashami. It should be worshipped in the North east (Ishan-kona) direction or all should be worshipped in the eastern direction. Then is the time

A vrata observer should eat a meal cooked by a family member once in a day and lead a life of celibacy during the Navratri festival. Prayers should be offered thrice in a day. The devotee should chant the Saptashathi-stotra daily as per the rules defined in the scriptures.

Importance of the holy kalash water

1. Sprinkling the holy water of the kalash on a person is known to fulfill all wishes.

2.     A woman who had experienced a miscarriage or one who is facing difficulty in conceiving a baby benefits the most by drinking the holy kalash water. Sprinkling this water over a sick person helps to restore good health

3. Sprinkling the holy water of the kalash in fields and cow sheds ensures good crops and good milk production.

4.      Sprinkling the holy water of kalash at home protects it from all kind of evil spirits and Vaastu defects.

5. Sprinkling this water over a sick person helps to restore good health

6. It also helps to develop the intellect of children who lack intelligence.

The powerful sacred grass, Jayanti

The sacred yellow grass, jayanti, used in Navratri is sowed in the Hasta nakshatra and picked in Shravan nakshatra. Its powerful positive effect can be experienced in different areas of life-

• Placing this grass behind the right ear on Vijayadashami or Dussehra provides success in all fields throughout the year.
• If the jayanti is placed in a yantra and worn around the neck or on the shoulder then success in legal cases is assured. It also ensures peace of mind and protection from all negative energies.
• Keeping this divine grass in the wallet or cash box ensures abundant financial gain.

The shodshopachar Durga puja

In the daily pooja rituals, panchopachar (5 worship steps) is used to worship the deity. However, while performing Durga Puja at home shodshopachar (16 worship steps) is used to worship the goddess and chausathupachar (64 worship steps) is used to worship the deity in temples. The shodshopachar used to invoke the goddess Durga at home in Navratri are as follows-
1. Padhya 2. Arghya 3. Aachman 4. Madhupark 5. Snan 6. Vastra 7. Yagyopaveet 8. Aabhushan 9. Gandha 10. Akshat 11. Pushpa 12. Dhoop 13. Deep 14. Naivedya 15. Pushpanjali 16. Taambul

Kumari puja - the soul of Navratri

Kumari puja is the life of Navratri; without it all spiritual practices (japa and tapa) remain futile. From Pratipada to Navami, little girls of different ages are worshipped in a sense of worshipping the Divine mother, Durga. The kumaris are worshipped and offered flowers, clothes and jewellery. After the pooja rituals, a variety of food is served to them in a pure manner. After food, cardamom, betel nut and betel leaf are donated to them. The two year old kumari is worshipped as Kumari, three year old as Tri-murti, four year old as Kalyani, five year old as Rohini, six year old as Kaalika, seven year old as Chandika, eight year old as Shambhavi, nine year old as Durga and 10 year old is worshipped as Subhadra.


Thursday, March 15, 2018

Chaitra Navratri

Chaitra Navratri is also denoted as Vasanta Navaratri, as it is observed during the lunar month of Chaitra (Hindu calendar, a period post-winter, March–April). Several regions celebrated the festival falls in the wake of either spring harvest or amid the period of reaping. Unlike Sharad Navratri, which is globally celebrated, the Chaitra Navratri is majorly observed in some Northern parts of India. Although, In Maharashtra, Chaitra Navratri begins with Gudi Padwa and in Andhra Pradesh it begins with Ugadi.



The nine-day festivity have each day as celebration to mark: Ghatasthapana (First day), Sindhara Dooj (Second day), Gauri Teej (Third day), Vinayaka Chauth (Fourth day), Naag puja and Lakshmi Panchami (Fifth day), Yamuna Chhath (Sixth day), Kalratri puja (Seventh day), Sandhi puja and Annapurna ashtami (Eight day), and Ram Navami (Ninth day). Sri Rama Navami is celebrated as the birthday of Lord Rama and it usually falls on the ninth day during Navratri festivity. Hence Chaitra Navratri is also known as Rama Navratri. The nine-night long festivity, starts on the first day of Hindu Luni-Solar calendar and falls in the month of March or April. Chaitra is the first month of Hindu lunar calendar and because of it this Navratri is known as Chaitra Navratri. It is also known as Vasanta Navratri. Unlike, the Sharad Navratri which culminates in Durga Puja and Vijaydashmi, the Chaitra Navaratri concludes on Rama Navami.

Some scriptures, like the Shakti, and Vaishnava Purana reveal that in Hinduism, this nine-day long celebration is observed four times in a year. Sharad and Chaitra Navratri is celebrated by all, while the other two, preferable the Gupt Navratris are observed only by sages and priest.

Ghatasthapana is one of the noteworthy ceremonies amid Navratri. It denotes the beginning of nine-day long festivity. Our sacred texts have very much characterized certain rituals and rules to perform this puja, on the first day of Navratri. Many people may not know but Ghatasthapana, is the ritual of awakening or invoking Goddess Shakti; performing it at a wrong time, is said to bring upon the wrath of the Goddess Shakti. New Moon night or Amavasya and night time after sunset, are considered highly inauspicious for Ghatasthapana. According to sacred texts, the Shubh Mahurat for the Ghatasthapana is during the Pratipada- the first part of the day after sunrise. In case someone isn't able to perform the puja during the Pratipada time, then they can do it during the Abhijit Muhurta.

Several Hindu scriptures advise us against Nakshatra Chitra & Vaidhriti Yog during Ghatasthapana. The essential thing to consider is that the ritual of Ghatasthapana must be done before Hindu early afternoon while Pratipada. All through the nine auspicious days of Chaitra Navratri, all the nine goddesses must be invoked only during sunrise; a time which is also considered auspicious as Ghatasthapana Muhurta. Hindu scriptures advise against invoking the Goddess or performing the Ghatasthapana any time during the afternoon, night time and any time beyond sixteen Ghatis after sunrise.

According to the Hindu Puranas and scriptures, Chaitra Navratri was the most important Navratri in which Goddess Shakti was worshipped, until Lord Rama worshipped Goddess Durga in the ‘Ashwin’ month during the Ramayana war. Chaitra Navratri is celebrated with immense pomp and show in whole of India, especially the northern states. This Hindu festival is very popular in Himachal Pradesh, Haryana, Punjab, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh and Uttarakhand to name a few. In most of these states, a huge fair is organised in the Shakti temples. Praying and fasting marks the Chaitra Navratri celebrations. Before the start of the celebrations, the house is cleaned for welcome the Goddess in their home. The devotees performing the puja observe a fast for all nine days.

While fasting only ‘satvik’ food and fruits are allowed. Consumption of non-vegetarian food and also use of onion and garlic should be strictly avoided. During the Navratri period, while maintaining strict discipline in food, a person should also monitor their behaviour. The devotees spend their day worshipping the Goddess and chanting the Navratri mantras. The fast is broken on the ninth day after the ‘havan’ and the Prasad, after offering to the Goddess, is eaten along with other members of the family.

As during the Navratri time, Goddess Shakti manifests herself in three forms, namely, Goddess Durga, Lakshmi and Saraswati, the puja rituals of Navratri are also categorised in set of three days, with each set dedicated to a particular Goddess. The first three days of Chaitra Navratri is dedicated to Maa Durga, the Goddess of energy, on the next three days, Maa Lakshmi, the Goddess of wealth, is worshipped and the last three days are devotes to Maa Saraswati, the Goddess of Knowledge.

During this time, devotees worship Maa Durga, the Goddess of cosmic powers, to be blessed by Her divine benediction. It is believed that if devotees worship Goddess Durga without any desires to be fulfilled, they will attain salvation. Chaitra Navratri also marks the onset of the summer season and is observed when the Mother Nature undergoes a major climatic change. It is popular belief that by observing a vrat (fast) during the Chaitra Navratri the body is prepared for ensuing summer season.

Even though Chaitra Navratri is a 9-day festival, the celebrations come to an end on the day of ‘dashami’ (10th day). This day is known as ‘Navratri Parana’ and devotees bid farewell to the Goddess Durga, and pray for Her return soon, next year.




Monday, March 12, 2018

पापमोचनी एकादशी

चैत्र मास की कृष्ण एकादशी को पापमोचनी एकादशी के रूप में भी मनाया जाता है . इस दिन व्रत रखने से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है एवं समस्त विघ्नों में विजय की प्राप्ति होती है. इस एकादशी के दिन नारायण भगवान के चतुर्भुज स्वरूप का पूजन किया जाता है. पापमोचनी एकादशी के महात्म्य का विवरण स्कन्द पुराण में भी मिलता है. इस व्रत को करने से आपके कई जन्मों के पापों से आपको मुक्ति मिलती है एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है. या व्रत समस्त विपदाओं से मुक्ति दिलवाने वाला व्रत है.



पौराणिक कथा

प्राचीन समय में चैत्ररथ नामक वन को वरदान मिला था. वह एक रमणीय स्थल के रूप में जागृत वन था. वहां कभी फूल पौधे मुरझाते नहीं धे एवं सभी जगहसदर फूलों से बस हुआ मनमोहक वन था. इस वन में देवलोक की अप्सराएं वास करती थीं एवं अपना समय व्यतीत करती थीं. वहीं देवलोक से देव गान भीइस वन में विचारने आते थे. काम देव भी इस वन में ज़्यादा भ्रमण करते थे . इसी वन में ऋषि मेधावी भी अपनी तपस्या में लीन थे. शिव भक्त ऋषि मेधावीको शिवभक्ति में घोर तप में लीन देख कामदेव से रहा नहीं गया, ऋषि के पास में ही वीणा एवं गायन में लीन उन्होंने अप्सरा मंज़ुघोशा को देखा.

अब तो शिवजी से रूष्ट कामदेव के अंदर ऋषि के शिव तप तो देख ईर्ष्या की भावना जागृत हुई , उन्होंने अपनी काम शक्ति से अप्सरा मंज़ुघोशा की भौवों को अपना धनुषबनाया एवं उनके नेत्रों की प्रत्यंचा छड़ा कर महर्षि तंद्रा को भेदा. महर्षि का ध्यान अप्सरा मंज़ुघोशा की मधुर वाणी से भंग हुआ . कामदेव के मोहन अस्त्र सेप्रभावित हो , सामने अप्सरा मंज़ुघोशा की सुंदरता को देख वह मंत्रमुग्ध हो गए. अप्सरा मंज़ुघोशा की सुंदरता पर आसक्त हो वह मंज़ुघोशा के साथ भोगविलास में समय व्यतीत करने लगे. उस सुंदर वन में, कामदेव की काम शक्ति से प्रभावित होकर महर्षि मेधावी अपनी तपस्या को भूल गए. अप्सरा मंज़ुघोशाकी प्रेमग्नि में ज्वलंत हो उनका समय बीतने लगा . ऐसे कई वर्ष बीतने के पश्चात अप्सरा मंज़ुघोशा ने वापस स्वर्ग लोक जाने की इच्छा ज़ाहिर की.

ऋषि हर बार उनकी बात टाल देते. फिर एक दिन अप्सरा ने फिर वापस स्वर्ग लोक जाने की गुहार की और कहा की हे ऋषिवर अब तो 57 वर्ष हो चुके हैं, अब में यहां और नहीं रुक सकती, मुझे वापस जाना ही पड़ेगा. अप्सरा की इस बात से अचानक से महर्षि की तंद्रा टूटी, जैसे ही उन्हें एहसास हुआ की उन्होंने इसअप्सरा से आसक्त हो अपने तप को छोड़ दिया एवं उनके सारे तप का बल ख़त्म होता चला गया है तो वह क्रोधित हो गए. अपने क्रोध में उन्हें अप्सरा को श्रापदिया , की तुमने मेरे तप को भंग कर प्रेतों जैसी नीच हरकत की है , इसीलिए अब तुम पिशाचीनी बन कर रहोगी .

अप्सरा घबरा गयी , उसकी बहुत विनती करने पर ऋषि का क्रोध शांत हुआ एवं ग्लानि भी हुई की इसमें इसका क्या दोष. ऋषि मेधावी ने उस अप्सरा से कहाकी में अब श्राप तो वापस नहीं ले सकता, हां तुम्हें इस योनि से मुक्त होने का उपाय अवश्य बता सकता हूं. अभी चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी पड़ेगी जिसे पापमोचनी एकादशी के नाम से जाना जाता है. भगवान विष्णु की पूजा एवं व्रत रख कर यथाविधि पूजन करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है . वहीतुम्हारे इस कृत्य एवं श्राप से तुम्हें मुक्त कर पाएंगे. ऐसा सुन अप्सरा, भगवान विष्णु का ध्यान कर चैत्र कृष्ण एकादशी की प्रतीक्षा करने लगी. उसने ऋषि के कहे अनुसार व्रत रखा एवं भगवान की कृपा से अपनेसमस्त पापों से मुक्त हो अप्सरा के रूप में वापस देवलोक में वास करने चली गयी.

इधर ग्लानि से युक्त महर्षि मेधावी अपने पिता ऋषि च्यवन के आश्रम में गए. शरीर से उनका तेज खत्म हो चुका था एवं वह वह वापस तप में लीन भी नहीं हो पारहे थे. अपने पुत्र की ऐसी मलिन हालत देख कर उन्होंने महर्षि मेधावी से पूछा की उन्होंने ऐसा क्या किया की उनका समस्त तेज़ नष्ट हो गया है. महर्षि मेधावीने अपनी दुखद अवस्था अपने पिता को सुनाई, ऐसा सुन कर ऋषि च्यवन ने उन्हें भी नारायण की शरण में जाने को कहा और बोला की एक अनारायण ही हैंजो उन्हें इन पापों से मुक्त कर सकते हैं. आने वाल चैत्र कृष्ण पक्ष को पापमोचनी एकादशी पड़ रही है एवं अगर वह विधि पूर्वरक इस व्रत का पालन करते हैंतो नारायण की कृपा से उनके पाप दल जाएंगे एवं वह वापस तेज़ युक्त हो अपनी आगे की तपस्या में लीन होने के लिए सक्षम हो पाएँगे .

अपने पिता की बात मां कर ऋषि मेधावी ने भी इस व्रत का पालन किया, द्वादशी की प्रातः काल व्रत का पारण करते ही, भगवान विष्णु की कृपा से वहपापमुक्त हो वापस तेजमायी हो गए एवं फिर से शिव भक्ति में लीन हो मोक्ष को प्राप्त हुए. सांसारिक कर्मों का पालन करते हुए भी जो भी इस व्रत को रखता है, इशवार की कृपा से उसे ब्रह्म हत्या जैसे पापों से भी मुक्ति मिल जाती है.

व्रत की विधि

दशमी की रात्रि को फलाहार भोजन आदि से निवृत हो , नारायण का ध्यान रख कर व्रत रखें . एकादशी के दिन सुबह शुद्ध होकर नारायण की चतुर्भुज मूर्ति कोस्नान आदि कर कर शोदशोपचार पूजन कर व्रत का संकल्प लें . इसके पश्चात “ओम नमो भगवते वासुदेवाए” मंत्र का 108 बार पाठ करें, उसके बाद आप भागवत कथा का पाठ भी कर सकते हैं. पुरुष सुक्तम पड़ना भी अत्यंत शुभ होता है. रात्रि को हल्का फलाहार लेकर रात भर जागरण करें, भागवान विष्णुकी महिमा का गान, भजन आदि करें. द्वादशी के दिन प्रातः काल उठ कर शुद्ध होकर नारायण पूजन के पश्चात , ग़रीबों को भोजन खिला कर व्रत को तोड़ें. जो भी रतजगा कर नारायण के ध्यान में लीन रहता है, ऐसा माना जाता है की उसके समस्त पापों का तो नाश होता ही है साथ ही में सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है .

व्रतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्रत एकादशी का होता है. एकादशी का नियमित व्रत रखने से मन कि चंचलता समाप्त होती है. धन और आरोग्य की प्राप्ति होती है ,हार्मोन की समस्या भी ठीक होती है तथा मनोरोग दूर होते हैं. पापमोचनी एकादशी का व्रत आरोग्य,संतान प्राप्ति तथा प्रायश्चित के लिए किया जाने वाला व्रत है. इस व्रत से पूर्व कर्म के ऋण तथा राहु की समस्याएं भी दूर हो जाती हैं. यह चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को रखा जाता है. मौसम तथा स्वास्थ्य के दृष्टि से इस माह में जल का अधिक प्रयोग करने की सलाह दी जाती है अतः इस व्रत में जल का प्रयोग ज्यादा होता है.

इस व्रत को रखने के नियम

- यह व्रत दो प्रकार से रखा जाता है -निर्जल व्रत और फलाहारी या जलीय व्रत

- सामान्यतः निर्जल व्रत पूर्ण रूप से स्वस्थ्य व्यक्ति को ही रखना चाहिए

- अन्य या सामान्य लोगों को फलाहारी या जलीय उपवास रखना चाहिए

- इस व्रत में दशमी को केवल एक बार सात्विक आहार ग्रहण करनी चाहिए

- एकादशी को प्रातः काल ही श्रीहरि का पूजन करना चाहिए

- अगर रात्रि जागरण करके श्री हरि की उपासना की जाय तो हर पाप का प्रायश्चित हो सकता है

- बेहतर होगा कि इस दिन केवल जल और फल का ही सेवन किया जाय

क्या करें कि पापमोचनी एकादशी के दिन ताकि पूर्व कर्मों के ऋण से छुटकारा मिले?

- प्रातःकाल स्नान करके एकादशी व्रत और पूजन का संकल्प लें

- सूर्य को अर्घ्य दें और केले के पौधे में जल डालें

- भगवान् विष्णु को पीले फूल अर्पित करें

- इसके बाद श्रीमद्भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करें

- चाहें तो श्री हरी के मंत्र का जाप भी कर सकते हैं

- मंत्र होगा - ॐ हरये नमः

- संध्याकाळ निर्धनों को अन्न का दान करें


पापमोचनी एकादशी के दिन किस प्रकार राहु की समस्या का निवारण करें?


- प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व पीपल के वृक्ष में जल डालें

- दिन भर जल और फल ग्रहण करके उपवास रक्खें

- सायंकाल पीपल के वृक्ष की परिक्रमा करें और उसके तने में पीला सूत लपेटते जाएँ

- कम से कम सात बार परिक्रमा करें

- इसके बाद वहाँ पर दीपक जलाएं  और सफ़ेद मिठाई अर्पित करें

- राहु की समस्या की समाप्ति की प्रार्थना करें


इस दिन किन-किन सावधानियों का पालन करें?


- तामसिक आहार व्यहार तथा विचार से दूर रहें

- भारी खाना खाने से बचाव करें

- बिना भगवान सूर्य को अर्घ्य दिए हुए दिन की शुरुआत न करें

- अर्घ्य केवल हल्दी मिले हुए जल से ही दें,रोली या दूध का प्रयोग न करें

- अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उपवास न रखें ,केवल प्रक्रियाओं का पालन करें

पापमोचिनी एकादशी 2018 तिथि व मुहूर्त

एकादशी व्रत तिथि - 13 मार्च 2018

पारण का समय - 06:36 से 08:57 बजे (14 मार्च 2018)

पारण के दिन द्वादशी तिथि समाप्त - 15:45 बजे

एकादशी तिथि प्रारम्भ = 11:13 बजे (12 मार्च 2018)

एकादशी तिथि समाप्त = 13:41 बजे (13 मार्च 2018)

Thursday, March 8, 2018

शीतला अष्टमी

शीतला मां का उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्दपुराण में मिलता है, इनको अत्यंत सम्मान का स्थान प्राप्त है. इनका स्वरूप अत्यंत शीतल है और रोगों को हरने वाला है. इनका वाहन है गधा, तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते हैं. मुख्य रूप से इनकी उपासना गर्मी के मौसम में की जाती है. इनकी उपासना का मुख्य पर्व "शीतला अष्टमी" है.



अगर सफलता पानी हो तो धैर्य जरूर होना चाहिए। यही हमें बतलाती हैं मां शीतला। सृष्टि में सबसे ज्यादा धैर्यवान गधा इनका वाहन है, जिसे गणेश जी की सर्वाधिक प्रिय दूब बहुत पसंद है। माता शीतला सात बहन हैं- ऋणिका, घृर्णिका, महला, मंगला, शीतला, सेठला और दुर्गा। चैत्र कृष्ण अष्टमी से आषाढ़ कृष्ण अष्टमी तक होने वाले 90 दिन के व्रत को ही गौरी शीतला व्रत भी कहा जाता है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इन महीनों में गर्मी शुरू होने लगती है। चेचक आदि की आशंका रहती है। प्रकृति के अनुसार शरीर निरोगी हो, इसलिए भी शीतला अष्टमी व्रत करना चाहिए।

शीतल जल में स्नान करके- ‘मम गेहे शीतलारोग जनितोपद्रव प्रशमनपूर्वकायुरोग्यैश्वर्याभिवृद्धये शीतलाष्टमी व्रत करिष्ये’ मंत्र का संकल्प व्रती को करना चाहिए। नैवेद्य में पिछले दिन के बने शीतल पदार्थ- मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल-भात, लपसी और रोटी-तरकारी आदि कच्ची-पक्की आदि चीजें मां को चढ़ानी चाहिए। रात में जागरण और दीये अवश्य जलाने चाहिए।नाभिकमल और हृदयस्थल के बीच विराजमान शीतला देवी अपने वाहन गर्दभ (गधे) पर सवार रहती हैं। स्कन्द पुराण में शीतलाष्टक स्तोत्र है। मान्यता है कि उसकी रचना भगवान शंकर ने की थी।‘वन्देùहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम। मार्जनीकलशोपेतां शूर्पालंकृतमस्तकाम॥’ अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में झाड़ होने का अर्थ है कि माता को वे लोग ही पसंद हैं, जो सफाई के प्रति जागरूक रहते हैं। कलश में भरे जल से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छ रहने से ही सेहत अच्छी होती है।

इस व्रत को करने से शीतला देवी प्रसन्न होती हैं। इससे परिवार में दाहज्वर, पीतज्वर, पीड़ा, नेत्रों के समस्त रोग तथा शीतलाजनित दोष समाप्त होते हैं। उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले में सिराथू के पास स्थित कड़ा धाम शीतला माता का बुहत प्रसिद्ध तीर्थ है। उत्तराखंड के काठगोदाम, हरियाणा के गुरुग्राम और गुजरात के पोरबंदर में भी शीतला माता के भव्य मंदिर हैं। गौरतलब है कि गुप्त मनौती माता को बताते वक्त भक्तगण इस मंत्र का बराबर जाप करते रहते हैं- ‘शीतला: तू जगतमाता, शीतला: तू जगतपिता, शीतला: तू जगदात्री, शीतला: नमो नम:॥’ 

पौराणिक मान्यता के अनुसार माता शीतला जी की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा जी से ही हुई थी।  ब्रह्मा जी ने माता शीतला को धरती पर पूजे जाने के लिए भेजा था। देवलोक से धरती पर मां शीतला अपने साथ भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं। तब उनके पास दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए कोई स्थान नहीं दिया तो माता शीतला क्रोधित हो गईं।

उसी क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा के शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आए और लोग उस गर्मी से संतप्त हो गए। राजा को अपनी गलती का एहसास होने पर उन्होंने माता शीतला से माफी मांगकर उन्हें उचित स्थान दिया। लोगों ने माता शीतला के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध एवं कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई और माता शांत हुईं। तब से हर साल शीतला अष्टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडे बासी भोजन का प्रसाद मां को चढ़ाने लगे और व्रत करने लगे।

हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है

शीतला अष्टमी को बसौड़ा पूजा भी कहा जाता है। ये होली पर्व के ठीक आठ दिनों बाद मनाई जाती है यानी अष्टमी को।  हिंदू व्रतों में ये केवल एक ही ऐसा व्रत हैं जिसमें बासी खाना खाया जाता है। इसलिए इसे बसौड़ा भी कहते हैं जिसका मतलब होता है बासी भोजन। शीतला माता के हाथ में झाडू और कलश होता है। माता के हाथ में झाडू होने का मतलब लोगों को सफाई के प्रति जागरुक करने से होता है।


हिंदू धर्म शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि कलश में सभी 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास रहता है। यह पर्व एक तरफ से लोगों को सफाई के प्रति जागरूक भी करता है कि व्यक्ति ना सिर्फ खुद को स्वच्छ रखे बल्कि अपने आसपास के वातावरण को भी साफ , सुंदर और स्वच्छ रखे।

माता शीतला देवी की उपासना से सभी तरह के पाप नष्ट हो जाते है। शीतलाष्टमी के एक दिन पहले भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग तैयार किया जाता है। शीतला अष्टमी के दिन माता को प्रसाद चढ़ाया जाता है।

शीतला अष्टमी को लेकर ऐसी मान्यता है कि महिलाएं अपने बच्चों की सलामती, उन्हें हर प्रकार के रोगों से दूर रखने के लिए और घर में सुख समृद्धि के लिए शीतला माता की पूजा करती हैं।कहा जाता है कि जिस घर में शुद्ध मन से शीतला माता की पूजा होती है वहां हर प्रकार से सुख समृद्धि बनी रहती है। बताया जाता है कि जिस घर में चेचक से कोई बीमार हो, उसे ये पूजा नहीं करनी चाहिए।


कैसे करनी चाहिए पूजा 

शीतल माता की पूजा करने के बाद बसौड़े के तौर पर मीठे चावल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। कई लोग इस दिन शीतला माता के मंदिर जाकर हल्दी और बाजरे से पूजा भी करते हैं। पूजा के बाद बसौड़ा व्रत कथा कही जाती है।  पूजा के बाद परिवार के सभी लोगों को प्रसाद देकर एक दिन पहले बनाया गया बासी भोजन खाया जाता है। स्कंद पुराण में शीतला माता के विषय में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग की देवी हैं, यह हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण किए होती हैं तथा गर्दभ की सवारी किए यह अभय मुद्रा में विराजमान हैं।

शीतला माता के संग ज्वरासुर ज्वर का दैत्य, हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण त्वचा रोग के देवता एवं रक्तवती देवी विराजमान होती हैं इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी। तभी से शीतला माता की अष्टमी को पूजा करने की परंपरा चली आ रही है। कई लोग इस दिन मां का आशीर्वाद पाने और पूरे साल बीमारियों से दूर रखने के लिए उपवास भी करते हैं। 

अष्टमी के दिन बासी वस्तुओं का नैवेद्य शीतला माता को अर्पित किया जाता है। इस दिन व्रत उपवास किया जाता है तथा माता की कथा का श्रवण होता है। कथा समाप्त होने पर मां की पूजा अर्चना होती है तथा शीतलाष्टक को पढ़ा जाता है, शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा को दर्शाता है, साथ ही साथ शीतला माता की वंदना उपरांत उनके मंत्र का उच्चारण किया जाता है जो बहुत अधिक प्रभावशाली मंत्र है जो इस प्रकार है-

वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्। ।

कथा

यह कथा बहुत पुरानी है। एक बार शीतला माता ने सोचा कि चलो आज देखु कि धरती पर मेरी पूजा कौन करता है, कौन मुझे मानता है। यही सोचकर शीतला माता धरती पर राजस्थान के डुंगरी गाँव में आई और देखा कि इस गाँव में मेरा मंदिर भी नही है, ना मेरी पुजा है। माता शीतला गाँव कि गलियो में घूम रही थी, तभी एक मकान के ऊपर से किसी ने चावल का उबला पानी (मांड) निचे फेका। वह उबलता पानी शीतला माता के ऊपर गिरा जिससे शीतला माता के शरीर में (छाले) फफोले पड गये। शीतला माता के पुरे शरीर में जलन होने लगी।

शीतला माता गाँव में इधर उधर भाग भाग के चिल्लाने लगी अरे में जल गई, मेरा शरीर तप रहा है, जल रहा हे। कोई मेरी मदद करो। लेकिन उस गाँव में किसी ने शीतला माता कि मदद नही करी। वही अपने घर के बहार एक कुम्हारन (महिला) बेठी थी। उस कुम्हारन ने देखा कि अरे यह बूढी माई तो बहुत जल गई है। इसके पुरे शरीर में तपन है। इसके पुरे शरीर में (छाले) फफोले पड़ गये है। यह तपन सहन नही कर पा रही है।

तब उस कुम्हारन ने कहा है माँ तू यहाँ आकार बैठ जा, मैं तेरे शरीर के ऊपर ठंडा पानी डालती हूँ। कुम्हारन ने उस बूढी माई पर खुब ठंडा पानी डाला और बोली है माँ मेरे घर में रात कि बनी हुई राबड़ी रखी है थोड़ा दही भी है। तू दही-राबड़ी खा लें। जब बूढी माई ने ठंडी (जुवार) के आटे कि राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठंडक मिली।

तब उस कुम्हारन ने कहा आ माँ बेठ जा तेरे सिर के बाल बिखरे हे ला में तेरी चोटी गुथ देती हु और कुम्हारन माई कि चोटी गूथने हेतु (कंगी) कागसी बालो में करती रही। अचानक कुम्हारन कि नजर उस बुडी माई के सिर के पिछे पड़ी तो कुम्हारन ने देखा कि एक आँख वालो के अंदर छुपी हैं। यह देखकर वह कुम्हारन डर के मारे घबराकर भागने लगी तभी उसबूढी माई ने कहा रुक जा बेटी तु डर मत। मैं कोई भुत प्रेत नही हूँ। मैं शीतला देवी हूँ। मैं तो इस घरती पर देखने आई थी कि मुझे कौन मानता है। कौन मेरी पुजा करता है। इतना कह माता चारभुजा वाली हीरे जवाहरात के आभूषण पहने सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये अपने असली रुप में प्रगट हो गई।

माता के दर्शन कर कुम्हारन सोचने लगी कि अब में गरीब इस माता को कहा बिठाऊ। तब माता बोली है बेटी तु किस सोच मे पड गई। तब उस कुम्हारन ने हाथ जोड़कर आँखो में आसु बहते हुए कहा- है माँ मेरे घर में तो चारो तरफ दरिद्रता है बिखरी हुई हे में आपको कहा बिठाऊ। मेरे घर में ना तो चौकी है, ना बैठने का आसन। तब शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ कर एक हाथ में झाड़ू दूसरे हाथ में डलिया लेकर उस कुम्हारन के घर कि दरिद्रता को झाड़कर डलिया में भरकर फेक दिया और उस कुम्हारन से कहा है बेटी में तेरी सच्ची भक्ति से प्रसन्न हु अब तुझे जो भी चाहिये मुझसे वरदान मांग ले।

तब कुम्हारन ने हाथ जोड़ कर कहा है माता मेरी इच्छा है अब आप इसी (डुंगरी) गाँव मे स्थापित होकर यही रहो और जिस प्रकार आपने आपने मेरे घर कि दरिद्रता को अपनी झाड़ू से साफ़ कर दूर किया ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद कि सप्तमी को भक्ति भाव से पुजा कर आपको ठंडा जल, दही व बासी ठंडा भोजन चढ़ाये उसके घर कि दरिद्रता को साफ़ करना और आपकी पुजा करने वाली नारि जाति (महिला) का अखंड सुहाग रखना। उसकी गोद हमेशा भरी रखना। साथ ही जो पुरुष शीतला सप्तमी को नाई के यहा बाल ना कटवाये धोबी को कपडे धुलने ना दे और पुरुष भी आप पर ठंडा जल चढ़ाकर, नरियल फूल चढ़ाकर परिवार सहित ठंडा बासी भोजन करे उसके काम धंधे व्यापार में कभी दरिद्रता ना आये।

तब माता बोली तथाअस्तु है बेटी जो तुने वरदान मांगे में सब तुझे देती हु । है बेटी तुझे आर्शिवाद देती हूँ कि मेरी पुजा का मुख्य अधिकार इस धरती पर सिर्फ कुम्हार जाति का ही होगा। तभी उसी दिन से डुंगरी गाँव में शीतला माता स्थापित हो गई और उस गाँव का नाम हो गया शील कि डुंगरी। शील कि डुंगरी में शीतला माता का मुख्य मंदिर है। शीतला सप्तमी पर वहाँ बहुत विशाल मेला भरता है। इस कथा को पढ़ने से घर कि दरिद्रता का नाश होने के साथ सभी मनोकामना पुरी होती है।


लोक किंवदंतियों के अनुसार 'बसौड़ा' की पूजा माता शीतला को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। कहते हैं कि एक बार किसी गांव में गांववासी शीतला माता की पूजा-अर्चना कर रहे थे तो माँ को गांववासियों ने गरिष्ठ भोजन प्रसाद स्वरूप चढ़ा दिया। शीतलता की प्रतिमूर्ति माँ भवानी का गर्म भोजन से मुंह जल गया तो वे नाराज हो गईं और उन्होंने कोप दृष्टि से संपूर्ण गांव में आग लगा दी। केवल एक बुढ़िया का घर सुरक्षित बचा हुआ था। गांव वालों ने जाकर उस बुढ़िया से घर न जलने के बारे में पूछा तो बुढि़या ने माँ शीतला को गरिष्ठ भोजन खिलाने वाली बात कही और कहा कि उन्होंने रात को ही भोजन बनाकर माँ को भोग में ठंडा-बासी भोजन खिलाया, जिससे माँ ने प्रसन्न होकर बुढ़िया का घर जलने से बचा लिया। बुढ़िया की बात सुनकर गांव वालों ने माँ से क्षमा मांगी और 'रंग पंचमी' के बाद आने वाली सप्तमी के दिन उन्हें बासी भोजन खिलाकर माँ का बसौड़ा पूजन किया।

पूजा को विधि विधान के साथ पूर्ण करने पर सभी भक्तों के बीच मां के प्रसाद बसौड़ा को बांटा जाता है इस प्रकार पूजन समाप्त होने पर भक्त माता से सुख शांति की कामना करता है।

शीतला अष्टमी पूजन विधि :-

शीतला अष्टमी पूजन विधि सूर्य ढलने के पश्चात तेल और गुड़ में खाने-पीने की वस्तुएं मीठी रोटी, मीठे चावल, गुलगुले, बेसन एवं आलू आदि की नमकीन पूरियां तैयार की जाती हैं. शीतला माता को अष्टमी के दिन मंदिर में जाकर गाय के कच्चे दूध की लस्सी के साथ सभी चीजों का भोग लगाया जाता है. आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि मीठी रोटी के साथ दही और मक्खन, कच्चा दूध, भिगोए हुए काले चने, मूंग और मोठ आदि प्रसाद रूप में चढ़ाने की परंपरा है.

क्या आप जानते हैं कि मां शीतला को भोग लगाने के बाद मंदिर में बनी विभिन्न पिंडियों समेत शिवलिंग पर कच्ची लस्सी चढ़ाई जाती है. इसी के साथ मां से परिवार की मंगल कामना के लिए प्रार्थना की जाती है.

भगवती शीलता की पूजा का विधान भी अनूठा है | देवी को ठंडा ओर बासी भोजन अर्पित किया जाता है, इसी लिए एक दिन पहले बने भोजन का ही भोग लगाया जाता है| इसी लिए इस उत्सव को बसोड़ा भी कहते है| ऐसी मान्यता है की इस दिन से बासी खाने को खाना बंद कर दिया जाता है, जिस का वैज्ञानिक कारण मौसम में परिवर्तन है| इस समय मौसम थोड़ा गरम भी होना शुरू हो गया होता है इसीलिए बासी खाने से बीमारियों के होने का डर बना रहता है| बासी खाना सिर्फ शरीर को ही नहीं मस्तिष्क को भी नुकसान पहुचाता है|

 शीतला अष्टमी वैज्ञानिक महत्व:-

किसी त्योहार पर बासी भोजन की परंपरा थोड़ा चकित करने वाली जरूर है लेकिन इसके पीछे तर्क और युक्ति है। दरअसल शीतला सप्तमी पर वसंत ऋतु बीत रही होती है और ग्रीष्म का आगमन होता है तो इस त्योहार पर अंतिम बार बासी भोजन किया जाता है ।

चूंकि गर्मी में भोजन जल्दी ही दूषित हो जाता है इसलिए भूलवश भी बासी भोजन नहीं करना है यह शीतला सप्तमी का पर्व हमें सिखाता है। हमारे सारे ही पर्वों में कुछ न कुछ सीख छिपी थी लेकिन समय के साथ उनके अर्थ थोड़े बदल गए और हमने उनके महत्वों को ठीक तरह से नहीं समझा। अगर हम अपनी परंपराओं में छिपे अर्थों को देखेंगे तो पाएंगे कि हर पर्व का कुछ महत्व है।

शीतला सप्तमी के दिन प्रात:काल में स्त्रियां पूजन के लिए जाती हैं। शीतला माता को बाजरा, जौ, चने और अन्य अन्ना उबालकर उसकी राबड़ी का भोग लगाती हैं। इस अन्ना को देवी को चढ़ाए जाने का भी प्रतीकात्मक महत्व यह है कि अब चूंकि ऋतु बदल गई है तो अपने खानपान में ऐसी ही चीजों को शामिल करना है जो शीतलता दे। शीतला माता को दुग्ध और दही से भी स्नान कराया जाता है और उसके पीछे मान्यता यही है कि देवी की कृपा से पारिवारिक रिश्तों के बीच कभी खटास न आने पाए और संबंध हमेशा सरस बने रहें।

माँ शीतला के स्वरूप से क्या प्रदर्शित होता है?

- कलश, सूप , झाड़ू और नीम के पत्ते इनके हाथ में रहते हैं.

-यह सारी चीज़ें साफ़ सफाई और समृद्धि की सूचक है.

-इनको शीतल और बासी खाद्य पदार्थ चढ़ाया जाता है, जिसको बसौड़ा भी कहते हैं.

-इनको चांदी का चौकोर टुकड़ा जिस पर उनका चित्र उकेरा हो, अर्पित करते हैं.

-अधिकांशतः इनकी उपासना बसंत तथा ग्रीष्म में होती है, जब रोगों के संक्रमण की सर्वाधिक संभावनाएँ होती हैं.

शीतलाष्टमी का वैज्ञानिक आधार क्या है? इसे मनाने के लाभ क्या हैं?

-चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, तथा आषाढ़ की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतलाष्टमी के रूप में मनाया जाता है.

- रोगों के संक्रमण से आम व्यक्ति को बचाने के लिए शीतला अष्टमी मनाई जाती है.

- इस दिन आखिरी बार आप बासी भोजन खा सकते हैं, इसके बाद से बासी भोजन का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए.

- अगर इस दिन के बाद भी बासी भोजन किया जाय तो स्वास्थ्य की समस्याएँ आ सकती हैं.

- यह पर्व गरमी की शुरुआत पर पड़ता है यानी गरमी में आप क्या प्रयोग करें, इस बात की जानकारी आपको मिल सकती है.

- गरमी के मौसम में आपको साफ-सफाई, शीतल जल और एंटीबायोटिक गुणों से युक्त नीम का विशेष प्रयोग करना चाहिए.

बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए किस प्रकार माँ शीतला की उपासना करें?

- माँ शीतला को एक चांदी का चौकोर टुकड़ा अर्पित करें

- साथ में उन्हें खीर का भोग लगाएं

- बच्चे के साथ माँ शीतला की पूजा करें

- चांदी का चौकोर टुकड़ा लाल धागे में बच्चे के गले में धारण करवाएं