Sunday, February 25, 2018

आमलकी एकादशी

फाल्गुन शुक्ल एकादशी को पद्मपुराण में आमलकी एकादशी कहा गया है। इसदिन आंवले के पेड़ की पूजा करनी चाहिए। जो लोग व्रत नहीं कर सकते हैं उन्हें आंवले का स्पर्श और सेवन कर लेना चाहिए। इससे भी अपार पुण्य की प्राप्ति होती है। पुराण में बताया गया है कि इस पेड़ की जड़ में भगवान विष्णु, मध्य में भगवान शिव और ऊपर ब्रह्मा जी एवं शाखाओं और पत्तों पर भी अन्य देवी-देवताओं का वास होता है।




पद्म पुराण में आमलकी व्रतकथा विधि 

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा है कि आमलकी एकादशी के दिन ही भगवान विष्णु के थूकने से आंवला यानी आमलकी का पेड़ उत्पन्न हुआ था। इसलिए आमलकी एकादशी के दिन इसकी पूजा बहुत ही शुभफलदायी होती है। इस दिन भगवान विष्णु के परशुराम अवतार की पूजा का भी विधान पुराण में बताया गया है। 

रंगभरी एकादशी 

शिवपुराण के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव का देवी पार्वती से विवाह हुआ था और आमलकी एकादशी को देवी पार्वती का गौना हुआ था और वह अपने ससुराल आई थीं। देवी पार्वती के पति के घर आने पर शिवगणों ने रंग गुलाल से शिवजी के साथ रंगोत्सव मनाया था। इसलिए इसे रंगभरी एकादशी भी कहते हैं। 

इस एकादशी के अवसर पर काशी में बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उन्हें दूल्हा बनाकर देवी पार्वती का गौणा उत्सव मनाया जाता है। भक्तगण रंगोत्सव मनाते हैं। इसलिए आमलकी एकादशी का महत्व शिव और विष्णु दोनों के भक्तों के लिए है। 

एकादशी शुभ संयोग

साल 2018 में आमलकी एकादशी सोमवार को है जो शिवजी का दिन माना जाता है। इसलिए शिवभक्तों के लिए यह एकादशी विशेष महत्वपूर्ण हो गयी है। इसदिन आयुष्मान योग और रवियोग भी बना हुआ है जो बहुत ही शुभ फलदायी है। इस अवसर भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा से आयु और सुख सौभाग्य का लाभ मिल सकता है। 

पद्पुराण में बताया गया है कि इस दिन व्रत करने से मनुष्य के द्वारा किए गए जाने-अनजाने पाप नष्ट हो जाते हैं और मुक्ति का राह आसान हो जाती है।

आमलकी एकादशी व्रत की कथा

मांधाता बोले कि हे वशिष्ठजी! यदि आप मुझ पर कृपा करें तो किसी ऐसे व्रत की कथा कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। महर्षि वशिष्ठ बोले कि हे राजन्, सब व्रतों से उत्तम और अंत में मोक्ष देने वाले आमलकी एकादशी के व्रत का मैं वर्णन करता हूं। यह एकादशी फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में होती है। इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है। अब मैं आपसे एक पौराणिक कथा कहता हूं, आप ध्यानपूर्वक सुनिए। एक वैदिश नाम का नगर था जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था। उस नगर में चैतरथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था।

वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे। एक समय फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से धात्री (आंवले) का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने लगे।


ऐसे रखें आमलकी एकादशी व्रत

आमलकी एकादशी व्रत के पहले दिन व्रती को दशमी की रात्रि में एकादशी व्रत के साथ भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए।

- आमलकी एकादशी के दिन सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो इसके लिए श्रीहरि मुझे अपनी शरण में रखें।

- तत्पश्चात निम्न मंत्र से संकल्प लेने के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।

मम कायिकवाचिकमानसिक सांसर्गिकपातकोपपातकदुरित क्षयपूर्वक 

श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फल प्राप्तयै श्री परमेश्वरप्रीति

कामनायै आमलकी एकादशी व्रतमहं करिष्ये

भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमंत्रित करें। कलश में सुगंधी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें।

कलश पर श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुरामजी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व भजन-कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें। द्वादशी के दिन सुबह ब्राह्मण को भोजन करवा कर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्तिसहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।

आज क्या करें 

व्रत उपवास के नियम का तो पालन करें ही, साथ ही आज के दिन आंवले के पेड़ का रोपण करना बहुत शुभ होता है। घर में सुख समृद्धि बनी रहती है एवं रोग-शोक से मुक्ति मिलती है। आंवले का पेड़ वैसे भी औषध रूप में अत्यंत प्रभावशाली है। इसे दूसरों को गिफ्ट भी कर सकते हैं। ऐसा करने से बह्रमा, विष्णु एवं महेश तीनो का आशीर्वाद प्राप्त होता है एवं समस्त समस्याओं से मुक्ति मिलती है। अमलाकी एकादशी के व्रत से मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त होता है। कहा जाता है ऐसा नहीं करने से वंश पर असर पड़ता है। 

ये भूल कर भी न करें 

एकादशी के दिन लहसुन, प्याज का सेवन करना भी वर्जित है। इसे गंध युक्त और मन में काम भाव बढ़ाने की क्षमता के कारण अशुद्ध माना गया है।
इसी प्रकार एकादशी और द्वादशी त‌िथ‌ि के द‌िन बैंगन खाना अशुभ होता है। 
एकादशी के दिन मांस अौर मदिरा का सेवन करने वाले को नरक की यातनाएं झेलनी पड़ती है। 
इस दिन सेम का सेवन भी नहीं करना चाहिए। एकादशी के दिन इसका सेवन संतान के लिए हानिकारक हो सकता है।

Monday, February 12, 2018

महाशिवरात्रि

यह पर्व भगवान शिव, जो कि प्रथम आदिगुरु हैं तथा सत्य और परमानंद के जनक हैं, को समर्पित है। यह वही हैं जिनसे ज्ञान की उत्पत्ति हुई। कुछ किंवदंतियों के अनुसार, भगवान शिव को ब्रह्मांड के रचयिता और विध्वंसक के रूप में भी जाना जाता है।



शिवरात्रि वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए-

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। 
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्त्व है। महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।

कहते हैं कि महाशिवरात्रि में किसी भी प्रहर अगर भोले बाबा की आराधना की जाए, तो मां पार्वती और भोले त्रिपुरारी दिल खोलकर कर भक्तों की कामनाएं पूरी करते हैं. महाशिवरात्रि पर पूरे मन से कीजिए शिव की आराधना और पूरी कीजिए अपनी हर कामना.

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है. यह भगवान शिव के पूजन का सबसे बड़ा पर्व भी है. फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि पर्व मनाया जाता है. माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि को भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था.

प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं, इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया. विश्वास किया जाता है कि तीनों लोकों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरी को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों और पिशाचों से घिरे रहते हैं. उनका रूप बड़ा अजीब है. शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकार ज्वाला उनकी पहचान है.

बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं. यह दिन जीव मात्र के लिए महान उपलब्धि प्राप्त करने का दिन भी है. बताया जाता है कि जो लोग इस दिन परम सिद्धिदायक उस महान स्वरूप की उपासना करता है, वह परम भाग्यशाली होता है.

इसके बारे में संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के मुख से कहलवाया है-  

'शिवद्रोही मम दास कहावा. सो नर सपनेहु मोहि नहिं भावा.' जो शिव का द्रोह करके मुझे प्राप्त करना चाहता है, वह सपने में भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता. इसीलिए श्रावण मास में शिव आराधना के साथ श्रीरामचरितमानस पाठ का बहुत महत्व होता है.

शिव की महत्ता को 'शिवसागर' में और ज्यादा विस्तृत रूप में देखा जा सकता है. शिवसागर में बताया गया है कि विविध शक्तियां, विष्णु व ब्रह्मा, जिसके कारण देवी और देवता के रूप में विराजमान हैं, जिसके कारण जगत का अस्तित्व है, जो यंत्र हैं, मंत्र हैं, ऐसे तंत्र के रूप में विराजमान भगवान शिव को नमस्कार है.

दक्षिण भारत का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नटराजम्‌'  भगवान शिव के सम्पूर्ण आलोक को प्रस्तुत करता है. इसमें लिखा गया है कि मधुमास यानी चैत्र माह के पूर्व अर्थात् फाल्गुन मास की त्रयोदशी को प्रपूजित भगवान शिव कुछ भी देना शेष नहीं रखते हैं. इसमें बताया गया है कि 'त्रिपथगामिनी’ गंगा, जिनकी जटा में शरण और विश्राम पाती हैं, त्रिलोक- आकाश, पाताल व मृत्युलोक वासियों के त्रिकाल यानी भूत, भविष्य व वर्तमान को जिनके त्रिनेत्र त्रिगुणात्मक बनाते हैं.

जिनके तीनों नेत्रों से उत्सर्जित होने वाली तीन अग्नि जीव मात्र का शरीर पोषण करती हैं, जिनके त्रैराशिक तत्वों से जगत को त्रिरूप यानी आकार, प्रकार और विकार प्राप्त होता है, जिनका त्रिविग्रह त्रिलोक को त्रिविध रूप से नष्ट करता है, ऐसे त्रिवेद रूपी भगवान शिव मधुमास पूर्वा प्रदोषपरा त्रयोदशी तिथि को प्रसन्न हों.

महाशिवरात्रि

किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी 'शिवरात्रि' कही जाती है, किन्तु माघ (फाल्गुन, पूर्णिमान्त) की चतुर्दशी सबसे महत्त्वपूर्ण है और महाशिवरात्रि कहलाती है। *गरुड़पुराण, स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण आदि पुराणों में उसका वर्णन है। कहीं-कहीं वर्णनों में अन्तर है, किंतु प्रमुख बातें एक सी हैं। सभी में इसकी प्रशंसा की गई है। जब व्यक्ति उस दिन उपवास करके बिल्व पत्तियों से शिव की पूजा करता है और रात्रि भर 'जारण' (जागरण) करता है, शिव उसे नरक से बचाते हैं और आनन्द एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और व्यक्ति स्वयं शिव हो जाता है। दान, यज्ञ, तप, तीर्थ यात्राएँ, व्रत इसके कोटि अंश के बराबर भी नहीं हैं।

अग्निपुराण, स्कन्दपुराण में कथा

गरुड़पुराण में इसकी गाथा है- आबू पर्वत पर निषादों का राजा सुन्दरसेनक था, जो एक दिन अपने कुत्ते के साथ शिकार खेलने गया। वह कोई पशु मार न सका और भूख-प्यास से व्याकुल वह गहन वन में तालाब के किनारे रात्रि भर जागता रहा। एक बिल्ब (बेल) के पेड़ के नीचे शिवलिंग था, अपने शरीर को आराम देने के लिए उसने अनजाने में शिवलिंग पर गिरी बिल्व पत्तियाँ नीचे उतार लीं। अपने पैरों की धूल को स्वच्छ करने के लिए उसने तालाब से जल लेकर छिड़का और ऐसा करने से जल की बूँदें शिवलिंग पर गिरीं, उसका एक तीर भी उसके हाथ से शिवलिंग पर गिरा और उसे उठाने में उसे शिवलिंग के समक्ष झुकना पड़ा। इस प्रकार उसने अनजाने में ही शिवलिंग को नहलाया, छुआ और उसकी पूजा की और रात्रि भर जागता रहा। दूसरे दिन वह अपने घर लौट आया और पत्नी द्वारा दिया गया भोजन किया। आगे चलकर जब वह मरा और यमदूतों ने उसे पकड़ा तो शिव के सेवकों ने उनसे युद्ध किया उसे उनसे छीन लिया। वह पाप रहित हो गया और कुत्ते के साथ शिव का सेवक बना। इस प्रकार उसने अज्ञान में ही पुण्यफल प्राप्त किया। यदि इस प्रकार कोई भी व्यक्ति ज्ञान में करे तो वह अक्षय पुण्यफल प्राप्त करता है।

गरुड़पुराण में कथा

अग्निपुराण में सुन्दरसेनक बहेलिया का उल्लेख हुआ है। स्कन्दपुराण में जो कथा आयी है, वह लम्बी है- चण्ड नामक एक दुष्ट किरात था। वह जाल में मछलियाँ पकड़ता था और बहुत से पशुओं और पक्षियों को मारता था। उसकी पत्नी भी बड़ी निर्मम थी। इस प्रकार बहुत से वर्ष बीत गए। एक दिन वह पात्र में जल लेकर एक बिल्व पेड़ पर चढ़ गया और एक बनैले शूकर को मारने की इच्छा से रात्रि भर जागता रहा और नीचे बहुत सी पत्तियाँ फेंकता रहा। उसने पात्र के जल से अपना मुख धोया, जिससे नीचे के शिवलिंग पर जल गिर पड़ा। इस प्रकार उसने सभी विधियों से शिव की पूजा की, अर्थात् स्नापन किया (नहलाया), बेल की पत्तियाँ चढ़ायीं, रात्रि भर जागता रहा और उस दिन भूखा ही रहा। वह नीचे उतरा और एक तालाब के पास जाकर मछली पकड़ने लगा। वह उस रात्रि घर नहीं जा सका था, अत: उसकी पत्नी बिना अन्न-जल के पड़ी रही और चिन्ताग्रस्त हो उठी। प्रात:काल वह भोजन लेकर पहुँची, अपने पति को एक नदी के तट पर देख, भोजन को तट पर ही रख कर नदी को पार करने लगी। दोनों ने स्नान किया, किन्तु इसके पूर्व कि किरात भोजन के पास पहुँचे, एक कुत्ते ने भोजन चट कर लिया। पत्नी ने कुत्ते को मारना चाहा किन्तु पति ने ऐसा नहीं करने दिया, क्योंकि अब उसका हृदय पसीज चुका था। तब तक (अमावस्या का) मध्याह्न हो चुका था। शिव के दूत पति-पत्नी को लेने आ गए, क्योंकि किरात ने अनजाने में शिव की पूजा कर ली थी और दोनों ने चतुर्दशी पर उपवास किया था। दोनों शिवलोक को गए।

पद्मपुराण में इसी प्रकार एक निषाद के विषय में उल्लेख हुआ है।

महाशिवरात्रि के बारे में कथाएं

महाशिवरात्रि के त्यौहार से संबधित कई किंवदंतियां हैं। इनमें से एक उत्तर भारत में सबसे प्रमुख शिव और पार्वती का विवाह है। यह माना जाता है कि भगवान शिव और पार्वती का विवाह इसी दिन हुआ था और उनके विवाह की रात्रि को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। मंदिरों को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है और भगवान को विभिन्न प्रकार की मिठाइयों और खाद्य पदार्थों के चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं। अविवाहित लड़कियां भी व्रत रखती हैं और भगवान शिव से आशीर्वाद के रूप में उन्हीं के समान पति पाने के लिए प्रार्थना करती हैं।

एक और लोकप्रिय मान्यता के रूप में “नीलकंठ” की कथा भी महा शिवरात्रि से जुड़ी है। इस कथा के अनुसार, एक बार देवताओं और राक्षसों के बीच एक युद्ध हुआ। वे दोनों अमृत का सेवन करना चाहते थे, लेकिन विष को ग्रहण किए बिना, अमृत को प्राप्त नहीं किया जा सकता था। देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध के कारण हर जगह त्राहि-त्राहि मच गई। इसलिए ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव ने उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। भगवान शिव को उस विष के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए, पार्वती और अन्य देवता सारी रात जागते रहे और विष के हानिकारक प्रभावों से बचाने के लिए भगवान शिव को भी रात भर जगाते रहे। पूरी रात किसी ने कुछ भी नहीं खाया – पिया। भगवान शिव बच गए लेकिन उनका कंठ(गला) नीला हो गया। तभी से वह “नीलकंठ” के रूप में माने जाते है और इस रात्रि को ‘महाशिवरात्रि’ के रूप में मनाया जाता है। लोग भगवान शिव के बलिदान के प्रति पूरे दिन उपवास करते हुए प्रेम और भक्ति के साथ स्वादिष्ट व्यंजनों को चढ़ाकर इस रात्रि के अवसर का जश्न मनाते हैं।

किंवदंतियों के अनुसार, भगवान शिव सबसे शक्तिशाली देवता हैं। भगवान शिव में सच्चाई, शांति, भोलेपन और सौंदर्य आदि सभी गुण समाहित हैं।

शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की याद दिलाता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध सभी इस व्रत को कर सकते हैं. इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है.

शिवरात्रि पर सच्चा उपवास यही है कि हम परमात्मा शिव से बुद्ध‍ि योग लगाकर उनके समीप रहे. उपवास का अर्थ ही है समीप रहना. जागरण का सच्चा अर्थ भी काम, क्रोध आदि पांच विकारों के वशीभूत होकर अज्ञान रूपी कुम्भकरण की निद्रा में सो जाने से स्वयं को सदा बचाए रखना है.

शिवरात्रि के पर्व पर जागरण का विशेष महत्व है. पौराणिक कथा है कि एक बार पार्वतीजी ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्युलोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?'  उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का उपाय बताया.

चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं. अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है. वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है. परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है. ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया है. शिव का अर्थ है कल्याण. शिव सबका कल्याण करने वाले हैं. अत: महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है.

ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं, जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं. चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है. अब मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे कष्टों का सामना करना पड़ता है. चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है. इसलिए चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है.

एक कथा यह भी बताती है कि महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है, इसलिए प्राय: ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव अराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं. शिव आदि-अनादि है. सृष्टि के विनाश और पुन:स्थापन के बीच की कड़ी हैं. ज्योतिष में शिव को सुखों का आधार मान कर महाशिवरात्रि पर अनेक प्रकार के अनुष्ठान करने की महत्ता कही गई है.

कैसे करें महाशिवरात्रि में पूजा...

हम आपको बताते हैं कि इस दिन शिव की पूजा किस तरह से की जाती है. सबसे पहले मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र,  धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर शिवलिंग पर चढ़ायें. हां एक उपाय और बताता हूं, अगर घर के आस-पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर भी उसे पूजा जा सकता है.

माना जाता है कि इस दिन शिवपुराण का पाठ सुनना चाहिए. रात्रि को जागरण कर शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है. इसके बाद अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है.

माना जाता है कि यह दिन भगवान शंकर का सबसे पवित्र दिन है. यह अपनी आत्मा को पुनीत करने का महाव्रत है. इस व्रत को करने से सब पापों का नाश हो जाता है. हिंसक प्रवृत्ति बदल जाती है. निरीह जीवों के प्रति आपके मन में दया भाव उपजता है. महाशिवरात्रि को दिन-रात पूजा का विधान है. चार पहर दिन में शिवालयों में जाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक कर बेलपत्र चढ़ाने से शिव की अनंत कृपा प्राप्त होती है. साथ ही चार पहर रात्रि में वेदमंत्र संहिता, रुद्राष्टा ध्यायी पाठ ब्राह्मणों के मुख से सुनना चाहिए.

सूर्योदय से पहले ही उत्तर-पूर्व में पूजन-आरती की तैयारी कर लेनी चाहिए. सूर्योदय के समय पुष्पांजलि और स्तुति कीर्तन के साथ महाशिव रात्रि का पूजन संपन्न होता है. उसके बाद दिन में ब्रह्मभोज भंडारा के द्वारा प्रसाद वितरण कर व्रत संपन्न होता है.

शास्त्रों के अनुसार, शिव को महादेव इसलिए कहा गया है कि वे देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व पशु-पक्षी व समस्त वनस्पति जगत के भी स्वामी हैं. शिव का एक अर्थ कल्याणकारी भी है. शिव की अराधना से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय और प्रेम भक्ति का संचार होने लगता है. इसीलिए, स्तुति गान कहता है- मैं आपकी अनंत शक्ति को भला क्या समझ सकता हूं. अतः हे शिव, आप जिस रूप में भी हों उसी रूप को मेरा आपको प्रणाम.

शिव और शक्ति का सम्मिलित स्वरूप हमारी संस्कृति के विभिन्न आयामों का प्रदर्शक है. हमारे अधिकांश पर्व शिव-पार्वती को समर्पित हैं. शिव औघड़दानी हैं और दूसरों पर सहज कृपा करना उनका सहज स्वभाव है.

'शिव' शब्द का अर्थ है ‘कल्याण करने वाला’. शिव ही शंकर हैं. शिव के 'शं' का अर्थ है कल्याण और 'कर' का अर्थ है करने वाला. शिव, अद्वैत, कल्याण- ये सारे शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं. शिव ही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा ही शिव हैं. ब्रह्मा जगत के जन्मादि के कारण हैं.

गरुड़, स्कंद, अग्नि, शिव तथा पद्म पुराणों में महाशिवरात्रि का वर्णन मिलता है. यद्यपि सर्वत्र एक ही प्रकार की कथा नहीं है, परंतु सभी कथाओं की रूपरेखा लगभग एक समान है. सभी जगह इस पर्व के महत्व को रेखांकित किया गया है और यह बताया गया है कि इस दिन व्रत-उपवास रखकर बेलपत्र से शिव की पूजा-अर्चना की जानी चाहिए.

व्रत से क्या मिलता है फल...

हर कोई चाहता है कि वह भगवान की आराधना करे, उपवास रखे. साथ ही वह भगवान से अपनों के दुखों को दूर करने का भी वरदान मांगता है और जीवन में तरक्की की कामना करता है. हम आपको बताते हैं कि शिव की उपासना और व्रत रखने से क्या-क्या फल मिलते हैं. माना जाता है कि महाशिवरात्रि के सिद्ध मुहूर्त में शिवलिंग को प्राण प्रतिष्ठित करवाकर स्थापित करने से व्यवसाय में वृद्धि और नौकरी में तरक्की मिलती है.

शिवरात्रि के प्रदोष काल में स्फटिक शिवलिंग को शुद्ध गंगा जल, दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से स्नान करवाकर धूप-दीप जलाकर मंत्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का शमन होता है. बीमारी से परेशान होने पर और प्राणों की रक्षा के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें. याद रहे, महामृत्युंजय मंत्र का जाप रुद्राक्ष की माला से ही करें. मंत्र दिखने में जरूर छोटा दिखाई देता है, किन्तु प्रभाव में अत्यंत चमत्कारी है.

शिवरात्रि के दिन एक मुखी रुद्राक्ष को गंगाजल से स्नान करवाकर धूप-दीप दिखा कर तख्ते पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर स्थापित करें. शिव रूप रुद्राक्ष के सामने बैठ कर सवा लाख मंत्र जप का संकल्प लेकर जाप आरंभ करें. जप शिवरात्रि के बाद भी जारी रख सकते हैं. मंत्र इस प्रकार है- ॐ नम: शिवाय.

सृष्टि से तमोगुण तक के संहारक सदाशिव की आराधना से लौकिक और परलौकिक दोनों फलों की उपलब्धता संभव है. तमोगुण की अधिकता दिन की तुलना में रात्रि में अधिक होने से भगवान शिव ने अपने लिंग के प्रादुर्भाव के लिए मध्यरात्रि को स्वीकार किया. यह रात्रि फाल्गुन कृष्ण में उनकी प्रिय तिथि चतुर्दशी में निहित है. वर्ष की तीन प्रमुख रात्रि में शिवरात्रि एक है. इस दिन व्रत करके रात्रि में पांच बार शिवजी के दर्शन-पूजन-वंदन से व्यक्ति अपने समस्त फल को सुगमता से पा सकता है.

इस पर्व का महत्व सभी पुराणों में वर्णित है. इस दिन शिवलिंग पर जल अथवा दूध की धारा लगाने से भगवान की असीम कृपा सहज ही मिलती है. इनकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है. 

'जय-जय शंकर, हर-हर शंकर' का कीर्तन करना चाहिए. इस दिन सामर्थ्य के अनुसार रात्रि जागरण अवश्य करना चाहिए. शिवालय में दर्शन करना चाहिए. कोई विशेष कामना हो तो शिवजी को रात्रि में समान अंतर काल से पांच बार शिवार्चन और अभिषेक करना चाहिए. किसी भी प्रकार की धारा लगाते समय शिवपंचाक्षर मंत्र का जप करना चाहिए.

शिवरात्रि कैसे मनायें

तिथितत्त्व के अनुसार इसमें उपवास प्रमुखता रखता है, उसमें शंकर के कथन को आधार माना गया है- 'मैं उस तिथि पर न तो स्नान, न वस्त्रों, न धूप, न पूजा, न पुष्पों से उतना प्रसन्न होता हूँ, जितना उपवास से।' किन्तु हेमाद्रि, माधव आदि ने उपवास, पूजा एवं जागरण तीनों को महत्ता दी है

कालनिर्णय में शिवरात्रि शब्द के विषय में एक लम्बा विवेचन उपस्थित किया गया है। क्या यह 'रूढ' है (यथा कोई विशिष्ट तिथि) या यह 'यौगिक' है, या 'लाक्षणिक' या 'योगरूढ' है। निष्कर्ष यह निकाला गया है कि यह शब्द पंकज के सदृश योगरूढ है जो कि पंक से अवश्य निकलता है, किन्तु वह केवल पंकज (कमल) से ही सम्बन्धित है (यहाँ रूढि या परम्परा) न कि मेढक से।

शिवरात्रि नित्य एवं काम्य दोनों है। यह नित्य इसलिए है कि इसके विषय में वचन है कि यदि मनुष्य इसे नहीं करता तो पापी होता है, 'वह व्यक्ति जो तीनों लोकों के स्वामी रुद्र की पूजा भक्ति से नहीं करता, वह सहस्त्र जन्मों में भ्रमित रहता है।' ऐसे भी वचन हैं कि यह व्रत प्रति वर्ष किया जाना चाहिए- 'हे महादेवी, पुरुष या पतिव्रता नारी को प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर भक्ति के साथ महादेव की पूजा करनी चाहिए। यह व्रत काम्य भी है, क्योंकि इसके करने से फल भी मिलते हैं।

ईशानसंहिता के मत से यह व्रत सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा सम्पादित हो सकता है- 'सभी मनुष्यों को, यहाँ तक की चाण्डालों को भी शिवरात्रि पापमुक्त करती है, आनन्द देती है और मुक्ति देती है।' ईशानसंहिता में व्यवस्था है- 'यदि विष्णु या शिव या किसी देव का भक्त शिवरात्रि का त्याग करता है तो वह अपनी पूजा (अपने आराध्य देवी की पूजा) के फलों को नष्ट कर देता है। जो इस व्रत को करता है उसे कुछ नियम मानने पड़ते हैं, यथा अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा का पालन करना होता है, उसे शांत मन, क्रोधहीन, तपस्वी, मत्सरहित होना चाहिए; इस व्रत का ज्ञान उसी को दिया जाना चाहिए जो गुरुपादानुरागी हो, यदि इसके अतिरिक्त किसी अन्य को यह दिया जाता है तो (ज्ञानदाता) नरक में पड़ता है।

इस व्रत का उचित काल है रात्रि, क्योंकि रात्रि में भूत, शक्तियाँ, शिव घूमा करते हैं। अत: चतुर्दशी को उनकी पूजा होनी चाहिए

स्कन्दपुराण में आया है कि कृष्ण पक्ष की उस चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए, वह तिथि सर्वोत्तम है और शिव से सायुज्य उत्पन्न करती है। शिवरात्रि के लिए वही तिथि मान्य है जो उस काल से आच्छादित रहती है। उसी दिन व्रत करना चाहिए, जब कि चतुर्दशी अर्धरात्रि के पूर्व एवं उपरान्त भी रहे। हेमाद्रि में आया है कि शिवरात्रि नाम वाली वह चतुर्दशी जो प्रदोष काल में रहती है, व्रत के लिए मान्य होनी चाहिए; उस तिथि पर उपवास करना चाहिए, क्योंकि रात्रि में जागरण करना होता है}।

व्रत के लिए उचित दिन एवं काल के विषय में पर्याप्त विभेद हैं। निर्णयामृत ने 'प्रदोष' शब्द पर बल दिया है तथा अन्य ग्रंथों में 'निशीथ' एवं अर्धरात्रि पर बल दिया है। यहाँ हम निर्णयकारों के शिरोमणि माधव के निर्णय प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि चतुर्दशी प्रदोष-निशीथ व्यापिनी हो तो व्रत उसी दिन करना चाहिए। यदि वह दो दिनों वाली हो अर्थात् वह त्रयोदशी एवं अमावस्या दोनों से व्याप्त हो और वह दोनों दिन निशीथ काल तक रहने वाली हो या दोनों दिनों तक इस प्रकार न उपस्थित रहने वाली हो तो प्रदोष व्याप्त व्यापक निश्चय करने वाली होती है; जब चतुर्दशी दोनों दिनों तक प्रदोषव्यापिनी हो या दोनों दिनों तक उससे निर्मुक्त हो तो निशीथ में रहने वाली ही नियामक होती है; किंतु यदि वह दो दिनों तक रहकर केवल किसी से प्रत्येक दिन (प्रदोष या निशीथ) व्याप्त हो तो जया से संयुक्त अर्थात् त्रयोदशी तिथि नियामक होती है।

प्राचीन कालों में शिवरात्रि के सम्पादन का विवरण गरुड़पुराण में मिलता है- त्रयोदशी को शिव सम्मान करके व्रती को कुछ प्रतिबन्ध मानने चाहिए। उसे घोषित करना चाहिए- 'हे देव, मैं चतुर्दशी की रात्रि में जागरण करूँगा। मैं यथाशक्ति दान, तप एवं होम करूँगा। हे शम्भु, मैं चतुर्दशी को भोजन नहीं करूँगा, केवल दूसरे दिन खाऊँगा। हे शम्भु, आनन्द एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए आप मेरे आश्रय बनें।' व्रती को व्रत करके गुरु के पास पहुँचना चाहिए और पंचामृत के साथ पंचगव्य से लिंग को स्नान कराना चाहिए। उसे इस मंत्र का पाठ करना चाहिए- 'ओम नम: शिवाय'। चन्दन लेप से आरम्भ कर सभी उपचारों के साथ शिव पूजा करनी चाहिए और अग्नि में तिल, चावल एवं घृतयुक्त भात डालना चाहिए। इस होम के उपरान्त पूर्णाहुति करनी चाहिए और (शिव विषयक) सुन्दर कथाएँ एवं गान सुनने चाहिए। व्रती को पुन: अर्धरात्रि, रात्रि के तीसरे पहर एवं चौथे पहर में आहुतियाँ डालनी चाहिए। सूर्योदय के लगभग उसे 'ओम नम: शिवाय' का मौन पाठ करते हुए शिव प्रार्थना करनी चाहिए- 'हे देव, आपके अनुग्रह से मैंने निर्विघ्न पूजा की है, हे लोकेश्वर, हे शिव, मुझे क्षमा करें। इस दिन जो भी पुण्य मैंने प्राप्त किया और मेरे द्वारा शिव को जो कुछ भी प्रदत्त हुआ है, आज मैंने आपकी कृपा से ही यह व्रत पूर्ण किया है; हे दयाशील, मुझ पर प्रसन्न हों, और अपने निवास को जाएँ; इसमें कोई संदेह नहीं कि केवल आपके दर्शन मात्र से मैं पवित्र हो चुका हूँ।' व्रती को चाहिए कि वह शिव भक्तों को भोजन दे, उन्हें वस्त्र, छत्र आदि दे- 'हे देवाधिदेव, सर्वपदार्थाधिपति, आप लोगों पर अनुग्रह करते हैं, मैंने जो कुछ श्रद्धा से दिया है उससे आप प्रसन्न हों।' इस प्रकार क्षमा मांग लेने पर व्रती को संकल्प करके 12 मासों की चतुर्दशी को जागरण करना चाहिए। व्यक्ति यह व्रत करके 12 ब्राह्मणों को खिलाकर तथा दीपदान करके स्वर्ग प्राप्त कर सकता है।

तिथितत्त्व में कुछ मनोरंजक विस्तार पाया जाता है। लिंग स्नान रात्रि के प्रथम प्रहर में दूध से, दूसरे में दही से, तीसरे में घृत से, चौथे में मधु से कराना चाहिए। चारों प्रहरों के मंत्र ये हैं- 'ह्रीं ईशानाय नम:', ह्रीं अधोराय नम:', 'ह्रीं वामदेवाय नम:' एवं 'ह्रीं सद्योजाताय नम:'। चारों प्रहरों में अर्ध्य के समय के मंत्र भी विभिन्न हैं। ऐसा भी प्रतिपादित है कि प्रथम प्रहर में गान एवं नृत्य होना चाहिए।

वर्षक्रियाकौमुदी में आया है कि दूसरे, तीसरे एवं चौथे प्रहर में व्रती को पूजा, अर्ध्य, जप एवं (शिव संबंधी) कथा श्रवण करना चाहिए, स्तोत्रपाठ करना चाहिए एवं लेटकर प्रणाम करना चाहिए; प्रात:काल व्रती को अर्ध्यजल के साथ क्षमा मांगनी चाहिए। यदि माघ कृष्ण चतुर्दशी रविवार या मंगलवार को पड़े तो वह व्रत के लिए उत्तम होती है

24, 14 या 12 वर्षों तक शिवरात्रि व्रत करने वाले को अवधि के उपरान्त उद्यापन करना पड़ता है। इस विषय में पुरुषार्थचिंतामणि  एवं व्रतराज आदि ग्रंथों में अति विस्तार के साथ वर्णन है।

किसी भी शिवरात्रि के पारण के विषय में जितने वचन हैं, वे विवाद ग्रस्त हैं। 'स्कन्द' के दो वचन ये हैं- 'जब कृष्णाष्टमी, स्कन्दषष्ठी एवं शिवरात्रि पूर्व एवं पश्चात् की तिथियों से संयुक्त की जाती है तो पूर्व वाली तिथि प्रतिपादित कृत्य के लिए मान्य होती है और पारण प्रतिपादित तिथि के अन्त में किया जाना चाहिए; चतुर्दशी को उपवास करके और उसी तिथि को वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने लाखों अच्छे कर्म किये हों।' धर्मसिंधु का निष्कर्ष यों हैं-

'यदि चतुर्दशी रात्रि के तीन प्रहरों के पूर्व ही समाप्त हो जाये तो पारण तिथि के अन्त में होना चाहिए; यदि वह तीन प्रहरों से आगे चली जाये तो उसके बीच में ही सूर्यादय के समय पारण करना चाहिए, ऐसा माधव आदि का मत है।' निर्णयसिंधु का मत यह है कि यदि चतुर्दशी तिथि रात्रि के तीन प्रहरों के पूर्व समाप्त हो जाये तो पारण चतुर्दशी के बीच में ही होना चाहिए न कि उसके अन्त में।

आजकल धर्मसिंधु में उल्लिखित विधि का पालन कदाचित ही कोई करता हो। उपवास किया जाता है, शिव की पूजा होती है और लोग शिव की कथाएँ सुनती हैं। सामान्य जन (कहीं-कहीं) ताम्रफल (बादाम), कमल पुष्प दल, अफीम के बीज, धतूरे आदि से युक्त या केवल भाँग का सेवन करते हैं। बहुत से शिव मन्दिरों में मूर्ति पर लगातार जलधारा से अभिषेक किया जाता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में प्रजापति के उस पाप का उल्लेख है, जो उन्होंने अपनी पुत्री के साथ किया था। वे मृग बन गये। देवों ने अपने भयंकर रूपों से रुद्र का निर्माण किया और उनसे मृग को फाड़ डालने को कहा। जब रुद्र ने मृग को विद्ध कर दिया तो वह (मृग) आकाश में चला गया। लोग इसे मृग (मृगशीर्ष) कहते हैं। रुद्र मृगव्याध हो गये और (प्रजापति की) कन्या रोहिणी बन गयी और तीर तीन धारा वाले तारों के समान बन गया।

लिंगपुराण में एक निषाद की कथा है। निषाद ने एक मृग, उसकी पत्नी और उनके बच्चों को मारने के क्रम में शिवरात्रि व्रत के सभी कृत्य अज्ञात रूप से कर डाले। वह एवं मृग के कुटुम्ब के लोग अंत में व्याध के तारे के साथ मृगशीर्ष नक्षत्र बन गये।

Sunday, February 11, 2018

Maha Shivaratri - the day of convergence of divine powers of Lord Shiva and Goddess Shakti

This is one of the most important legends related to the festival of Mahashivaratri. It tells us how Lord Shiva got married Shakti, his divine consort for the second time. According to legend of Shiva and Shakti, the day Lord Shiva got married to Parvati is celebrated as Shivaratri - the Night of Lord Shiva.



Legend goes that once Lord Shiva and his wife Sati or Shakti were returning from sage Agastya’s ashram after listening to Ram Katha or story of Ram. On their way through a forest, Shiva saw Lord Rama searching for his wife Sita who had been kidnapped by Ravana, the King of Lanka. Lord Shiva bowed his head in reverence to Lord Rama. Sati was surprised by Lord Shiva’s behavior and inquired why he was paying obeisance to a mere mortal. Shiva informed Sati that Rama was an incarnation of Lord Vishnu. Sati, however, was not satisfied with the reply and Lord asked her to go and verify the truth for herself.

Using her power to change forms, Sati took the form of Sita appeared before Rama. Lord Rama immediately recognized the true identity of the Goddess and asked, "Devi, why are you alone, where's Mahadev?" At this, Sati realized the truth about Lord Ram. But, Sita was like a mother to Lord Shiva and since Sati took the form of Sita her status had changed. From that time, Shiva detached himself from her as a wife. Sati was sad with the change of attitude of Lord Shiva but she stayed on at Mount Kailash, the abode of Lord Shiva.

Later, Sati’s father Daksha organised a yagna, but did not invite Sati or Shiva as he had an altercation with Shiva in the court of Brahma. But, Sati who wanted to attend the Yagna, went even though Lord Shiva did not appreciate the idea. To hre great anguish, Daksha ignored her presence and did not even offer Prasad for Shiva. Sati felt humiliated and was struck with profound grief. She jumped into the yagna fire and immolated herself.

Lord Shiva became extremely furious when he heard the news of Sati’s immolation. Carrying the body of Sati, Shiva began to perform Rudra Tandava or the dance of destruction and wiped out the kingdom of Daksha. Everybody was terrified as Shiva’s Tandava had the power to destroy the entire universe. In order to calm Lord Shiva, Vishnu severed Sati's body into pieces with sudarshan chakra ,which fall on earth. It is said that wherever the pieces of Shakti’s body fell, there emerged a Shakti Peetha. There are 51 shakti peeth in Indian subcontinent (India, Nepal, Bangladesh, Pakistan and Sri Lanka.

Sati was born as Parvati in the family of God Himalaya. She performed penance to break Shiva’s meditation and win his attention. It is said that Parvati, who found it hard to break Shiva’s meditation seeked help of Kamadeva - the God of Love and Passion. Kaamadeva asked Parvati to dance in front of Shiva. When Parvati danced, Kaamadeva shot his arrow of passion at Shiva breaking his penance. Shiva became extremely infuriated and opening his third eye that turned Kaamadeva to ashes. It was only after Kamadeva’s wife Rati’s pleading that Lord Shiva agreed to revive Kaamadeva.

Later, Parvati undertook severe penance to win over Shiva. Through her devotion and persuasion by sages and devtas, Parvati, also known as Uma, was finally able to lure Shiva into marriage and away from asceticism. Their marriage was solemnized a day before Amavasya in the month of Phalgun. This day of reunion of Lord Shiva and Mata Parvati is celebrated as Mahashivratri every year.

Wednesday, February 7, 2018

सीता नवमी (जानकी जयंती)

फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की नवमी को जानकी जयंती का पर्व मनाया जाएगा। इस दिन माता सीता प्रकट हुई थीं। 



शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन माह को पुष्य नक्षत्र के मध्याह्र काल में जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे, उसी समय एक बालिका प्रकट हुई थी। जोती हुई भूमि और हल की नोक को सीता कहा जाता है, इस कारण उस बालिका का नाम सीता रखा गया था। इस तिथि को जानकी जयंती के नाम से जाना जाता है। जानकी देवी लक्ष्मी की अवतार सीता का ही एक नाम है। माता सीता की उत्पत्ति भूमि से हुई थी, इस कारण उन्हें वसुंधरा भी कहते हैं। 

राजा जनक ने उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया, इसी कारण उनका नाम ‘जानकी’ पड़ा। युवा होने पर सीता जी का विवाह श्रीराम के साथ हुआ। वाल्मीकि रामायण आदि शास्त्रों में सीता के स्वरूप का विस्तार से वर्णन है। ऋग्वेद में एक स्तुति में कहा गया है कि असुरों का नाश करने वाली सीता आप हमारा कल्याण करें। रामचरितमानस में सीता को संसार की उत्पत्ति, पालन व संहार करने वाली लक्ष्मी कहा गया है। देवी सीता शक्ति, इच्छा-शक्ति व ज्ञान-शक्ति तीनों रूपों में प्रकट होती हैं, अतः वे परमात्मा की शक्ति स्वरूपा हैं। मान्यतानुसार इस दिन सीता-राम के निमित विधिवत पूजन व्रत व उपाय से 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है तथा जीवनसाथी को लंबी आयु प्रदान होती है? विवाह में आने वाले विलंब दूर होते हैं, सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।

सीता मैया जो कि मिथिला नरेश जनक की पुत्री कही जाती हैं, वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राजा जनक ने धरती को जोता था, तब निर्मित हुई क्यारी में उन्हें एक छोटी से कन्या मिली थी, तब ही राजा जनक ने इन्हें धरती माता की पुत्री के रूप में अपना लिया था . यह भी कहा जाता हैं जब राजा जनक ने यज्ञ कार्य हेतु धरती को जोता , तब धरती में एक गहरी दरार उत्पन्न हुई ,उस दरार से एक सोने की डलिया में मिट्टी में लिपटी हुई सुंदर छवि वाली कन्या प्राप्त हुई . राजा जनक की कोई संतान नहीं थी इसलिए इस छोटी सी कन्या को जैसे ही उन्होंने अपने हाथों में लिया , उन्हें पिता प्रेम की अनुभूति हुई और उन्होंने उस कन्या को सीता नाम दिया और उसे अपनी बेटी के रूप में सम्मान दिया . राजा जनक मिथिला के राजा थे जनक उनके पूर्वजों द्वारा दी गई उपाधि थी उनका असली नाम सीराध्वाज था एवं उनकी पत्नी का नाम महारानी सुनैना था . सीता इन दोनों की एकमात्र पुत्री थी .


सीता जन्म रहस्य 

कई मतों के अनुसार सीता के जन्म के विषय में एक कथा कही जाती हैं, जिसमे स्पष्ट किया गया हैं कि सीता कौन थी और वो क्यूँ रावण की मृत्यु का कारण बनी ? 

असल में सीता रावण और मंदोदरी की बेटी थी, इसके पीछे बहुत बड़ा कारण थी वेदवती . सीता वेदवती का पुनर्जन्म जन्म थी .वेदवती एक बहुत सुंदर, सुशिल धार्मिक कन्या थी, जो कि भगवान विष्णु की उपासक थी और उन्ही से विवाह करना चाहती थी. अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वेदवती ने कठिन तपस्या की. उसने सांसारिक जीवन छोड़ स्वयं को तपस्या में लीन कर दिया था. वेदवती उपवन में कुटिया बनाकर रहने लगी . एक दिन वेदवती उपवन में तपस्या कर रही थी . तब ही रावण वहां से निकला और वेदवती के स्वरूप को देख उस पर मोहित हो गया और उसने वेदवती के साथ दुर्व्यवहार करना चाहा, जिस कारण वेदवती ने हवन कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया और वेदवती ने ही मरने से पूर्व रावण को श्राप दिया, कि वो खुद रावण की पुत्री के रूप में जन्म लेगी और रावण की मृत्यु का कारण बनेगी . कुछ समय बाद रावण को मंदोदरी से एक पुत्री प्राप्त हुई, जिसे उसने जन्म लेते ही सागर में फेंक दिया.सागर में डूबती वह कन्या सागर की देवी वरुणी को मिली और वरुणी ने उसे धरती की देवी पृथ्वी को सौंप दिया और देवी पृथ्वी ने उस कन्या को राजा जनक और माता सुनैना को सौंप दिया, जिसके बाद वह कन्या सीता के रूप में जानी गई और बाद में इसी सीता के अपहरण के कारण भगवान राम ने रावण का वध व लंका का दहन किया .


जिस तरह सीता मैया धरती से प्रकट हुई थी , उसी प्रकार वह धरती में समा गई थी . रावण के संहार के बाद , जब राम अयोध्या पहुंचे , तब उन्हें किन्ही कारणों से सीता का त्याग करना पड़ा . उस समय सीता ने अपना जीवन वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में व्यतीत किया और दो सुंदर राजकुमार लव कुश को जन्म दिया . राम इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनकी दो अतिबलशाली संतान हैं . जब राम ने अश्वमेध यज्ञ के लिये अपने अश्व को छोड़ा , तब इन दोनों राजकुमारों ने उस अश्व को पकड़ लिया और कहा कि अपने राजा को बोलो कि हमसे युद्ध करे . लव कुश भी अपने जन्म के रहस्य को नहीं जानते थे . लव कुश के साथ हनुमान जैसे सभी योद्धाओं ने युद्ध किया लेकिन कोई उन से जीत नहीं पाया . तब आखरी में राम वहाँ आये , तब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह दोनों दिव्य बालक उनकी और सीता की संतान हैं . तब सीता को वापस अयोध्या आने को कहा गया . तब सीता अयोध्या की भरी सभा में गई और उन्होंने धरती माँ का आव्हाहन किया और लव कुश को पिता को सौंप . स्वयं को धरती माँ को सौंप दिया . इस प्रकार जिस प्रकार दिव्य जन्म के साथ सीता मैया प्रकट हुई, उसी तरह से वो धरती में समां गई . सीता मैया एक दिव्य स्वरूपा मानी जाती हैं इसलिए कहते हैं कि जब रावण उनका अपहरण करने आया था उसके पहले ही सीता के वास्तविक शरीर को अग्नि देव को सौंप दिया गया था क्यूंकि अगर रावण वास्तविक सीता को बुरी निगाह से देखता तो उसे देखकर ही भस्म हो जाता . अगर ऐसा होता तो मनुष्य को जाति को नारी के साथ अपनी मर्यादा का सबक नहीं मिलता जो कि रावण के अंत और उसके घमंड के अंत के साथ मिला . इसलिए अंत में भगवान राम ने अग्नि परीक्षा के रूप में अग्नि देवता से सीता को पुनः प्राप्त किया .


व्रत कथा

मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है एवं राम-सीता का विधि-विधान से पूजन करता है, उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम 'श्री सीतायै नमः' और 'श्रीसीता-रामाय नमः' का उच्चारण करना लाभदायी रहता है। 

सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई। 

अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था। 

इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है। 

सीता (जानकी) नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो। 

इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा करने के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा, किंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया। 

अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। उसने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। 

अत: सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजन-अर्चन करते है, उन्हें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य प्राप्त होते हैं। इस दिन जानकी स्तोत्र, रामचंद्रष्टाकम्, रामचरित मानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।

पूजन विधि

घर के ईशान कोण में पीले वस्त्र पर गणपती, लक्ष्मी, पार्वती, श्रीहरि व महादेव का चित्र स्थापित कर विधिवत पंचोपचार पूजन करें। हल्दी मिले घी का दीप करें, सुगंधित धूप करें। केसर से तिलक करें। गेंदे के फूल चढ़ाएं, कद्दू के हलवे का भोग लगाएं। किसी माला से इस विशेष मंत्र का 1 माला जाप करें। पूजन उपरांत भोग पीली आभा लिए गाय को खिलाएं। 

उपाय

  • सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु सीता-राम पर चढ़े 12 गोल फल बच्चों में बांटें।
  • जीवनसाथी की लंबी आयु हेतु देवी सीता के निमित चढ़े 7 केले गाय को खिलाएं।
  • विवाह से विलंब दूर करने हेतु सीता राम मंदिर में सुगंधित घी के 7 दीपक करें।





Tuesday, February 6, 2018

Shabri Jayanti

Shabari Jayanti is celebrated in the memory of Shabari a Kol woman, who came to be known as the epitome of devotions and Bhakti by her abundant love and devotion to Lord Rama.

Shabari Jayanti is celebrated on the second day of the Krishna Paksha of Phalgun or February-March month according to the Hindu calendar.



What is the story of Shabari?

Shabari belonged to an uncivilized community called Shabara. She did not understand religion, devotion or God. However during the passage of time she came across Guru Matunga. Her Guru told her that one day God will come for her and bless her; and he also told her that hence the only word that should come out of her mouth is RAMA as it was the name of God.

From that day onwards, the only word that she uttered was Rama. Twelve years passed without any sight of Lord Rama. When she was of eighty years old, Shabari kept thinking that I must not give up my soul cause I am yet to meet my savior, my God.

Then one day, Lord Rama, in a quest to find his wife Sita Mata who was abducted by Ravana, came to her hut.  Seeing Lord Rama and his brother Lakshmana, Shabari could not hold back her tears. Hungry, Lord Rama asked for some fruits. Shabari wary of serving bitter or poisonous fruits to Lord Rama, started tasting all the fruits when finally she realized that she had tasted all the fruits. Ashamed she could not bring herself to give them to Lord Rama, but what is God without his disciples? Rama accepted all the fruits and ate them with relish. Overwhelmed, Shabari cried copious tears and said now her life was fulfilled. Lakshmana, seeing this devotion between the devotee and her God prophesied that her name will remain immortal as a true devotee. She breathed her last in front of Rama and her soul went heaven bound and she attained Moksha.



How is Shabari Jayanti celebrated?

Several devotional and cultural programs mark the celebrations of the Shabari Jayanti. Special celebrations are held at the Sitaramachandra Swamy temple at Bhadrachalam where a huge number of people, especially tribal people, congregate to mark the occasion. People take out a huge procession, and this procession has been christened as the Sabari Smruthi Yatra. In this procession people carry huge portraits that depict the event of Shabari offering the fruit to Lord Rama. The event marks the significance of complete devotion and subjugation, of both God to His devotes, and of devotees to who they worship. Apart from that, various tribal rites and rituals are performed on this day.

Monday, February 5, 2018

Yashoda Jayanti

Maa Yashoda was the foster mother of Lord Sri Krishna. The character of Yashoda as a Mother of Lord Krishna cannot be forgotten by any person who know Mahabharat as well as life of Shri Krishna. She is known and cited as an example of motherly love till date for the love and affection that she had bestowed on Krishna.



Yashoda Jayanti is annually observed on Phalgun Krishna Paksha Sashti tithi or the sixth day during the waning phase of moon as per traditional Hindu lunar calendar followed in North India. It is the birth anniversary celebration of Maa Yasoda, the foster mother of Bhagavan Sri Krishna. The day of great importance at Dwarka, Braj, Vrindavan and Mathura. 

According to Bhagavata purana  Lord Krishna, who was born to Devaki  was given to Yashoda and Nand in order to protect Krishna from Devaki’s brother, Kansa who was an evil king. Yashoda and Nanda looked after baby Sri Krishna. She cared for Sri Krishna as his real parents, Vasudeva and Devaki, were in the prison of Kansa. Mata Yashoda’s love is immense towards Lord Krishna and she cannot be compared to anyone else.

Some of the popular incidents in the life of Bhagavan Sri Krishna is associated with Mata Yashoda. They include Krishna showing Mata Yashoda the entire universe in his mouth and the famous incident of her tying Krishna to grinding stone.

The festival is marked with lot of love and devotion and celebrated in all the Krishna temples and also the ISKCON temples all across the world.

In Gujarat the day is marked with lot of celebration and people decorates their homes with flowers and pictures of Yashoda and Sri Krishna. In Gokul, where Sri Krishna spent his childhood, people keep retelling or enacting (in dramas or dance recitals) the beautiful tales of Krishna’s childhood anecdotes with Yashoda. People also believe that there is no other lady can compensate the role of a mother like Yashoda Mata as she was not real mother to the Lord but she deed a lot for the son which is much more to her than the real son.

Sunday, February 4, 2018

यशोदा जयंती

मां यशोदा का जन्म दिवस या जयंती फाल्गुन मास की षष्ठी तिथि को मनायी जाती है। दक्षिण भारत में, महाराष्ट्र एवं गुजरात में यशोदा जयंती को माघ मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी की मान्यता मानी जाती है। मां यशोदा तो वात्सल्य की देवी हैं, उनके नाम में ही यश एवं हर्ष को देनी वाली भरा हुआ है। भगवान कृष्ण ने भी उन्हें ही अपनी माता के रूप में इसीलिए चुना।



यशोदा जयंती पुराणिक कथा : 

एक समय माता यशोदा ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वर मांगने को कहा। माता ने बोले हे ईश्वर! मेरी तपस्या तभी पूर्ण होगी जब आप मुझे, मेरे पुत्र के रूप में प्राप्त होंगे। भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें कहा कि आने वाले काल में में वासुदेव एवं देवकी माँ के घर जन्म लूंगा लेकिन मुझे मातृत्व का सुख आपसे ही प्राप्त होगा। समय के साथ ऐसा ही हुआ एवं भगवान कृष्ण देवकी एवं वासुदेव की आठवीं संतान के रूप में प्रकट हुए, क्योंकि कंस को मालूम था कि उनका वध देवकी एवं वासुदेव की संतान द्वारा ही होगा तो उन्होंने अपनी बहन एवं वासुदेव को कारावास में डाल दिया. जब कृष्ण का जन्म हुआ तो वासुदेव उन्हें नंद बाबा एवं यशोदा मैय्या के घर छोड़ आए ताकि उनका अच्छे से पालन पोषण हो सके। तत्पश्चात माता यशोदा ने ही कृष्ण को मातृत्व का सुख दिया।

माता यशोदा एवं कृष्ण की लीलाएं तो जग जाहिर हैं। कभी माखन चोर बने, तो कभी पूतना का वध किया। मां की डांट पड़ने पर अपने मुंह को खोल कर पूरे ब्रह्मांड के दर्शन भी करवा दिए। उनकी ऐसी अद्भुद लीलाएं देख कर मां यशोदा को एहसास हो गया की कृष्ण ही भगवान विष्णु का रूप हैं। वह कृतघ्न हो गयी एवं और भी वात्सल्य से भर गयीं।

भगवान कृष्ण के मंदिरों के साथ ही दुनियाभर में फैले इस्कॉन मंदिरों में भी यशोदा जयंती का त्योहार मनाया जाता है। भागवत पुराण के अनुसार भगवान कृष्ण, जिन्हें माता देवकी ने जन्म दिया था, उन्हें पिता, वासुदेव ने गोकुल में रहने वाले यशोदा और नंद के हवाले कर दिया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि क्योंकि वे देवकी के भाई, दुष्ट राजा कंस से कृष्ण को बचाना चाहते थे। भगवान कृष्ण के प्रति माता यशोदा के अपार प्यार की किसी और से तुलना नहीं की जा सकती।

यशोदा जयंती का त्योहार गोकुल में धूमधाम से मनाया जाता है क्योंकि यहीं पर भगवान कृष्ण ने माता यशोदा के साथ अपना बचपन बिताया। लोग सामान्य रूप से इस दिन माता यशोदा की कहानी सुनाते हैं कि किस तरह यशोदा, बेटे कृष्ण का ख्याल रखती थीं। श्रीकृष्ण द्वारका के राजा थे जो आज गुजरात में है, इसलिए गुजरात में भी यशोदा जयंती का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन यहां के लोग अपने घरों को माता यशोदा और कृष्ण की तस्वीरों से सजाते हैं।


यशोदा जयंती पूजा विधि

आज के दिन मां यशोदा को दिल से याद करें, उनका आवाहन करें एवं उनसे संतान सुख के लिए आशीर्वाद मांगें। मां तो सभी के लिए वात्सल्य से भारी हुई हैं। आपकी मनोकामनाओं को अवश्य पूर्ण करेंगी। अगर आप संतान से सम्बंधित कष्टों से गुजर रहे हैं या फिर संतान प्राप्ति की कामना रखते हैं तो आपको आज के दिन प्रातः काल उठ कर स्नान आदि कर स्वच्छ होकर मां यशोदा का ध्यान करना चाहिए एवं कृष्ण के लड्डू गोपाल रूप का ध्यान करना चाहिए। मां को लाल चुनरी चड़ाएं, पंजीरी एवं मीठा रोठ एवं थोड़ा सा मख्खन लड्डू गोपाल के लिए भी भोग के लिए रखें. मन ही मन अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करें, शुभ होगा।

यशोदा जयंती 2018 शुभ मुहूर्त

षष्ठी तिथि की शुरुआत – 08:05 बजे 5 फरवरी 2018
षष्ठी तिथि संपन्न = 08:00 बजे तक 6 फरवरी 2018