Sunday, November 12, 2017

कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति

वैदिक संस्कृति की परिकल्पना आज से हजारों वर्षो पूर्व वैदिक ऋषियों द्वारा की गई थी जिनका सृष्टिकर्ता के साथ सीधा संपर्क था। महर्षि वेद व्यास जी ने समाज में होने वाले अपकर्ष और संस्कृति पर आने वाले संकट का पूर्वानुमान लगाते हुए वेदों के ज्ञान को पुराणों के माध्यम से हमें 5000 वर्षो पूर्व लिखित रूप में दिया। इन सब पुराणों में ,श्रीमद देवीभागवत में विभिन्न युगों-सतयुग त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग की विस्तार से व्याख्या की गई है।



जो मनुष्य धर्म का पालन करते हैं वे सतयुग में जन्म लेते हैं। जिन मनुष्यों की प्रीति धर्म और अर्थ (भौतिक  सम्पन्नता ) दोनों में है वे त्रेतायुग में जन्म लेते है। जो धर्म, अर्थ और काम (इच्छाएं) तीनों में प्रीती रखते हैं वे द्वापर में जन्म लेते है तथा जो सिर्फ अर्थ और काम में लिप्त होते है वे कलियुग में जन्म लेते हैं। अतः सतयुग में योग-‘ज्ञानथा, त्रेता में ध्यान के माध्यम सेज्ञानप्राप्त हुआ। द्वापरयुग में कर्म प्रधान हुआ और श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम से निष्काम कर्म सिखाया-प्रत्येक प्राणी की सहायता अनासक्त होकर करना। वर्तमान कलियुग का योग-सेवा है क्योंकि कर्म प्रधान है इसलिए जब हम सेवा करते हैं तो हमारे कर्म स्वतः ही सुधारते हैं। कर्म वह नहीं है की दूसरे के बारे में अच्छा विचार किया और फिर अपने भोगों में लिप्त हो गए। यह एक कृत्य है जोकि या तो सकारात्मक या फिर नकारात्मक हो सकता है।

जब आप दुसरो की सहायता करके अपने कर्म सुधारते हैं तब आप ध्यान के लिए योग्य बनते है और जब ध्यान होगा तब ही ज्ञान मिलेगा। जब ज्ञान मिलेगा तब आप मोक्ष प्राप्ति के योग्य बनेंगे। यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तभी ध्यान कर पाते है और ध्यान के द्वारा ही ज्ञान की प्राप्ति होगी। जब मैं इतने सारे अपराध होते देखता हूं जानवरो को प्रताड़ित किया जा रहा है और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया जा रहा है। मेरे मनन में कोई शंका नहीं रहती की हम कलियुग के अंत के समीप हैं और कलियुग में मोक्ष का मार्ग केवल सेवा है-दुर्बल की रक्षा और सकुशल व्यस्था सेवा दो प्रकार की होती है। पहला जैसा आपको अच्छा लगता है वैसा करे, यह मार्ग आपको सिद्धियां धन दौलत और यश देगा। दूसरा सेवा मार्ग वो जोकि आपके गुरु द्वारा दिखाया गया  है। यदि आप इस मार्ग पर चलते हैं तो आपको मोक्ष प्राप्त होता है।

ध्यान रहे की चारों गुरू युगों में कलियुग सबसे भौतिकवादी है परंतु इस युग में मोक्ष प्राप्त करना सबसे आसान है। गुरु के वाक्य के अनुसार यदि आप छोटा सा सेवा और दान का कृत्य भी करते है तो उसका फल बहुरूपता में मिलता है। सनातन क्रिया का नियमित अभ्यास गुरु तत्त्व के साथ संपर्क प्रत्यास्थापित करता है और आपको गुरु द्वारा बनाए मार्ग पर चलने में सक्षम करता है।


Thursday, November 9, 2017

कालभैरव अष्टमी

अगहन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को कालभैरव अष्टमी मनाई जाती है। इस दिन भगवान काल भैरव का जन्म हुआ था। शिव पुराण के अनुसार कालभैरव को भगवान शिव का अवतार माना जाता है। कालान्तर में भैरव-उपासना की दो शाखाएं- बटुक भैरव तथा काल भैरव के रूप में प्रसिद्ध हुईं। जहां बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप में विख्यात हैं वहीं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले प्रचण्ड दंडनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए। ये भगवान शंकर के दूसरे रूप हैं। इनकी पूजा से घर में नकारत्मक ऊर्जा, जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि का भय नहीं रहता।



कोलतार से भी गहरा काला रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्राक्ष की कण्ठमाला, हाथों में लोहे का भयानक दण्ड और काले कुत्ते की सवारी - यह है महाभैरव, अर्थात् मृत्यु-भय के भारतीय देवता का बाहरी स्वरूप।

उपासना की दृष्टि से भैरव तमस देवता हैं। उनको बलि दी जाती है और जहाँ कहीं यह प्रथा समाप्त हो गयी है वहाँ भी एक साथ बड़ी संख्या में नारियल फोड़ कर इस कृत्य को एक प्रतीक के रूप में सम्पन्न किया जाता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि भैरव उग्र कापालिक सम्प्रदाय के देवता हैं और तंत्रशास्त्र में उनकी आराधना को ही प्राधान्य प्राप्त है। तंत्र साधक का मुख्य लक्ष्य भैरव भाव से अपने को आत्मसात करना होता है।

तंत्रशास्त्र में अष्ट-भैरव का उल्लेख है – असितांग-भैरव, रुद्र-भैरव, चंद्र-भैरव, क्रोध-भैरव, उन्मत्त-भैरव, कपाली-भैरव, भीषण-भैरव तथा संहार-भैरव।

कालिका पुराण में भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिवजी का एक गण बताया गया है जिसका वाहन कुत्ता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी १ . महाभैरव, २ . संहार भैरव, ३ . असितांग भैरव, ४ . रुद्र भैरव, ५ . कालभैरव, ६ . क्रोध भैरव, ७ . ताम्रचूड़ भैरव तथा ८ . चंद्रचूड़ भैरव नामक आठ पूज्य भैरवों का निर्देश है। भैरवों की संख्या ६४ है। ये ६४ भैरव भी ८ भागों में विभक्त हैं।इनकी पूजा करके मध्य में नवशक्तियों की पूजा करने का विधान बताया गया है। शिवमहापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का ही पूर्णरूप बताते हुए लिखा गया है -

भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:।
मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥

कालभैरव की पूजाप्राय: पूरे देश में होती है और अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग नामों से वह जाने-पहचाने जाते हैं। महाराष्ट्र में खण्डोबा उन्हीं का एक रूप है और खण्डोबा की पूजा-अर्चना वहाँ ग्राम-ग्राम में की जाती है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। वैसे हर जगह एक भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही उनको मान्यता मिली हुई है और उनकी अनेक प्रकार की मनौतियां भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता भी हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।

भैरव की उत्पत्ति

‘शिवपुराण’ के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अपने कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार कर रहा था, यहाँ तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा. तब उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई।

कुछ पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग कालभैरव की उपासना करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है की ,ब्रह्मा जी के पांच मुख हुआ करते थे तथा ब्रह्मा जी पांचवे वेद की भी रचना करने जा रहे थे,सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव प्रकट हुए और उन्होंने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पांचवा मुख काट दिया, इस पर भैरव को ब्रह्मा हत्या का पाप भी लगा,

कालभैरव के जन्म को लेकर पुराणों में एक बड़ी ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार एक बार सभी देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु जी से बारी-बारी से पूछा कि जगत में सबसे श्रेष्ठ कौन है तब दोनो ने अपने को श्रेष्ठ बताया और आपस में इसके लिए एक दूसरे युद्ध करने लगे। इसके बाद सभी देवताओं ने वेदशास्त्रों से पूछा तो उत्तर आया कि जिनके भीतर चराचर जगत, भूत, भविष्य और वर्तमान समाया हुआ है अनादि अंनत और अविनाशी तो भगवान रूद्र ही हैं।

वेद शास्त्रों से शिव के बारे में यह सब सुनकर ब्रह्मा ने अपने पांचवें मुख से शिव के बारे में भला-बुरा कहा। इससे वेद दुखी हुए। इसी समय एक दिव्यज्योति के रूप में भगवान रूद्र प्रकट हुए। ब्रह्मा ने कहा कि हे रूद्र तुम मेरे ही सिर से पैदा हुए हो। अधिक रुदन करने के कारण मैंने ही तुम्हारा नाम 'रूद्र' रखा है अतः तुम मेरी सेवा में आ जाओ। ब्रह्मा के इस आचरण पर शिव को भयानक क्रोध आया और उन्होंने भैरव को उत्पन्न करके कहा कि तुम ब्रह्मा पर शासन करो।  शिव ने उससे कहा कि “काल भैरव’ तुम साक्षात “काल’ के भी कालराज हो। तुम विश्व का भरण करनें में समर्थ होंगे, अतः तुम्हारा नाम “भैरव’ भी होगा। तुमसे काल भी डरेगा, इसलिए तुम्हें “काल भैरव’ भी कहा जाएगा। दुष्टात्माओं का तुम नाश करोगे, अतः तुम्हें “आमर्दक’ नाम से भी लोग जानेंगे। हमारे और अपने भक्तों के पापों का तुम तत्क्षण भक्षण करोगे, फलतः तुम्हारा एक नाम “पापभक्षण’ भी होगा।


उस दिव्य शक्ति संपन्न भैरव ने अपने बाएं हाथ की सबसे छोटी अंगुली के नाखून से शिव के प्रति अपमान जनक शब्द कहने वाले ब्रह्मा के पांचवे सर को ही काट दिया। इस पर भगवान शंकर ने अपनी दूसरी मूर्ति भैरव से कहा कि तुम ब्रह्मा के इस कपाल को धारण करो। तुम्हें अब ब्रह्म- हत्या लगी है। इसके निवारण हेतु “कापालिक’ व्रत ग्रहण कर लोगों को शिक्षा देने के लिए सर्वत्र भिक्षा माँगो और कापालिक वेश में भ्रमण करो। ब्रह्मा के उस कपाल को अपने हाथों में लेकर कपर्दी भैरव चले और हत्या उनके पीछे चली। हत्या लगते ही भैरव काले पड़ गये। तीनो लोक में भ्रमण करते हुए वह काशी आये। श्री भैरव काशी की सीमा के भीतर चले आये, परंतु उनके पीछे आने वाली हत्या वहीं सीमा पर रुक गयी। वह प्रवेश नहीं कर सकी। फलतः वहीं पर वह धरती में चिग्घाड़ मारते हुए समा गयी। हत्या के पृथ्वी में धंसते ही भैरव के हाथ में ब्रह्मा का मस्तक गिर पड़ा। ब्रह्म- हत्या से पिण्ड छूटा, इस प्रसन्नता में भैरव नाचने लगे। बाद में ब्रह्म कपाल ही कपाल मोचन तीर्थ नाम से विख्यात हुआ और वहाँ पर कपर्दी भैरव, कपाल भैरव नाम से (लाट भैरव) अब काशी में विख्यात हैं। यहाँ पर श्री काल भैरव काशीवासियों के पापों का भक्षण करते हैं। कपाल भैरव का सेवक पापों से भय नहीं खाता।

भगवान शंकर ने कहा कि हे कालराज ! हमारी सबसे बड़ी मुक्ति पुरी “काशी’ में तुम्हारा आधिपत्य रहेगा। वहाँ के पापियों को तुम्हीं दण्ड दोगे, क्योंकि “चित्रगुप्त’ काशीवासियों के पापों का लेखा- जोखा नहीं रख सकेंगे। वह सब तुम्हें ही रखना होगा।

शिव के कहने पर भैरव काशी प्रस्थान किये जहां ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली। रूद्र ने इन्हें काशी का कोतवाल नियुक्त किया। आज भी ये काशी के कोतवाल के रूप में पूजे जाते हैं। इनका दर्शन किये वगैर विश्वनाथ का दर्शन अधूरा रहता है।

काशीवासी भैरव के सेवक होने के कारण कलि और काल से नहीं डरते। भैरव के समीप अगहन बदी अष्टमी को उपवास करते हुए रात्रि में जागरण करने वाला मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है। भैरव के सेवकों से यमराज भय खाते हैं। काशी में भैरव का दर्शन करने से सभी अशुभ कर्म भ हो जाते हैं। सभी जीवों के जन्मांतरों के पापों का नाश हो जाता है। अगहन की अष्टमी को विधिपूर्वक पूजन करने वालों के पापों का नाश श्री भैरव करते हैं। मंगलवार या रविवार को जब अष्टमी या चतुर्दशी तिथि पड़े, तो काशी में भैरव की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। इस यात्रा के करने से जीव समस्त पापो से मुक्त हो जाता है। जो मूर्ख काशी में भैरव के भक्तों को कष्ट देते हैं, उन्हें दुर्गति भोगनी पड़ती है। जो मनुष्य श्री विश्वेश्वर की भक्ति करता है तथा भैरव की भक्ति नहीं करता, उसे पग- पग पर कष्ट भोगना पड़ता है। पापभक्षण भैरव की प्रतिदिन आठ प्रदक्षिणा करनी चाहिए। आमर्दक पीठ पर छः मास तक जो लोग अपने इष्ट देव का जप करते हैं, वे समस्त वाचिक, मानसिक एवं कायिक पापों में लिप्त नहीं होते। काशी में वास करते हुए, जो भैरव की सेवा, पूजा या भजन नहीं करे, उनका पतन होता है।
श्री भैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है। तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।

प्रसिद्ध मंदिर

भारत में भैरव के प्रसिद्ध मंदिर हैं जिनमें काशी का काल भैरव मंदिर सर्वप्रमुख माना जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भैरव मंदिर कोई डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दूसरा नई दिल्ली के विनय मार्ग पर नेहरू पार्क में बटुक भैरव का पांडवकालीन मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। तीसरा उज्जैन के काल भैरव की प्रसिद्धि का कारण भी ऐतिहासिक और तांत्रिक है। नैनीताल के समीप घोड़ाखाल का बटुकभैरव मंदिर भी अत्यंत प्रसिद्ध है। यहाँ गोलू देवता के नाम से भैरव की प्रसिद्धि है। इसके अलावा शक्तिपीठों और उपपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है। जयगढ़ के प्रसिद्ध किले में काल-भैरव का बड़ा प्राचीन मंदिर है जिसमें भूतपूर्व महाराजा जयपुर के ट्रस्ट की और से दैनिक पूजा-अर्चना के लिए पारंपरिक-पुजारी नियुक्त हैं। मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के ग्राम अदेगाव में भी श्री काल भैरव का मंदिर है जो किले के अंदर है जिसे गढ़ी ऊपर के नाम से जाना जाता है।

कहते हैं औरंगजेब के शासन काल में जब काशी के भारत-विख्यात विश्वनाथ मंदिर का ध्वंस किया गया, तब भी कालभैरव का मंदिर पूरी तरह अछूता बना रहा था। जनश्रुतियों के अनुसार कालभैरव का मंदिर तोड़ने के लिये जब औरंगज़ेब के सैनिक वहाँ पहुँचे तो अचानक पागल कुत्तों का एक पूरा समूह कहीं से निकल पड़ा था। उन कुत्तों ने जिन सैनिकों को काटा वे तुरंत पागल हो गये और फिर स्वयं अपने ही साथियों को उन्होंने काटना शुरू कर दिया। बादशाह को भी अपनी जान बचा कर भागने के लिये विवश हो जाना पड़ा। उसने अपने अंगरक्षकों द्वारा अपने ही सैनिक सिर्फ इसलिये मरवा दिये किं पागल होते सैनिकों का सिलसिला कहीं खु़द उसके पास तक न पहुँच जाए।

उपासना 

भैरवाष्टमी या कालाष्टमी के दिन पूजा उपासना द्वारा सभी शत्रुओं और पापी शक्तियों का नाश होता है और सभी प्रकार के पाप, ताप एवं कष्ट दूर हो जाते हैं. भैरवाष्टमी के दिन व्रत एवं षोड्षोपचार पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायक माना जाता है. इस दिन श्री कालभैरव जी का दर्शन-पूजन शुभ फल देने वाला होता है.

भैरव जी की पूजा उपासना मनोवांछित फल देने वाली होती है. यह दिन साधक भैरव जी की पूजा अर्चना करके तंत्र-मंत्र की विद्याओं को पाने में समर्थ होता है. यही सृष्टि की रचना, पालन और संहारक हैं. इनका आश्रय प्राप्त करके भक्त निर्भय हो जाता है तथा सभी कष्टों से मुक्त रहता है.

पूजन 

भगवान शिव के इस रुप की उपासना षोड्षोपचार पूजन सहित करनी चाहिए. रात्री समय जागरण करना चाहिए व इनके मंत्रों का जाप करते रहना चाहिए. भजन कीर्तन करते हुए भैरव कथा व आरती की जाती है. इनकी प्रसन्नता हेतु इस दिन काले कुत्ते को भोजन कराना शुभ माना जाता है. मान्यता अनुसार इस दिन भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं, भूत, पिशाच एवं काल भी दूर रहता है.

भैरव उपासना क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त करती है. भैरव देव जी के राजस, तामस एवं सात्विक तीनों प्रकार के साधना तंत्र प्राप्त होते हैं. भैरव साधना स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन और सम्मोहन जैसी तांत्रिक क्रियाओं के दुष्प्रभाव को नष्ट करने के लिए कि जाती है. इनकी साधना करने से सभी प्रकार की तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव नष्ट हो जाते हैं.

साधना महत्व

इन्हीं से भय का नाश होता है और इन्हीं में त्रिशक्ति समाहित हैं. हिंदू देवताओं में भैरव जी का बहुत ही महत्व है यह दिशाओं के रकक्षक और काशी के संरक्षक कहे जाते हैं. कहते हैं कि भगवान शिव से ही भैरव जी की उत्पत्ति हुई. यह कई रुपों में विराजमान हैं बटुक भैरव और काल भैरव यही हैं. इन्हें रुद्र, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहारक भी कहा जाता है. भैरव को भैरवनाथ भी कहा जाता है और नाथ सम्प्रदाय में इनकी पूजा का विशेष महत्व रहा है.

भैरव आराधना से शत्रु से मुक्ति, संकट, कोर्ट-कचहरी के मुकदमों में विजय प्राप्त होती है, व्यक्ति में साहस का संचार होता है. इनकी आराधना से ही शनि का प्रकोप शांत होता है, रविवार और मंगलवार के दिन इनकी पूजा बहुत फलदायी है. भैरव साधना और आराधना से पूर्व अनैतिक कृत्य आदि से दूर रहना चाहिए पवित्र होकर ही सात्विक आराधना की जाती है तभी फलदायक होती है. भैरव तंत्र में भैरव पद या भैरवी पद प्राप्त करने के लिए भगवान शिव ने देवी के समक्ष अनेक विधियों का उल्लेख किया जिनके माध्यम से उक्त अवस्था को प्राप्त हुआ जा सकता है.

भैरव जी शिव और दुर्गा के भक्त हैं व इनका चरित्र बहुत ही सौम्य, सात्विक और साहसिक माना गया है न की डर उत्पन्न करने वाला इनका कार्य है सुरक्षा करना और कमजोरों को साहस देना व समाज को सही मार्ग देना. काशी में स्थित भैरव मंदिर सर्वश्रेष्ठ स्थान पाता है. इसके अलावा शक्तिपीठों के पास स्थित भैरव मंदिरों का महत्व माना गया है माना जाता है कि इन्हें स्वयं भगवान शिव ने स्थापित किया था.

उनकी प्रिय वस्तुओं में काले तिल, उड़द, नींबू, नारियल, अकौआ के पुष्प, कड़वा तेल, सुगंधित धूप, पुए, मदिरा, कड़वे तेल से बने पकवान दान किए जा सकते हैं। इस दिन भैरवजी के वाहन श्वान को गुड़ खिलाने का विशेष महत्व है।

इस मंत्र का करें जाप

अतिक्रूर महाकाय कल्पान्त दहनोपम्,
भैरव नमस्तुभ्यं अनुज्ञा दातुमर्हसि!!

Tuesday, November 7, 2017

रसखान

रसखान अर्थात रस की खान उसमें कवि हृदय भगवतभक्त और कृष्णमार्गी व्यक्तित्व का नाम था जिसने यशोदानन्दन श्रीकृष्ण की भक्ति में अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दिया था | भक्त शिरोमणि रसखान का कनम विक्रमी संवत 1635 (सन 1578) में हुआ था | इनका परिवार भी भगवतभक्त था | पठान कुल में जन्मे रसखान को माता पिता के स्नेह के साथ साथ सुख ऐश्वर्य भी मिले | घर में कोई अभाव नही था |




चूँकि परिवार भर में भगवत भक्ति के संस्कार थे ,इस कारण रसखान को भी बचपन में धार्मिक जिज्ञासा विरासत में मिली थी | बृज के ठाकुर नटवरनागर नन्द किशोर भगवान कृष्ण पर इनकी अगाध श्रुदा थी | एक बार कही भगवतकथा का आयोजन हो रहा था |व्यास गद्दी पर बैठे कथा वाचक बड़ी ही सुबोध और सरल भाषा में महिमामय भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओ का सुंदर वर्णन कर रहे थे | उनके समीप ही बृजराज श्याम सुंदर का मनोहारी चित्र रखा था |

रसखान भी उस समय कथा श्रवण करने पहुचे | ज्यो ही उनकी दृष्टि व्यास गद्दी के समीप रखे कृष्ण कन्हैया के चित्र पर पड़ी | वह जैसे स्तभित रह गये | उनके नेत्र भगवान के रूप में माधुर्य को निहारते गये जैसे चुम्बक लोहे को अपनी तरफ खींचता है |उसी प्रकार रसखान का हृदय मनमोहन की मोहिनी सुरत की तरफ खींचा जा रहा था | कथा की समाप्ति पर रसखान एकटक उन्हें ही देखते रहे |

जब सब लोग चले गये तो व्यासजी ने उनकी तरफ देखा और जब उनकी अपलक दृष्टि का केंद्र देखा तो व्यास महाराज मुस्कुराने लगे | वह उठकर रसखान के पास आये |

“वत्स ! क्या देख रहे हो ?” उन्होंने सप्रेम पूछा |

रसखान ने प्रश्न पूछा  “पंडित जी ,सामने रखा चित्र भगवान श्रीकृष्ण का ही है न ”

व्यासजी ने कहा “हाँ ! यही उन्ही नटवर नागर का चित्र है ”

रसखान गदगद कंठ से बोले | “कितना सुंदर चित्र है | क्या कोई इतना दर्शनीय और मनभावन भी हो सकता है ?”

व्यासजी ने कहा “जिसने इतनी दर्शनीय सृष्टि का निर्माण कर दिया वह दर्शनीय और मनभावन तो होगा ही ”

अब रसखान ने कहा “पंडित जी , यह मनमोहिनी सुरत मेरे हृदय में बस गयी है | यह साक्षात इस अद्भुद मुखमंडल के दर्शन करने का अभिलाषी हु | क्या आप मुझे उनका पता बता सकते हो ?”

व्यासजी ने कहा “वत्स ब्रज के नायक तप ब्रज में ही मिलेंगे न ”

रसखान जी ने कहा “फिर तो मै ब्रज को ही जाता हु ”

जिसके हृदय में भाव जागृत हुए और प्रभु से मिलने की उत्कंठा तीव्र हो जाए ,उसे संसार में कुछ ओर दिखाई नही पड़ता है | रसखान भी ब्रज की तरफ चल पड़े और वृन्दावन धाम में जाकर ही निवास किया | ब्रज की रज से स्पर्श होते ही मलिनता नष्ट हो जाती है |

भगवती कलिन्दी के पवन जल की पवित्र शीतलता के स्पर्श से ही रसखान के भावपूर्ण हृदय में प्रेमोवेग से कम्पन्न होने लगा | वृन्दावन के कण कण से गूंजती कृष्णनाम की सुरीली धुन ने उन्हें भाव विभोर कर दिया | धामों में धाम परमधाम वृन्दावन जैसे स्वर्ग की अनुभूति करा रहा था | रसखान ने इस दिव्यधाम की अनुभूति को अपने पद में ऐसे व्यक्त किया

या लकुटीअरु कमरिया पर राज तिहु पुर कौ तजि डारो |
आठहु सिद्दी नवो निधि कौ सुख नन्द की गाय चराय बिसारो |
रसखान सदा इन नयनहि सौ बृज के वन तडाग निहारौ |
कोनही कलधौत के धाम करील को कुंजन उपर वरौ |

फिर रसखान के हृदय में गिरधारी के गिरी गोवर्धन को देखने की इच्छा हुयी तो यह गोवर्धन जा पहुचे | वहा श्रीनाथ जी के दर्शनों के लिए मन्दिर में घुसने लगे |

“अरे-रे …रे…रे … कहा घुसे जा रहे हो ?” द्वारपाल ने टोक दिया “तुम्हारी वेशभूषा तो दुसरी है तुम मन्दिर में नही जा सकते हो ”

“यह कैसा प्रतिबंध !  वेशभूषा से भक्ति का क्या संबध ?”

“मै कुछ नही सुनना चाहता | मै तुम्हे अंदर नही घुसने दूंगा  ”

“भाई मै भी इन्सान ही हु | तुम्हारे ही तरह मैंने भी एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है |तुम्हारी ही तरह ईश्वर ने मुझे भी भजन सुमरिन और दर्शन का अधिकार दिया है फिर तुम मुझे प्रभु के दर्शनों से क्यों वंचित रखना चाहते हो ?”

“अपने ये तर्क किसी ओर को सुनाना | मै विधर्मी को मन्दिर में नही घुसने दे सकता हु मै इसलिए तैनात हु ”

“परन्तु  | ”

“तुम इस प्रकार नही मानोगे ” द्वारपाल ने गुस्से से रसखान को सीढियों से धक्का दे दिया |रसखान उस व्यवहार पर व्यथित तो हुए और उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि ब्रज में ऐसी मतिबुद्धि वाले इन्सान भी रहते है परन्तु उन्हें श्याम सखा पर उन्हें विश्वास था |रसखान ने अपने को पुरी तरह से अपने कृष्ण सखा के हवाले करके अन्न जल त्याग दिया

देस बिदेस के देख नरेसन ,रीझी की कोऊ न बुझ करैगो |
ताते तिन्हे तजजि जान गिरयो ,गुन सौ गुन औगुन गंठी परैगो |
बांसुरी वारों बडो रिसवार है श्याम जो नैकु सुटार ठरैगो |
लाडिलो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये हरैगो |

भगवान भी कब  अपने भक्त की हृदय वेदना से अनभिज्ञ थे | भक्त की विकलता तो भगवान को भी विकल कर देती है |प्राण वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त की विरलता का आभास किया और भक्त की सारी पीड़ा हर ली | हरि का तो यही कार्य होता है | भक्त के समक्ष साक्षात प्रकट होकर भगवान ने द्वारपाल के दुर्व्यवहार की क्षमा माँगी | फिर रसखान को गौसाई विट्ठलनाथ जी के पास जाने का आदेश दिया |

रसखान प्रभु का आदेश पाकर गोसाई जी के पास पहुचे  और उन्होंने उन्हें गोविदकुंड में स्नान कराकर दीक्षित किया | फिर तो जैसे रसखान के अंदर भक्ति काव्य के स्त्रोत फुट पड़े | आजीवन भगवान कृष्ण की लीला को काव्य के रूप में वर्णन करते हुए ब्रज रहे | केवल भगवान ही उनके सखा था ,संबधी थे ,मित्र थे | अन्य कोई चाह नही थी | कोई लालसा नही थी | परन्तु एक इच्छा जो उनके पदों में स्पस्ट झलकती है कि वह जन्म जन्मान्तर ब्रज की भूमि पर ही जन्म लेने की थी |

मानुष हो तो वही “रसखान ” बसों बृज गोकुल गाँव के गवारन
जो पसु हो तो कहा बस मेरो चरो नितनदं की धेनु मंझारण |
पाहन हौ तो वही गिरी को जो धरयो कर छत्र पुरन्दर कारन |
जो खग हो तो बसेरो करो नित कालिंदी फुल कदम्ब की डारन |




भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम "रसखान" का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् १५३३ से १५५८ के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् १५९० ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल १५५६-१६०५ है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है। मृत्यु के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है ।

सखान कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की खान' कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|

रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों इनका जन्म संवत् 1615 ई. माना है और कुछ ने 1630 ई. माना है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली श्मशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।

रसखान का जन्म संवत् 1590 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1590 ई. में हुआ था।

रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।

रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।
सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।

प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

यह उनकी इच्छा थी कि उन्हें किसी भी योनी में जन्म मिले पर जन्म भूमि ब्रज ही हो | उच्च कोटि के काव्य और भक्ति के धनी रसखान ने प्रभु स्मरण करते हुए 45 वर्ष की आयु में निजधाम की यात्रा की ,जिनके दर्शनों के लिए कितने ही योगी सिध्पुरुष तरसा करते है | उन्ही भगवान श्रीकृष्ण भक्तवत्सल भगवान ने अपने हाथो से अपने इस भक्त की अंत्येष्टि कर भक्त की कीर्ति को बढाया | प्रेमपाश में बंधे भगवान की कृपा और दर्शन का परम सौभाग्य विरलों को ही मिलता है और रसखान भी उन्ही में से थे |

Sunday, November 5, 2017

मंगल और शनि में बना दृष्टिसंबंध

मंगल 13 अक्टूबर 2017 को कन्या राशि में आया है, यहां यह 30 नवंबर 2017 तक रहेगा, वहीं 26 अक्टूबर को शनि भी धनु राशि में आया है। इस प्रकार कन्या और धनु में होने के कारण ये दोनों ग्रह आमने-सामने आ गये हैं जिसे ‘दृष्टिसंबंध’ कहा जाता है और इससे कई प्रकार के नकारात्मक योग बनते हैं।



मंगल को ‘अग्नि ग्रह’ कहा जाता है जो स्वभाव में बेहद हिंसक है तथा शनि एक क्रूर ग्रह है जिसे तेल पसंद है। इस प्रकार भी देखें तो जब भी आग और तेल मिलेंगे, उससे विध्वंस ही होगा। इसलिए इन दोनों ग्रहों में किसी भी प्रकार का अंतर्संबंध बनना ना सिर्फ व्यक्तिगत जीवन में उत्पात मचाता है, बल्कि देश-दुनिया में भी हिंसक तथा उत्पाती घटनानों में वृद्धि होती है।

शनि-मंगल में बना यह दृष्टिसंबंध राष्ट्रीय तथा अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध, आतंकी घटनाएं बढ़ाएगा तथा प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन सकता है। आगे हम आपको बता रहे हैं कि राशि अनुसार इसका आप पर क्या असर होगा।

मेष

मंगल इस दौरान आपकी राशि से लग्नेश में होकर छ्ठे तथा शनि दशमेश और लाभेश में जाकर नवम भाव में है। मंगल का इस प्रकार छ्ठे भाव में होना किसी भी प्रकार से शुभ नहीं कहा जा सकता, यह रोग तथा दुर्घटनाओं का होता है। इसलिए इस दौरान यात्रा करने से बचें, इसके अलावा खानपान तथा स्वास्थ्य का भी खास खयाल रखें।

वृष

मंगल आपकी राशि से द्वादश तथा सप्तमेश भाव में होगा जो मारक होता है, जबकि शनि इस पूरी अवधि में 8वें भाव में होगा। आपके लिए यह स्थिति अधिक हानिकारक होगी। आचानक कोई विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है। व्यापार में नुकसान हो सकता है तथा गुप्त शत्रु भी परेशान करेंगे। यात्रा में दुर्घटना के योग भी बन सकते हैं। इसलिए इन चीजों के लिए विशेष सावधान रहें।

मिथुन

शनि आपकी राशि से सप्तम तथा मंगल चतुर्थ भाव में होगा। चौथा घर भूमि तथा वाहन का होता है। मंगल और शनि में आग और तेल का यह मेल आपके लिए भूमि तथा वाहन आदि को लेकर कोई अप्रिय स्थिति पैदा कर सकती है। प्रॉपर्टी संबंधी विवाद में उलझ सकते हैं या वाहन दुर्घटना का शिकार भी हो सकते हैं।

कर्क

मंगल आपकी राशि से तृतीय तथा शनि छ्ठे भाव में होंगे। छ्ठा भाव रोग तथा दुर्घटनाओं का होने के कारण यह आपके लिए भी बहुत शुभ तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कुछ मामलों में यह आपके लिए लाभकारी भी हो सकता है। पर सेहत का खास ध्यान रखें, शत्रुओं से परेशानी भी हो सकती है।

सिंह

आपके द्वितीय भाव में मंगल होगा जो मारक योग बनाता है। इसके अलावा पंचम भाव में शनि के होने से यह आपको धन तथा संतान पक्ष से कष्ट या हानि हो सकती है। अत: इन दो बातों के लिए विशेष सावधान रहें, किसी से भी अनावश्यक विवाद करने से बचें।

कन्या

मंगल इस दौरान आपके लग्न भाव तथा शनि चतुर्थ भाव में होंगे। यह योग आपको को गंभीर स्वास्थ्य परेशानी दे सकता तथा प्रतिष्ठा में कमी हो सकती है। चतुर्थ भाव भूमि तथा वाहन का होने के कारण वाहन चलाने में भी सावधानी बरतें, दुर्घटना हो सकती है।

तुला

मंगल द्वादश तथा शनि तृतीय भाव में होने के कारण आपके खर्च बढ़ेंगे तथा छोटे भाई-बहनों से बड़ा मनमुटाव हो सकता है। मान-प्रतिष्ठा तथा सामजिक सम्मान में भी कमी आ सकती है।

वृश्चिक

मंगल का आपकी राशि से लग्नेश तथा शनि का द्वितीय भाव में होने से आपके लिए अनुकूल स्थिति ही बनेगी। धन संबंधी मामलों में यह समय आपके लिए विशेष शुभ होगा।, लेकिन स्वास्थ्य के लिए सावधान रहें।

धनु

शनि द्वितीयेश एवं तृतीयेश तथा मंगल का आपकी राशि से दशम भाव में होना आपको कार्यक्षेत्र तथा व्यापार में नुकसान पहंचाएगा। आर्थिक नुकोसान की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए कार्यक्षेत्र या कॅरियर से जुड़ा हर फैसला सोच-समझकर लें।

मकर

शनि इस दौरान आपकी राशि से लग्नेश होकर द्वादश भाव में जा रहा है तथा मंगल लाभेश होकर नवम भाव में होगा। यह योग आपके लिए लंबी दूरी की यात्रा के योग बना सकता है। खर्च बढ़ेंगे तथा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हो सकती हैं।

कुंभ

शनि लाभ स्थान तथा मंगल का अष्ठम भाव में होने से आपको पुराने रोग परेशान कर सकते हैं। आर्थिक नुकसान भी हो सकता है। कार्यक्षेत्र तथा व्यापार-व्यवसाय में अनावश्य बाधा आएगी तथा भूमि विवाद भी उत्पन्न होंगे। 

Saturday, November 4, 2017

कार्तिक पूर्णिमा के कुछ खास उपाय

चातुर्मास की समाप्ति के बाद कार्तिक मास की इस पूर्णिमा का बहुत महत्व है। पूर्णिमा के दिन किया गया दान-पुण्य अक्षय फलों की प्राप्ति कराता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन ब्राह्मण के साथ ही अपनी बहन, बहन के लड़के, यानी भानजे, बुआ के बेटे,मामा को भी दान स्वरूप कुछ न कुछ जरूर देना चाहिए। इन सबको इस दिन दान देने से धन-सम्पदा में हमेशा बरकत ही बरकत होती है। दान के साथ ही आज के दिन पुष्कर में स्नान का भी बहुत महत्व है। आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु वहां स्नान के लिये जाते हैं। कहते हैं पुष्कर में स्नान से किये गये कार्यों का जल्द ही शुभ फल मिलता है।



कार्तिक पूर्णिमा के दिन कुछ खास उपायों को करने से धन-दौलत समेत सुख-समृद्धि पा सकते हैं। इन उपायों को करके आपकी तिजोरियां हमेशा भरी रहेंगी। धन की गति कभी नहीं रूकेगी, आपके घर की स्त्री का सम्मान बढ़ेगा, दाम्पत्य संबंधों में मधुरता आय़ेगी और भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति होगी।

इस दिन पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा ठीक 180 डिग्री के अंश पर होता है। इसलिए पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा से जो किरणें निकलती हैं, वे काफी इफेक्टिव होती हैं और इनका सीधा असर दिमाग पर पड़ता है। चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक है, इसलिए चन्द्रमा का सबसे ज्यादा प्रभाव पृथ्वी पर ही पड़ता है। जानिए इस दिन कौन से उपाय करना चाहिए।

आज के दिन जब चन्द्रमा आकाश में उदित हो रहा हो, तो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी के आशीर्वाद से प्रसन्नता मिलती है।



इसके अलावा आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुबह स्नान के बाद घर के मुख्यद्वार पर अपने हाथों से आम के पत्तों का तोरण बनाकर बांधे। इससे घर में आने वाली परेशानी और निगेटिव एनर्जी घर के बाहर तक आकर ही रह जायेगी, अन्दर प्रवेश नहीं कर पायेगी।

सुबह के समय आम का तोरण बांधने के बाद हल्दी से घर के मुख्य दरवाज़े पर 'ऊं' का चिन्ह बनाना भी शुभ संकेत लाने वाला सिद्ध होगा।

दाम्पत्य जीवन में मधुरता यूं ही बनी रहे और कभी कोई परेशानी न आये, इसके लिये आज रात को चन्द्रमा के उगने पर दोनों पति-पत्नी एक-साथ मिलकर चन्द्रमा को दूध में मीठा डालकर अर्घ्य दें।

कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन शाम के समय तुलसी के पौधे में घी का दीपक जलाना चाहिए। इससे घर की समृद्धि बनी रहेगी और घर में रहने वाले लोगों का इम्यून सिस्टम बेहतर होगा।

इस दिन ग्रहस्थ व्यक्ति को तिल व आंवले का चूर्ण बनाकर, उसका लेप शरीर पर लगाकर स्नान करना चाहिए। ऐसा करने से बीमारियों से छुटकारा मिलता है और शरीर हष्ट-पुष्ट बना रहता है। वहीं जो लोग ग्रहस्थ नहीं हैं, उन्हें तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मिट्टी को लगाकर स्नान करना चाहिए और स्नान के समय भगवान विष्णु का नाम जपना चाहिए।



कार्तिक पूर्णिमा के दिन जो व्यक्ति पूरे दिन व्रत रखकर गाय के बछड़े का दान करता है, उसका समाज में कद और दायरा बढ़ता है। जबकि आज के दिन गाय, हाथी, घोड़ा, रथ या घी का दान करने से नौकरी में अच्छा पद मिलता है।

पूर्णिमा के दिन सुबह के समय व्रती अगर मीठे जल में दूध मिलाकर पीपल के पेड़ पर चढ़ाएं, तो उस पर मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं, लिहाजा उसे अपार धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।

आपके जीवन में धन की गति कभी न रूके, इसके लिये आज रात को चन्द्रमा के उदय होने के बाद दूध चावल की खीर में मिश्री व गंगा जल डालकर मां लक्ष्मी को भोग लगाने के बाद सबमें प्रसाद के रूप में वितरित कर दें।

आपके घर और दुकान की तिजोरियां हमेशा भरी रहें, इसके लिये 11 कौड़ियां लेकर, उन पर हल्दी से तिलक करके आज के दिन मां लक्ष्मी को चढ़ाएं और अगले दिन सुबह इन कौड़ियों को लाल कपड़े में बांधकर अपनी तिजोरी में रख लें। इस उपाय से आपको धन की कोई भी कमी नहीं होगी। एक बात पर और ध्यान दें कि आज से प्रत्येक पूर्णिमा के दिन इन कौड़ियों को अपनी तिजोरी से निकाल कर माता के सम्मुख रखकर उन पर पुन: हल्दी से तिलक करें और फिर से अगले दिन उन्हें लाल कपड़े में बांध कर अपनी तिजोरी में रख लें। ऐसा करने से आपको और भी अच्छे फलों की प्राप्ति होगी।




आपके घर की लक्ष्मी, यानी घर की स्त्री का सम्मान हमेशा बना रहे और घर-परिवार में उसकी वाहवाही होती रहे, इसके लिये आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन मां लक्ष्मी को इत्र और सुगन्धित अगरबत्ती अर्पण करनी चाहिए। चढ़ाते वक्त इत्र की शीशी को खोलकर थोड़ा-सा इत्र देवी के वस्त्र पर छिड़क दें और उसके बाद कुछ अपने ऊपर छिड़क लें। आपका ऐश्वर्य सदा बना रहेगा।

मां लक्ष्मी के अलावा आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव से जुड़े उपाय करना भी श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए ये उपाय करें..

इस दिन सवा किलो साबुत चावल खरीदें और शिव जी के मन्दिर में जाकर उनकी विधिवत पूजा करने के बाद उन चावलों में से आपके दोनों हाथों में जितने चावल आयें, लेकर शिवलिंग पर चढ़ा दें और बाकी बचे हुए चावलों को जरूरतमंदों में दान कर दें। ऐसा करने से आपको हर कार्य में सफलता मिलेगी और आपकी हर जगह जीत होगी।

अगर आपके पास भौतिक सुख-साधनों की कमी है तो हर तरह के सुखों की प्राप्ति के लिये  आज के दिन शिवलिंग पर शहद, कच्चा दूध, बेलपत्र या शमीपत्र और कुछ फल चढ़ाने चाहिए।

इस पूर्णिमा के दिन अगर सफेद चंदन को घिसकर, उसमें केसर मिलाकर भगवान शंकर को अर्पित किया जाये तो घर के कलह से छुटकारा मिलता है और पारिवारिक शांति बनी रहती है।

Thursday, November 2, 2017

कार्तिक पूर्णिमा

प्रत्येक वर्ष 12 पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १3 हो जाती है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है। इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है।



कार्तिक पूर्णिमा के दिन से ही गंगा स्नान शुरु हो जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में श्री कृष्ण ने श्री राधा का पूजन किया था। हमारे तथा अन्य सभी ब्रह्मांडों से परे जो सर्वोच्च गोलोक है वहां इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को राधिका जी की शुभ प्रतिमा का दर्शन और वन्दन करके मनुष्य जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। इस दिन बैकुण्ठ के स्वामी श्री हरि को तुलसी पत्र अर्पण करते हैं। कार्तिक मास में विशेषतः श्री राधा और श्री कृष्ण का पूजन करना चाहिए। जो कार्तिक में तुलसी वृक्ष के नीचे श्री राधा और श्री कृष्ण की मूर्ति का पूजन (निष्काम भाव से) करते हैं उन्हें जीवनमुक्त समझना चाहिए। तुलसी के अभाव में आंवलें के नीचे पूजन करनी चाहिए। कार्तिक मास में पराये अन्न, गाजर, दाल, चावल, मूली, बैंगन, घीया, तेल लगाना, तेल खाना, मदिरा, कांजी का त्याग करें। कार्तिक मास में अन्न का दान अवश्य करें। कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है। इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।



कार्तिक पूर्णिमा के दिन कुछ लोग अपने घरों में हवन, यज्ञ करते हैं तो वहीं कुछ लोग गंगा स्नान के लिए जाते हैं. ऐसा कहा जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान का फल दोगुना हो जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान की पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा की इसलिए कहते है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन शिव मंदिरों में एकादशी रूद्र अभिषेकम किया जाता है। इस अनुष्ठान में शिव के लिंग को नेह्लाया जाता है और इस दौरान रूद्र चमाकम और रूद्र नामाकम का 11 बार उच्चारण किया जाता है।


सिख सम्प्रदाय में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इस दिन उनके संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन को गुरु पर्व भी कहा जाता है। इसी प्रकार कहते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा को बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का प्रकट हुई थीं और कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी ने पृथ्वी पर जन्म ग्रहण किया था। इसी दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था।



शिव पार्वती के ज्‍येष्‍ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय के संबंध में भी एक कथा है जो इस दिन उनकी पूजा के महत्‍व का वर्णन करती है। कहते हैं कि जब प्रथम पूज्‍य होने की प्रतियोगिता में उनके छोटे भाई श्री गणेश को विजयी घोषित कर दिया गया तो कार्तिकेय काफी नाराज हो गए और साधना करने बन चले गए। जब शिव और पार्वती उन्‍हें मनाने गए तो उन्‍होंने क्रोध में शाप दिया कि यदि कोई स्‍त्री उनके दर्शन करने आयेगी तो तो वो सात जन्‍म तक वैध्‍व्‍य भोगेगी और यदि किसी पुरुष ने ऐसा करने का प्रयास किया तो वो मृत्‍यु के बाद नरक जायेगा। बाद में किसी तरह महादेव और देवी ने उनका क्रोध शांत किया और उनसे कहा कि कोई एक दिन तो उनके दर्शन के लिए होना चाहिए, तब कार्तिकेय ने कहा कार्तिक पूर्णिमा पर उनका दर्शन महा फलदायी होगा। इसीलिए साल में एक ही बार वो अब दर्शन देते हैं। इसी वजह से उनका एक ही मंदिर है जो ग्‍वालियर में है। 400 साल पुराने कहे जाने वाले इस मंदिर के पट वर्ष में एक बार कार्तिक पूर्णिमा की रात को खोला जाता है और प्रातकाल स्‍नान पूजा के बाद एक साल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।   



महाभारत काल में हुए १८ दिनों के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों को देखकर जब युधिष्ठिर कुछ विचलित हुए तो भगवान श्री कृष्ण पांडवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान पर आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पांडवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद रात में दिवंगत आत्माओं की शांति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इसलिए इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रूप से गढ़मुक्तेश्वर तीर्थ नगरी में आकर स्नान करने का विशेष महत्व है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य है, क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।



इस दिन चंद्रोदय पर शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का अवश्य पूजन करना चाहिए। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में व्रत करके वृष (बैल) दान करने से शिव पद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ, घी आदि का दान करने से सम्पत्ति बढ़ती है। इस दिन उपवास करके भगवान का स्मरण, चिंतन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है तथा सूर्यलोक की प्राप्ति होती है। इस दिन मेष (भेड़) दान करने से ग्रहयोग के कष्टों का नाश होता है। इस दिन कन्यादान से 'संतान व्रत' पूर्ण होता है। कार्तिकी पूर्णिमा से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस दिन कार्तिक के व्रत धारण करने वालों को ब्राह्मण भोजन, हवन तथा दीपक जलाने का भी विधान है। इस दिन यमुना जी पर कार्तिक स्नान की समाप्ति करके राधा-कृष्ण का पूजन, दीपदान, शय्यादि का दान तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा वर्ष की पवित्र पूर्णमासियों में से एक है।



कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है।

शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि पर व्यक्ति को बिना स्नान किए नहीं रहना चाहिए। 



महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।

इस दिन की पूजा विधि

1. आप प्रातः काल शीघ्र उठकर सूर्य देव को जल अर्पित करें. जल में चावल और लाल फूल भी डालें.
2. सुबह स्नान के बाद घर के मुख्यद्वार पर अपने हाथों से आम के पत्तों का तोरण बनाकर बांधे.
3. सरसों का तेल, तिल, काले वस्त्र आदि किसी जरूरतमंद को दान करें.
4. सायं काल में तुलसी के पास दीपक जलाएं और उनकी परिक्रमा करें.
5. इस दिन ब्राह्मण के साथ ही अपनी बहन, बहन के लड़के, यानी भान्जे, बुआ के बेटे, मामा को भी दान स्वरूप कुछ देना चाहिए.
6. जब चंद्रोदय हो रहा हो, तो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी का आशीर्वाद मिलता है.

Wednesday, November 1, 2017

Vaikuntha Chaturdashi

Vaikuntha Chaturdashi  is observed on chaturdashi, the 14th lunar day of the waxing moon fortnight (shukla paksha) of the Hindu month of Kartik (November–December). The day is sacred to Lord Vishnu and Lord Shiva. They are worshipped individually or together in different temples in Varanasi, Rishikesh, Gaya and Maharashtra.



The holy day of Vaikuntha Chaturdashi is also observed in Maharashtra by the Marathas as per the custom set by Shivaji and his mother Jijabai for this occasion and by the Gaud Saraswat Brahmins, though in a slightly different format.

Legend

According to Shiva Purana, Once, Lord Vishnu, Lord of Vaikuntha, left his abode and went to Varanasi to worship Lord Shiva on this day. He pledged to worship Shiva with one thousand lotuses. While singing hymns in glorification of Shiva, Lord Vishnu found the last or 'thousandth' lotus missing. Vishnu, whose eyes are often compared to lotuses, plucked one of them and offers it to Shiva. Lord Shiva becoming intensely pleased with His love, restored Vishnu's eye and rewarded Him the Sudarshana chakra, Vishnu's discus and sacred weapon. Lord Vishnu and Lord Shiva promised to open the doors of heaven on Vaikuntha Chaturdashi for their devotees.



According to legend of Vaikuntha Chaturdashi related to the Varanasi festivities, a Brahmin named Dhaneshwar who had spent his lifetime committing several sins, visited the bank of the Godavari River to take a bath and wash off his sins, when Vaikuntha Chaturdashi was being observed by a large number of devotees by offering earthen lighted lamps and batti (wick) to the sacred river. Dhaneshwar mingled with the crowd. When he died, his soul was taken by Yama, the god of death, to hell for punishment. However, Shiva intervened and told Yama that Dhaneshwar's sins were cleansed due to the touch of the devotees on Vaikuntha Chaturdashi. Then Dhaneshwar was released from hell and got a place in the Vaikuntha.



This folklore in Maharashtra state in India is a practice that was set by Shivaji, the founder of the Maratha Empire and his mother Jijabai. After Shivaji was crowned, the capital was built at Raigarh, which also had a large lotus tank called Kushavarta. The lotus flowers in the tank bloomed during the month of Kartik in a splendour of white, blue and red colours. When Jijabai and Shivaji saw the blooms, and Jijabai commented to Shivaji that Vaikuntha Chaturdashi was in the offing. Shivaji recalled the Vishnu and Shiva legend. Like Vishnu, Jijabai also wished to offer a thousand white lotus flowers to Shiva at his Jagadeeshwara temple. She was very particular that the flowers should be unblemished white lotus flowers, fresh and unplucked by any other person (as by such an act its divine quality would be lost). As the aged Jijabai would be able to pick the flowers by herself, Shivaji was unable to find a way to fulfil her wish and convened his court to discuss the problem. In the court, Vikram Dalvi - the young a personal body guard of Shivaji had a solution. Then Dalvi offered to undertake this task and assured Jijabhai and Shivaji that he would pick the lotuses without touching them. Shivaji told him that if he failed he would be subject to severe punishment. On Vaikuntha Chaturdashi, Dalvi went to the tank, early in the morning, offered his obeisance to Shivaji and Jijabai, when other courtiers and citizens had gathered to watch the event. Then he lay down flat on the ground in front of the tank and shot arrows one after the other in quick succession to cut the lotus stems. Then he got into the tank in a boat and used a pair of tongs to pick the flowers without touching them, as promised. Shivaji and Jijabai were pleased with the ingenious and incomparable performance of the archery skill of Dalvi, and as a gesture of appreciation presented him with a gold and emerald necklace, in the presence of the assembled crowd.



Significance of Vaikuntha Chaturdashi:

Observing fast on Vaikunth Chaturdashi has an immense importance. A bath should be taken early in the morning. Clean clothes should be worn. Lord Vishnu should be worshipped with flowers, lamps, and sandalwood. According to an ancient belief, Lord Vishnu took a pledge that he would offer one thousand Lotus flowers to Lord Shiva in Kashi. Those who offer one thousand Lotus flowers to Lord gets relief from all sufferings and go to Baikunth Dham after death. The devotees should light 14 lamps at the bank of the river in the evening. Kartik Shukla Chaturdashi is a symbol of the unity between Lord Shiva and Lord Vishnu.



Celebrations and Rituals:

Devotees of Lord Vishnu offer Him one thousand lotuses while reciting the Vishnu sahasranama, the thousand names of Vishnu. The Vishnupada Temple, which is believed to have footprints of Vishnu, celebrates its main temple festival in this period. The festival is also celebrated as kartik snan (bathing in a river or stream during the kaartik maas) by Vishnu devotees. In Rishikesh, this day is observed as Deep Daan Mahotsav to mark the occasion of Vishnu waking up, out of his deep sleep. As a mark of environmental awareness, the deeps or lamps are made of flour (which would disintegrate in water) instead of burnt earthen lamps. The lighted lamps are floated in the holy Ganges River in the evening. This is accompanied by several cultural festivities.

On this occasion, Lord Vishnu is given a special place of honour in the sanctum of Kashi Vishwanath temple, a prominent Shiva temple in Varanasi. The temple is described as Vaikuntha on this day. Both the deities are duly worshipped as though they are worshipping each other. Vishnu offers tulsi (holy basil) leaves (traditionally used in Vishnu worship) to Shiva, and Shiva in turn offers Bael leaves (traditionally offered to Shiva) to Vishnu, which is taboo otherwise, to each other. Devotees start the pujas after taking baths, fasting for the whole day, and offering akshat ( turmeric mixed rice), sandalwood (Chandan) paste, sacred water of the Ganges, flowers, incense and camphor to both the deities. Then they offer lighted deeps (earthen lamps) and batti (cotton wick) as a special offering for the day. In Varanasi, women, particularly old women, outnumber others in offering prayers on this occasion. Over the years, the number of devotees participating in this festival has increased.



At the Grishneshwar temple of Shiva, Vishnu is offered Bael leaves and Shiva is offered Tulsi leaves. It is considered to portray the union of Vishnu and Shiva. In the Tilbhandeshvar temple in Nashik, the 2 feet (0.61 m) linga - aniconic form of Shiva - is dressed up in finery and a silver mask, as Ardhanarinateshvara, the half-male, half-female form of Shiva. Thousands of people worship the Tilbhandeshvar and Shiva Kampaleshvar temples in Nashik. The festival is one of the three important festivals of these temples. It is also prominently celebrated in Vishnu temples like Srirangam (Tamil Nadu), Tirupati Srinivasa temple (Andhra Pradesh), Udupi Sri Krishna Mutt (Karnataka) and many more. It is a custom to light lamps in a cut summer squash, after removing its core, thus fashioning a lamp (others use earthen lamps) and using 360 wicks, that some make by themselves specially for this occasion. These wicks are customarily as long as the pod of a cereal (moong dal)